अमेरिका में फगुआ-होली के रचयिता, लाल बिहारी शर्मा, छपरा के मैरीटाँड गाँव के निवासी, को कुली मज़दूर के रूप में वेस्ट इंडीज़ के गुयाना द्वीप पर ले ज़ाया गया और फिर कभी वापस नहीं आ पाए। गुयाना में मज़दूरी करते हुए उन्होंने एक किताब लिखी जो वर्ष 1916 में ‘डमरा फाग बहार’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। डमरा गुयाना में स्थित एक क़स्बा है जिसे स्थानीय भाषा में ‘डेमेरारा’ बोलते हैं और जहां शर्मा जी प्लैंटेशन गोल्डन फ़्लीस नामक चीनी निर्माता कम्पनी में ड्राइवर और ठेकेदार का काम करते थे। ‘डेमेरारा’ में बनने वाली चीनी इतनी प्रसिद्ध थी कि यहाँ की चीनी को ‘डेमेरारा चीनी’ ही बोला जाता है जो जो अन्य प्रकार की चीनी से अधिक स्वास्थ्यवर्धक समझा जाता है।
आठ वर्ष की उम्र से कविता लिखने वाले अनपढ़ माता पिता के पुत्र, शर्मा जी ने ज़्यादातर फगुआ होली गीत को बिरहा संगीत परम्परा के तहत लिखा है जो प्रेमी और प्रेमिका के विरह की दास्तान सुनाता है। विरह की इस दास्तान को फगुआ संगीत के माध्यम से सुनाने के लिए शर्मा जी ने राधा/मीरा और कृष्ण के बीच होली मिलन और उस दौरान होने वाले नोक-झोंक के साथ कृष्ण की ग़ैर-मौजूदगी में राधा के विरह की पीड़ा का भी का सहारा लेते हैं। एक पलायन किए हुए मज़दूर और उसकी प्रेमिका के बिरह को राधा-कृष्ण के प्रेम सम्बंध के ज़रिए फगुआ (होली) गीत के माध्यम से गाना शर्मा जी की रचना को अन्य रचनाओं से अलग करती है।
इस होली संग्रह पुस्तक के प्रारम्भ में अपना परिचय शर्मा जी कुछ इस तरह देते हैं:
भूमि जन्म का, प्रांत छपरा, गाँव मैरीटाँड है।।
ब्रह्मदेव कर पुत्र जानो,
लाल बिहारी नाम है।।
आइके हम बस किन्हा,
देश डमरालोक है।।
रहत हम हैं शरण प्रभु के।
कटत दिन सब निक है।।
जिस तरह अंग्रेज़ी की तुलना में हिंदी को हिंदुस्तान में हीन दृष्टि से देखा जाता है उसी तरह वेस्ट इंडीज़ में भी भोजपुरी बोलने वालों को हीन दृष्टि से देखा जाता था। इसके कारण बहुत जल्दी ही भोजपुरी वेस्ट इंडीज़ से विलुप्त होने लगी या घरों की चारदीवारी तक सीमित हो गई थी। वेस्ट इंडीज़ में भोजपुरी का कुछ अपभ्रंश होली जैसी अन्य साहित्यिक रचनाओं तक ही सीमित है।
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शर्मा जी की किताब 19वीं व 20वीं सदी के दौरान कुली मज़दूर के रूप में विदेशों में पलायन करने वाले किसी भारतीय द्वारा लिखा गया एकमात्र किताब है। शर्मा जी द्वारा किताब लिखना आश्चर्यजनक है क्यूँकि यह आम धारणा थी कि पलायन करने वाले ये कुली मज़दूर अनपढ़ होते थे। लेकिन शर्मा जी न सिर्फ़ साक्षर थे बल्कि उन्हें मध्यकालीन भक्तिकालीन साहित्य का वृहद् ज्ञान था जो उनकी इस होली संग्रह किताब में झलकता है।
शर्मा जी ने अपनी होली संग्रह किताब में चौपाई, चौतल, दोहा, कवित्त और उलारा के साथ साथ भजन के रूप में भी अपनी बातें लिखी। कबीर, नानक, रैदास आदि की छवि इनकी रचना में बार बार उभरकर आती है। वेस्ट इंडीज़ के गुयाना, जहाँ शर्मा जी मज़दूरी करने गए थे उसका वर्णन करते हुए लिखते हैं:
ब्रिटिश गुयाना देश में, यधपि प्रांत अनेक।
कहूँ विचित्र कहूँ अतिदूखि, यह निज मनकर टेक।।
एस्सीकुइबो प्रांत में, गोल्डन फ़्लीस एक गाँव।
अति सुंदर स्थान यह, सब जानत यह ठाँव।।
पंडित परमानंद जी, बासी जहांकर आहि।
सबही को वह विदित है, देश विदेशन माहिं।।
रामचरण पुनि बंदिकर, महिसासुर पद मन धार।।
पंडित जी के चरण युग, हमरे प्राण अधार।।
लिखन चाहो कुछ डमरा रीति, सुनि है सज्जन करि प्रीति।
यह है देश कूदेश अपारा, रहत न धर्म विवेक विचारा।
देश छोडिकर डमरा आय, आपण नाम सो कुली लिखाय।।
भजन छोड़ी छोड़े निज धरमा, छोड़ी वेद्पथ करहिं कुकरमा।
नित्यकर्म जो डमरा माहीं, सो अब लीखों कबित्त के माहीं।।
शर्मा जी वहाँ वर्ष 1838 से 1917 तक एक ड्राइवर और ठेकेदार के रूप में कार्य किया जो अन्य कुली मज़दूरों को एक जगह से दूसरे जगह ले जाता था और जिसके कारण उन्हें अलग अलग स्थानों से आए कुली मज़दूरों के जीवन का विस्तृत अनुभव हुआ। शर्मा जी जिस चीनी फ़ैक्टरी में काम करते थे वहाँ के सभी मज़दूर उन्हें सरदार बोलकर पुकारते थे। अपनी किताब में शर्मा जी भी अपने आप को सरदार ही लिखते हैं। अमेरिका के प्लांटेशन में कुली मज़दूर सभी पढ़े लिखे भारतीय ठेकेदारों को सरदार बोलकर ही पुकारते थे क्यूँकि ऐसे पदों पर ज़्यादातर पंजाबी सरदार ही कार्य किया करते थे।

शर्मा जी गुयाना में एक कुली मज़दूर की रोज़ की दिनचर्या का वर्णन करते हुए लिखते हैं:
बाज़ी घंटी पाँच की, कि हंडी दीनी चढ़ाय।
भात लिया है बनाय दही चीनी मेलि के ।।
खाय के आनंद भये द्वारे आए सरदार।
ठाढ़े करत पुकार आज्ञा दे सम्हार के।।
अब धोय के ससपान भात, लेट है भराय।
चिलम तयार करि धरत सम्हार के।।
जमा भये नर नारि काँधे धरे हैं कूदारी।
भीर भई भारी पहुँचे डमरहु ज़ायक़े।।
वर्ष 1910 तक शर्मा जी ने गुयाना में बंजर पड़े तीन चीनी मिल ख़रीदकर उन्हें राइस फार्म में तब्दील कर दिया जिसमें भारतीय मज़दूर पट्टे पर बटाईदार के रूप में काम करते थे। वर्ष 1920 तक जब शर्मा जी आमिर हो चुके थे और वो गोरे की नौकरी छोड़ दिया था। उन्होंने अपना नाम भी लाल बिहारी से बदलकर पंडित रास बिहारी रख लिया। सम्भवतः इस नाम को गुयाना के कुली मज़दूरों के बीच अधिक इज्जत मिलती थी क्यूँकि रास बिहारी बोस भारतीय स्वतंत्रता सेनानी का नाम था जिन्होंने हिंदुस्तान के बाहर रहने वाले भारतीयों को अंग्रेज के ख़िलाफ़ विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया था।
अमीर और प्रभावशाली बनने के बाद शर्मा जी ने भारतीय मज़दूरों को बेहतर जीवन देने का प्रयास किया। उनके लिए अच्छे घर बनवाया, उनके लिए अक्सर सामूहिक भोज का आयोजन करते थे और उन्हें धार्मिक ज्ञान भी देते थे। बहुत जल्दी शर्मा जी अपने क्षेत्र के निर्वाचित नेता भी बन गए थे।
शर्मा जी द्वारा लिखी गई होली संग्रह की किताब लगभग सौ वर्ष पहले खो गई थी। उनके पोते के पास किताब की एक प्रति थी जिसे वो होली के दौरान फगुआ गाने के लिए इस्तेमाल करते थे लेकिन वर्ष 1939 में वो भी होली के दौरान रंग में भीगकर फट गई थी। अंततः किताब की एक प्रति ब्रिटिश लाइब्रेरी में मिली जिसकी हालत बहुत ख़राब थी। किताब का अंग्रेज़ी अनुवाद राजीव मोहबिर ने “I Even Regret Night: Holi Songs of Demerara”, शीर्षक से किया है।
फगुआ होली गीत:
शर्मा जी द्वारा लिखी गई पुस्तक में शामिल होली गीतों की कुछ चुनिंदा पंक्तियाँ निम्न है:
1.
सखि आये बसंत बहार पिया नहिं आये ।
फागुन मस्त महीना सखिया मोर जिया ललचाये ।।
सब नर नारी जो पागुन गावत, सखि मोकहं सूम बढ़ाये ।
ताल मृदंग झांझ डफ बाजे सबको मन हरषाये ।।
मैं बिरहिनि सेजियापर बिलखति, मोहिं अजु मदन तनु छाये ।
भरभरके पिचकारी मारत नात गोत बिलगाये ।।
सखि सब घर घर धूम मचावत, तहां रंग अबिरन छाये ।
गोरी देत सभीको सबही ना कोइ काहु लजाये।।
लालबिहारी विरहबस बनिताहो, सोतो बैठे मनहि सुझाये ।।
2.
फागुन मस्त महीना सजनी पियबिन मोहिं न भावे ।।
पवन झकोरत लुह जनु लागत, गोरी बैठी तहां पछितावे ।
सब सखि मिलकर फाग रचतहैं । ढोल मृदंग बजावे ।।
हाथ अबीर कनक पिचकारी हो, सखि देखत मन दुख पावे ।
हे बिधना मैं काहबिगाड़ो जनम अकारथ जावे ।।
लालबिहारी कहत समुझाइ हो, गोरी धीरजमें सुख पावे ।।

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