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150 सालों से चल रहा है विशेष राज्य का विवाद और बिहार के साथ भेदभाव।

अगर मैं आपसे कहूँ कि जिस विशेष राज्य के दर्जे पर विवाद आज बिहार में हो रहा है विशेष राज्य के मुद्दे पर वो विवाद हज़ारों साल पुराना है तो आप क्या सोचेंगे? आज हम यही चर्चा करेंगे कि कैसे विशेष राज्य की व्यवस्था मगध साम्राज्य में भी थी और ब्रिटिश साम्राज्य में भी था, बस उसके प्रारूप बदलते रहे। हम ये समझने का प्रयास करेंगे कि किस तरह बिहार के साथ भेदभाव का इतिहास ब्रिटिश काल के दौरान भी उतना ही था जितना आज़ादी के बाद कांग्रेस के कार्यकाल में था या फिर जितना मोदी जी के कार्यकाल में है।

150 सालों से चल रहा है विशेष राज्य का विवाद और बिहार के साथ भेदभाव । News Hunters |

बहुत कम लोग जानते होंगे कि अर्थशास्त्र में नोवेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी बिहार के पिछड़ेपन के संरचनात्मक और ऐतिहासिक कारण के बारे में आज से बीस साल पहले अपने एक रीसर्च  में बता चुके थे और अभिजीत बनर्जी जी ने यह भी बोला था कि बिहार का पिछड़ापन तब तक दूर नहीं हो सकता है जब तक कि बिहार कोई आधारभूत और विशिष्ट बदलाव न हो। पर क्या बिहार में यह विशेष और आधारभूत बदलाव बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिए बग़ैर सम्भव है? 

मगध साम्राज्य के दौरान चाणक्य ने जो राज्य कि नीति बनाई थी उसमें भी चाणक्य ने साम्राज्य के दूरवर्ती क्षेत्रों में विकेंद्रीकृत शासन प्रणाली और मगध मतलब पाटलिपुत्र के आस पास के क्षेत्रों में केंद्रिकृत शासन प्रणाली लागू करने का सुझाव दिया था। ब्रिटिश काल के दौरान भी ब्रिटिश सरकार की अलग अलग राज्यों के प्रति अलग नीति होती थी।

Scheduled District:

किसी राज्य में ज़मींदारी व्यवस्था थी किसी में महलवारी, किसी राज्य में सड़कें और नदी-नहर-तलाव ज़मींदार बनवाते थे और किसी राज्य में ब्रिटिश सरकार ये काम खुद करती थी। लेकिन भारत के इतिहास में देश के पिछड़े क्षेत्रों के लिए विशेष आर्थिक, या प्रशासनिक प्रावधान करने का पहला उदाहरण साल 1874 में देखने को मिला जब ब्रिटिश सरकार ने हिंदुस्तान में Scheduled District Act लागू किया था।

इससे पहले चाहे वो मौर्य काल में चाणक्य की नीति हो या मुग़ल के दौर में तोडरमल की कर नीति, वो अलग अलग राज्यों के साथ अलग अलग नीति इसलिए नहीं अपनाते थे क्यूँकि कोई विशेष राज्य या विशेष क्षेत्र पिछड़ा है इसलिए उसे विशेष सहायता या विशेष छूट दिया जाए बल्कि इसलिए अपनाते थे क्यूँकि चाणक्य या तोडरमल या फिर सम्राट चंद्रगुप्त या अकबर को ये पता था कि राजधानी पाटलिपुत्र या दिल्ली या आगरा से अधिक दूरी वाले विशेष राज्यों को विशेष प्रशासनिक या आर्थिक स्वायत्ता नहीं देंगे तो ऐसे दूर वाले राज्यों में हमेशा विद्रोह होते रहेंगे। 

लेकिन जब ब्रिटिश सरकार ने साल 1874 में Scheduled District Act लागू किया तो इसलिए लागू किया ताकि इन पिछड़े ज़िलों को उनकी ग़रीबी और पिछड़ेपन से उबारने के लिए विशेष आर्थिक सहायता और विशेष प्रशासनिक सहायता मिल सके। ब्रिटिश काल के दौरान ऐसे विशेष सहायता प्राप्त करने वाले ज़िले अक्सर आदिवासी बहुत, और पहाड़ी व घने वन वाले क्षेत्र होते थे। ऐसे ज़िलों के लिए विशेष क़ानूनी प्रावधान बनाए गए।

जलपाईगुड़ी, दार्जीलिंग, चिट्टगोंग, साँठल परगना, अंडमान निकोबार द्वीप, अरकान का पहाड़ी इलाक़ा, जैसे हिंदुस्तान के कई क्षेत्रों को Scheduled District की सूची में शामिल किया गया। इसकी संख्या आगे आने वाले समय में घटती-बढ़ती रही। इस क़ानून के अनुसार इन ज़िलों के प्रशासन में स्थानीय ब्रिटिश अधिकारी को अन्य ज़िलों के अधिकारियों की तुलना में अधिक स्वायत्ता थी। और इस तरह से इन्हें विशेष राज्य समझा जाता था।

Backward Tracts:

साल 1917 में मोंटेग़ुए चेम्सफ़ोर्ड ने इस विशेष ज़िलों का नाम Scheduled District से बदलकर ‘Backward Tracts’ रख दिया और इसे दो वर्गों में विभाजित कर दिया। 1918-19 के इस बैक्वर्ड ट्रैक्ट प्रावधान के पहले वर्ग में लछ्द्विप, मद्रास का मिनिकोय, बंगाल का चिट्टगोंग, ओड़िसा का अंगुल और हिमाचल का स्पीती को ही शामिल किया गया था जबकि दूसरे वर्ग, जिसमें उत्तराखंड था, उसमें असाम समेत लगभग पूरा उत्तर-पूर्व भारत के साथ साथ मध्य भारत और नोर्थ वेस्टर्न फ़्रंटीयर प्रांत के आदिवासी क्षेत्र भी शामिल थे।

पहले वर्ग के विशेष भौगोलिक क्षेत्रों को दूसरे वर्ग के क्षेत्रों की अपेक्षा में अधिक प्रशासनिक स्वायत्ता थी। साल 1918 में ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित इस सुझाव के अनुसार ऐसे पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए विशेष प्रावधान की ज़रूरत है जो केंद्र सरकार ही कर सकती है। इन पिछड़े क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के संरक्षण के लिए ब्रिटिश सरकार ने फ़ैसला लिया कि इन पिछड़े क्षेत्रों में कोई बाहरी व्यक्ति आकर ज़मीन नहीं ख़रीद सकता है और न ही बाहर से आकर व्यापार-वाणिज्य या उद्योग लगा सकता था। इसके अलावा इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों को अपने पारम्परिक जीविका के साधन का स्वायत्ता के साथ इस्तेमाल करने का पूरा अधिकार था।

इसके बाद फिर साल 1935 के भारतीय संविधान में फिर से बदलाव किया गया। नए क़ानून में इन पिछड़े क्षेत्रों मतलब  ‘Backward Tracts’ के दो वर्गों को Excluded और Partially Excluded क्षेत्र का नाम दिया गया। Excluded वर्ग में आने वाले असाम, मद्रास, बंगाल, नोर्थ वेस्ट फ़्रंटीयर और पंजाब के पिछड़े क्षेत्रों को गवर्नर के अंडर में पूर्णतः केंद्र सरकार के अधीन किया गया जबकि देश के अन्य भागों में फैले Partially Excluded पिछड़े क्षेत्रों के विकास की ज़िम्मेदारी निर्वाचित प्रांतीय विधानसभा और केंद्र सरकार के अधिकार/कर्तव्य क्षेत्र में समग्र रूप से रखा गया।

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British Expenditure on education in India
चार्ट: साल 1877-78 और 1927-28 के दौरान ब्रिटिश सरकार द्वारा अलग अलग राज्यों में शिक्षा पर किया जाने वाला खर्च.

इन क्षेत्रों में कोई भी कार्य बिना गवर्नर की सहमति के नहीं किया जा सकता था। गवर्नर को यह अधिकार था कि वह निर्वाचित मंत्रिमंडल द्वारा इन क्षेत्रों के लिए गए किसी भी फ़ैसले पर रोक लगा सकता था और विशेष क़ानून या प्रावधान कर सकता था।

ब्रिटिश सरकार द्वारा इन पिछड़े क्षेत्रों को विशेष क्षेत्र और विशेष राज्य घोषित किए किए जाने के फ़ैसले का कुछ राष्ट्रवादियों ने विरोध भी किया था। जब 1918 में ब्रिटिश सरकार ने आज के उत्तराखंड के पहाड़ी ज़िलों को ‘Backward Tracts’ घोषित किया तो हरगोविंद पंत और पंडित मदन मोहन मालवीय ने इसका विरोध किया था जिसके कारण उत्तराखंड को ‘Backward Tracts’ क्षेत्र नहीं घोषित किया जा सका। उत्तराखंड के इस विशेष राज्य की कहानी आपको किसी और विडीओ में बताएँगे। 

हिंदुस्तान के कुछ चुनिंदा पिछड़े भौगोलिक भूभागों को ‘पिछड़ा क्षेत्र’ (बैक्वर्ड ट्रैक्ट) घोषित करने और उन क्षेत्रों को विकास की मुख्य धारा के साथ जोड़ने के उद्देश्य से विशेष प्रशासनिक क्षेत्र सम्बंधित क़ानूनी प्रावधान के विषय पर 1920 के दशक के दौरान शुरू हुआ विवाद आज़ादी के बाद भी जारी रहा। कभी इन क्षेत्रों को  बैक्वर्ड ट्रैक्ट का नाम दिया गया, कभी स्केजूल्ड क्षेत्र, कभी इक्स्क्लूडेड व पार्शली इक्स्क्लूडेड क्षेत्र, तो कभी ट्राइबल डिवेलप्मेंट काउन्सिल और विशेष राज्य का दर्जा के नाम पर इस विषय पर विवाद जारी रहा। और यह विवाद आज भी जारी है।

संविधान सभा में विशेष राज्य:

जब देश आज़ाद हुआ तो संविधान सभा में देश के पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए विशेष प्रावधान के लिए दो संवैधानिक समितियों का गठन किया गया। दोनो समितियों ने साफ़ शब्दों में यह सुझाव दिया कि इन क्षेत्रों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने और संरक्षित करने के ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार की होनी चाहिए जबकि राज्य सरकार और गवर्नर इस प्रक्रिया में केंद्र सरकार का पूरा सहयोग करे। इन पिछड़े क्षेत्रों में विकास की अधिक ज़िम्मेदारी राज्य सरकार को दिए जाने के विरोध में बाबा साहेब अम्बेडकर ने बताया था कि सीमित संसाधनों के साथ राज्य सरकारें यह कार्य करने में अधिक सक्षम नहीं है।

इस सहयोग के प्रारूप पर संविधान सभा में लोग दो हिस्से में बटे हुए थे। इनमे से एक तबका जिसमें बिहार के जयपाल सिंह मुंडा, और ओड़िसा के यधिश्तिर मिस्र प्रमुख थे जबकि दूसरा पक्ष बाबा साहेब अम्बेडकर और के एम मुंशी जैसे लोगों का था। जयपाल सिंह मुंडा चाहते थे कि जिस तरह से असाम और उत्तर पूर्व के अन्य क्षेत्रों में कुछ आदिवसी बहुल विशेष क्षेत्रों में ज़िला आधारित स्वयायत ट्राइब अड्वाइज़री काउन्सिल के गठन का प्रावधान पर सर्वसम्मति बनी है उसी तरह बिहार (झारखंड), ओड़िसा, मध्य प्रदेश के उन ज़िलों में भी स्वयायत ट्राइब अड्वाइज़री काउन्सिल का गठन हो और राज्य सरकारों को इन क्षेत्रों के विकास के लिए विशेष निर्देश दिया जाय।

लेकिन इस पूरे विवाद में पिछड़ेपन के आधार को धीरे धीरे जाति, जंगल और ज़मीन तक समेटने का प्रयास किया गया। इस विवाद की प्रकृति, प्रवृति, प्रारूप, विषयवस्तु और प्रावधानों में समय और समाज के साथ साथ देश की राजनीति में निरंतर बदलाव के साथ परिवर्तन आया लेकिन एक तथ्य जो आज तक अटल तथ्य बना हुआ है वह यह है कि हिंदुस्तान का कुछ विशेष भौगोलिक भूभाग (विशेष राज्य) और हिंदुस्तानी समाज का कुछ विशेष सामाजिक समूह विकास की मुख्य धारा से जुड़ने के प्रक्रिया में पीछे है और उन्हें विकास की मुख्य धारा में जोड़ने की नितांत आवश्यकता है। और इसके लिए उक्त विशेष राज्य या विशेष जाति के लिए विशेष प्रावधान की ज़रूरत है। 

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भारत में जब जाति आधारित आरक्षण लागू हुआ तब भी इसे लागू करने की ज़रूरत के पीछे यही तर्क था कि समाज का जो भी हिस्सा पिछड़ा रह गया है उसे विशेष सुविधा और सुरक्षा देने की ज़रूरत है और जब देश के पिछड़े क्षेत्रों को दुर्गम क्षेत्रों को विशेष सुविधा दिया गया तब भी यही तर्क था कि देश का जो भी हिस्सा पिछड़ा रह गया है उसे विशेष सुविधा देने की ज़रूरत है।

आज जब यह सबको पता है कि जिस तरह भारतीय समाज में दलित समेत कई जातियाँ पिछड़ी है उसी तरह बिहार भी सर्वाधिक पिछड़ा है तो बिहार को किसी तरह की विशेष सुविधा से वंचित किया जा रहा है। जिस तरह दलितों को आरक्षण सामाजिक, शैक्षैनिक, आर्थिक और ऐतिहासिक पिछड़ापन के कारण दिया गया है उसी तरह बिहार का भी पिछड़ापन संरचनात्मक भी है, आर्थिक भी है, शैक्षैनिक भी है और ऐतिहासिक भी है। बिहार के साथ भेदभाव कोई मोदी जी के सत्ता में आने से शुरू नहीं हुआ है बल्कि बिहार के साथ भेदभाव का इतिहास आज़ादी से भी पहले अंग्रेजों के काल तक जाता है। 

विशेष राज्य के साथ भेदभाव:

साल 1876-77 के एक रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटिश सरकार ने अगर बिहार-बंगाल-ओड़िसा पर एक सौर रुपए खर्च किया तो उसके बदले बम्बई प्रांत पर 374 रुपया खर्च किया, पंजाब पर 244 रुपया, बर्मा पर 470 रुपया, मध्य प्रांत मतलब मध्य प्रदेश पर 185 रुपया, मद्रास पर 159 रुपया, असाम पर भी 159 रुपया, और उत्तर प्रदेश पर मात्र 140 रुपया। मतलब बिहार को सबसे कम।

इसी तरह से साल 1927-28 के एक दूसरे रिपोर्ट के अनुसार बॉम्बे प्रांत पर अगर 411 रुपया खर्च किया गया तो मद्रास पर 193, मध्य प्रदेश पर 169 रुपया, आसाम पर 136 रुपया, उत्तर प्रदेश पर 103 रुपया और बिहार-ओड़िसा पर मात्र 75 रुपया। सिर्फ़ शिक्षा पर ब्रिटिश सरकार द्वारा किए गए खर्च को भी देखे तो वही हाल था, बिहार पर सबसे कम खर्च किया गया था।

1927-28 में अगर बॉम्बे प्रांत के शिक्षा पर 345 रुपया खर्च किया गया तो बिहार-ओड़िसा के ऊपर मात्रा 83 रुपया खर्च किया गया था। इसी तरह स्वास्थ्य पर अगर ब्रिटिश सरकार ने बॉम्बे प्रांत पर 141 रुपया खर्च किया और पंजाब पर 126 रुपया खर्च किया तो बिहार-ओड़िसा पर मात्रा 51 रुपया खर्च किया गया था। मतलब साफ़ है बिहार के साथ भेदभाव का इतिहास बहुत पुराना है और बिहार के साथ होने वाले इस भेदभाव को आज़ादी के बाद भी नहीं ख़त्म किया गया। 

देश की आज़ादी के बाद, आज़ाद भारत में देश का सबसे बड़ा डैम कोसी नदी पर बिहार में बनना तय हुआ था लेकिन भारत सरकार ने उस डैम को बिहार से छिनकर पंजाब लेकर चली गई और वहाँ भंखड़ा नांगल डैम बना। आज़ादी के बाद जब बिहार में जब झारखंड और बिहार एक ही राज्य था तब बिहार में खनिज संपदाओं की भरमार थी।

लेकिन जब भारत सरकार ने खनिज संपदाओं पर रॉयल्टी का निर्धारण किया तो उसमें भी बिहार के साथ अन्याय किया गया। कोयला, अभ्रक, लोहा, ताम्बा सीमेंट जैसे जो खनिज सम्पदाएँ बिहार में ढेर सारा था उन खनिज संपदाओं पर रॉयल्टी का निर्धारण उसकी क़ीमत के आधार पर नहीं बल्कि वजन के आधार पर किया गया जिससे बिहार को बहुत नुक़सान होता हुआ और वो नुक़सान 1990 के दशक तक जारी रहा।

दूसरी तरफ़ पेट्रोलियम जैसे खनिज जो बिहार में बिल्कुल नहीं था उसके ऊपर रॉयल्टी का निर्धारण उसकी क़ीमत के आधार पर कर दिया गया जिससे गुजरात जैसे पेट्रोलियम वाले राज्य को खूब फ़ायदा हुआ और बिहार को नुक़सान हुआ। 

भारत सरकार की ऐसी बहुत सारी बिहार विरोधी नीतियों ने बिहार के पिछड़ेपन को और अधिक बढ़ाती चली गई। हालाँकि आज़ादी के बाद देश के पिछड़े क्षेत्रों के लिए भारत सरकार ने विशेष राज्य दर्जा (Special Status) और विशेष राज्य श्रेणी दर्जा (Special Category Status) जैसे दो प्रावधान किए और दोनो प्रावधानों के तहत देश के पिछड़े क्षेत्रों के लिए विशेष राज्यों के लिए सुविधा दिया.

लेकिन बिहार को आज तक न तो विशेष राज्य का दर्जा मिला और न ही विशेष राज्य श्रेणी का दर्जा मिला, जबकि गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों के कई पिछड़े क्षेत्रों को विशेष राज्य दर्जा में शामिल किया गया। आज़ाद हिंदुस्तान में भारत सरकार की इन बिहार विरोधी नीतियों के ऊपर चर्चा हम करेंगे लेकिन अगले भाग में।

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Divya Gariya
Divya Gariya
B.Sc, B.Ed / Gwaldam, Chamoli Uttarakhand
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