वर्ष 1922 की होली 13 मार्च को मनाया जाना था। इसी वर्ष जनवरी में वर्तमान उत्तर प्रदेश से होली गीतों के संग्रह की दो किताब प्रकाशित होती है। पहली किताब आफ़त की होली या राष्ट्रीय फाग की तीन हज़ार प्रतियाँ हिंदी पुस्तक भंडार लखनऊ से छपती है और दूसरी किताब ग़ज़ब की होली या राष्ट्रीय फाग की दो हज़ार प्रति भारती भंडार प्रकाशन, दालमंडी, कानपुर द्वारा जनवरी 1922 में प्रकाशित की जाती है। यह दूसरी किताब की प्रति हफ़्ते भर के भीतर बिक जाती है और किताब का दूसरा संस्करण दो हफ़्ते के भीतर 5000 प्रतियों के साथ 7 फ़रवरी 1922 को प्रकाशित होती है।
होली और स्वतंत्रता आंदोलन:
दोनो किताबों की प्रतियाँ हाथों हाथ बिक रही थी। यह वो दौर था जब किताब के मुख-पृष्ठ पर लेखक से बड़े अक्षरों में प्रकाशक का नाम छापा होता था। दोनो किताबों का काला बाज़ारी होने लगी जिसके कारण एक प्रकाशक को तो अपनी किताब के मुख-पृष्ठ पर यह लिखना पड़ा कि उक्त किताब को छः आना से अधिक मूल्य पर बेचने वाले वाले व्यक्ति के ख़िलाफ़ क़ौमी अदालत में मुक़दमा चलाया जाएगा। क़ौमी अदालत वह अदालत थी जो देश के विभिन्न हिस्सों में गांधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान क्रांतिकारियों ने अपने आप को स्वतंत्र घोषित कर स्वदेश अदालत स्थापित कर लिया था।
इसी बीच 5 फ़रवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के चौरी चौरा में एक हिंसात्मक घटना में क्रांतिकारियों ने एक पुलिस थाना में आग लगा दी जिसमें 22 पुलिसकर्मी ज़िंदा जलकर ख़ाक हो गए। इस घटना के बाद गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन ख़त्म करने का फ़ैसला लिया। गांधी जी ने अपने संदेश में देश की जानता को पहले अपने आप को अहिंसात्मक आंदोलन के लिए तैयारी करने का आवाहन किया।

पहले किताब के लेखक विनोद हैं जो अपनी किताब में 15 होली गीतों का संग्रह करते हैं। इन गीतों में न सिर्फ़ महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन का ज़िक्र किया जाता है बल्कि लोगों से चरखा, स्वदेशी, अहिंसा को अपनाने के साथ साथ लोगों से जाति व्यवस्था को त्यागने और धार्मिक सौहार्द बनाने का भी आग्रह किया जाता है। होली के अन्दाज़ में इन गीतों में अंग्रेजों पर कई तरह ए कटाक्ष भी किया जाता है। किताब के गीतों के कुछ अंश निम्न है।
भारतवर्ष में जौ फ़ैशन था उसको दियों बहाई,
खद्दर और सादगी सब कहिं सबको परै दिखाई।
सत्याग्रह में वे भर्तीहो जो हो धरम धुरीना,
अहिंसा व्रत से टरै न कबहुँ चहे तन होवै छिना।।
असहयोग में करो न भर्ती जो हो चरित विहिना,
कहैं विनोद यों गड बड़ होगी मन में रखो यक़ीना
कलकत्ते की महा सभा में बैठे चतुर सुजान,
गांधी जी ने गाई रागिनी बैठि श्याम कल्याण
यह अमृत की वर्षा बर्षी सभा सदों के कान,
लाला जी गांधी से बोले फेरि सुनाओ ज्ञान।
छोटे बड़े लाट सब मिलकर की चातुरी महान,
ग़ैर क़ानूनी स्वयं सेवक है, यह किन्हा एलान।
लंदन के पार्लमेंट में दिंहो दुंद मचाई,
गांधी का दल बाग़ी है गा यही का देव नशाई।
गुलाल अबीर अरु रंग विदेशी कोई ना मोल मंगाओ,
कपूर केसर चंदन घिस कर सबके माथ लगाओ।
हर सिंधार, तनु, कुसुम अरु टेसू सब मिलि दही घूराओ,
भरी पिचकारी होरिहारिन की टोली पर बरसाओ।
छुआ छूत का भूत हटा कर मिला सबन दिल खोली हो,
प्रेम गुलाल एका अबीर का भर भर डालो झोली हो।
अपने गीत में लेखक विनोद लोगों से महिला का सम्मान करने और बाल विवाह जैसी कुरीति को भी छोड़ने का आग्रह करते हैं। होली के दौरान लड़कियों और महिलाओं के साथ होने वाली बदतमीजी आदि को बंद करने को कवि देशभक्ति के साथ जोड़ते हैं।
गावन में जो बदमशवा हो उनको देव समूझाई,
उनके संग कबहूँ जो परि हौ तौ फिर जाव नशाई।
लीद, मूत, कीचड़ का फेंकना नहीं उचित दिखलाई,
यह सब काम कमीनन के है देय तुम्हें समूझाई।
पर नारी पर बिटियन को लखि गाओ न गाली भाई,
यह सब काम मूर्खों ने ही सब कहिं दिये चलाई।
अब तो साठ बरस के डुकरा करते ब्याह सगाई,
आप जाय मरघट में पहुँचे गडे दई बिठाई।
छूटपन में लड़का लड़किन की करते ब्याह सगाई,
वे बल बुद्धी से विहीन है भरते दुःख सदाई।
निर्वल वीज के पौधे जैसे देवै पवन गिराई,
औलादें कमजोर बीज की त्यों मरती अधिकाई।
न्याय सहित जो निर्बल होवै उसकी करौ सगाई,
अन्याई जो महा बाली हो उसको देउ नसाइ।
इन गीतों में होली के दौरान शराब, गाँजा, भांग आदि के नशे के ख़िलाफ़ भी पंक्तियाँ है:
गाँजा, भंग शराब चरस अरु है अफ़ीम में लीना,
तंदुरुस्ती चौपट हो पहिले फिर तन होवे छीना।
मारे भूखन सब घर तलफ़ै मिलता नहीं चबेना,
नशे खाय कर तुमने अब तो राक्षस पद को लीना।
पहिले के ब्राह्मण हते, करै बेद शास्त्र उपदेश,
अब के ब्राह्मण गाली गावै बने फ़ीरै बेवक़ूफ़।
पहिले यहाँ के सकल विप्रगन करते श्रुति गान,
अब तो गाली बकते फिरते तेज करके कुल कान।
पर नारी पर बिटियन को लखि कमीन गाली गाओ,
यह सब काम कमीनन के है समझो अरु समझाओ।
सदा आनंद रहै यह भारत सब मिलि खेलै होली हो,
नारिन को लखि गाली देना यही कमीनी होली हो।
बातै कह कर फ़ुहर गंदी कोई ना करो ठिठोलि हो,
मीठी और रसीली प्यारी सच्ची बोलो बोली हो।

इसी तरह से ग़ज़ब की होली या राष्ट्रीय फाग शीर्षक से दूसरी किताब जिसके लेखक उन्नाव के शिवशंकर मिश्र और सिद्ध गोपाल शुक्ल थे उन्होंने कनपुरिया अन्दाज़ में अंग्रेजों की संस्कृति पर खूब चुटकुले कसे हैं।
तू अति रंक विलायत रानी, तू कारो वह गोरी है,
तू है दुखी दलिद्र को दादो वह धन धनेश की छोरी है।
तू बूढ़ो बलहीन भिखारी वह सबला पीन पठोरी है,
तू आलस उजड़ को उल्लू वह साहस चंद्र चकोरी है।
तू परिताप तेल को पीपा वह सुखरस भरी कमोरी,
तू अपनो घर बार लूटाबै वह औरन की घर फ़ोरी है।
तू केवल वाही को चेरो उन जग से यारी ज़ोरी है,
अपनो रुधिर आपतू पीबै उन सबकी तीत निचोरी है।
तू नाचै वह तोहि नचावै तू कठउतरा वह डोरी है,
मेला पाग पिछौरी तेरी वह मोन गली रंग बोरी है।
तेरो मान मयै कलकत्ता वह लंडन की झकझोरी है,
तू साहब शंकर को मानै वह गिरजा मिल भोरी है।
गाँजा भंग अफ़ीम तमाखु और शराब नसये,
हाथ जोरि समझैये सब को, ठेके बंद करैये।
उजड़े जात नशे के ठेके, होत न भीड़ भडंका है,
कालिज सुने लगैं भयंकर मानों फूंकी लंका।
बीच बाज़ार रची है होली सब फगुहार उलंका है,
दै परदेशी पटकी आहुति जोरत भीड़ भडंका है।
छीन लेत दुपट्टा टोपी जयों फ़िल्ट को शंका है,
बेंच रहे जो वस्त्र विदेशी तिनको भई कुशंका।
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सदा आनंद रहै यह टोला मोहन खेलै होली हो,
जब तक नहीं स्वराज मिलेगा भारत की कस होली हो।
जालियाँ वाले बाग बनाले चाहे करै ठिटोलि हो,
लै स्वराज जब रंग जमावें तब खेलै फिर होली हो।
सदा आनंद रहै यह नगरी मोहन खेलै होली हो,
इधर प्रजा है भोली भाली उत डायर की टोली हो।
करो वही जो तुमको भावै यही हमारी बोली हो,
जब तक नहीं स्वराज मिलेगा यही हमारी होली हो।
उधर फ़ौज की खड़ी क़तारें इधर ज़रा सी टोली है,
उधर घात है बात बात में इधर प्रेम की बोली है।
अजब घूम है ठाट निराला, मुदित हमारी टोली है,
फ़ौज विचारी ठाढ़े सोचै ढोल हमारी पोली है।
यह बड़े ग़ज़ब की होली है।
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