संविधान की धारा 371 के अनुसार वर्ष 1949 में गुजरात और सौराष्ट्र और कच्छ क्षेत्र के 6 ज़िलों के विकास के लिए विशेष प्रावधान के तहत विशेष आर्थिक और प्रशसनिक विशेषाधिकार दिए गए थे जो आज तक जारी है। इस विशेष संवैधानिक प्रावधान के अनुसार राज्य के राज्यपाल को यह अधिकार होगा कि वे राष्ट्रपति कि अध्यक्षता में इन ज़िलों में विशेष डिवेलप्मेंट काउन्सिल का गठन करें जिसका बजट प्रत्येक वर्ष राज्य के विधानसभा में पृथक रूप से पेश किया जाता था।
दूसरी तरफ़ सौराष्ट्र 1950 के दशक के दौरान हिंदुस्तान के कुछ सर्वाधिक विकसित राज्यों में से एक था। देश की आज़ादी से पहले ही सौराष्ट्र में रेल का घनत्व पूरे देश में सर्वाधिक था। इसी तरह 1956 तक सौराष्ट्र की सड़कों का घनत्व के साथ साथ उसकी गुणवत्ता गुजरात के अन्य भूभागों से बेहतर हो चुकी थी। 1961 की जनगणना के अनुसार सौराष्ट्र में नगरीकरण 34% थी जो कि भारत के औसत से दो गुणी थी।
गुजरात बनाम सौराष्ट्र:
देश में सर्वाधिक तेज़ी से विकास करने वाले सौराष्ट्र को विशेष राज्य का दर्जा देने के पीछे मुख्यतः कुछ राजनीतिक वजहें थी। सौराष्ट्र का क्षेत्र ऐतिहासिक के साथ साथ राजनीतिक, संस्कृति और आर्थिक रूप से गुजरात के अन्य क्षेत्रों से बिल्कुल अलग था।आज़ादी के बाद सौराष्ट्र क्षेत्र के 222 छोटी छोटी रियासतों को मिलाकर संयुक्त राज्य सौराष्ट्र का गठन किया गया था। सौराष्ट्र की कुल जनसंख्या (चालीस लाख) देश की कुल जनसंख्या का 1.2% था और देश के कुल भूभाग का 1.4% (बीस हज़ार वर्ग मील) था।
एक तरफ़ सौराष्ट्र में राजपूत पारम्परिक शासक वर्ग था जबकि गुजरात के अन्य क्षेत्रों में ज़्यादातर राजपूत कृषक बटाईदार थे। आज़ादी से पहले सौराष्ट्र समेत पूरे गुजरात में कपास मुख्य कृषि फसल थी जबकि आज़ादी के बाद सौराष्ट्र ने कपास को छोड़कर मूँगफली उत्पादन पर अधिक ज़ोर दिया और दो दशक के भीतर हिंदुस्तान के कुल मूँगफली उत्पादन का एक तिहाई हिस्सा उत्पादन करने लगा। दूसरी तरफ़ केंद्र सरकार ने मूँगफली के बिक्री पर विशेष कर के साथ साथ मूँगफली के तेल की स्वतंत्र बिक्री पर पाबंदी लगा दी थी जिससे सौराष्ट्र के लोग केंद्र सरकार और कांग्रेस से नाराज़ थे।
इसी तरह भारत सरकार की आर्थिक नीति में उन विषयों को अधिक महत्व दिया जा रहा था जो सौराष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण नहीं था। सौराष्ट्र क्षेत्र अपने 700 मिल लम्बे समुद्र तट और बंदरगाह केंद्रित आर्थिक विकास का समर्थक था जबकि दक्षिणी गुजरात उद्योग केंद्रित विकास का समर्थक था। केंद्र सरकार बंदरगाह के विकास पर कोई ध्यान नहीं दे रही थी। सौराष्ट्र के राजनेताओं ने बड़े उद्योग की जगह छोटे उद्योग के गठन पर अधिक बल दिया जिसका परिणाम था कि आज़ादी के दो दशक के भीतर सौराष्ट्र में पूरे हिंदुस्तान का बीस प्रतिशत डीज़ल इंजन का उत्पादन अकेले सौराष्ट्र में हो रहा था जबकि केंद्र सरकार बड़े उद्योगों के विकास पर विशेष ध्यान देने की नीति अपना रही थी।
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आर्थिक क्षेत्र में भी भारत सरकार की केंद्रिक्रित मूँगफली बिक्री नीति के ख़िलाफ़ सौराष्ट्र के राजनेता 1950 के दशक से ही विरोध कर रहे थे। वर्ष 1970 में राजकोट के तेल व्यापारियों ने इस नीति के ख़िलाफ़ बड़ा प्रदर्शन किया। इसके अलावा राज्य की राजधानी और उच्च न्यायालय राजकोट से स्थानांतरित कर गाँधीनगर व अहमदाबाद करने से भी सौराष्ट्र क्षेत्र के लोग रुष्ट थे। क्षेत्र से डिविज़न कमिशनर का भी कार्यालय स्थान्तरित कर दिया गया था।
वर्ष 1956 तक सौराष्ट्र पृथक राज्य के रूप में रहा जब अंततः इन क्षेत्रों को बॉम्बे प्रांत के साथ विलय कर दिया गया। इस विलय के बाद सौराष्ट्र के छह ज़िलों को संविधान की धारा 371 के तहत केंद्र सरकार की तरफ़ से मिलने वाले विशेष आर्थिक विशेषाधिकार भी ख़त्म कर दिया गया था। वर्ष 1960 में एक बार फिर से बॉम्बे प्रांत को भाषा के आधार पर दो प्रांतों में विभाजित कर दिया गया। मराठी भाषा वाले क्षेत्रों को मिलाकर महाराष्ट्र और गुजराती भाषा क्षेत्रों को मिलाकर पृथक गुजरात राज्य का गठन किया गया।
सौराष्ट्र का कांग्रेस विरोध:
गुजरात के पृथक राज्य के रूप में गठन के बाद सौराष्ट्र क्षेत्र और गुजरात के अन्य क्षेत्र के बीच राजनीतिक प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही थी। चुकी सौराष्ट्र क्षेत्र राजा-रजवाड़ों का क्षेत्र था इसलिए इस क्षेत्र की राजनीति पर कांग्रेस की पकड़ कमजोर थी जबकि कुछ रजवाड़े कांग्रेस का सदस्य होते हुए भी कांग्रेस के ख़िलाफ़ कार्य करते थे। इस सम्बंध में पंडित नेहरू ने भी 1951-52 के चुनाव के दौरान इन रजवाड़ों द्वारा कांग्रेस विरोधी कार्यों का ज़िक्र किया और चुनाव के दौरान रजवाड़ों द्वारा धन-बल के साथ हिंसा के सहारे चुनाव प्रभावित किए जाने पर चिंता जताई थी।
गुजरात के अलग राज्य बनने से सौराष्ट्र की राजनीतिक ताक़त बढ़ी और इसी के साथ उनका कांग्रेस विरोध के साथ साथ अलगाववादी प्रवृति भी बढ़ी। लेकिन 1956 से ही कांग्रेस इस क्षेत्र के प्रति विकास की सकारात्मक नीति अपनाकर क्षेत्र में अलगाववाद और कांग्रेस विरोध को कम करने में सफल रही। इस दौरान सौराष्ट्र के कई राजनेता को न सिर्फ़ राज्य सरकार में मंत्री बनाया गया बल्कि केंद्र सरकार में भी मंत्री बनाया गया। इस दौरान कांग्रेस ने इसी क्षेत्र के पहले मुख्यमंत्री यू॰ एन॰ धेबर को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बनाया।
1950 के दशक के अंतिम और 1960 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों के दौरान गुजरात की कांग्रेस सरकार ने कई सौराष्ट्र विरोधी नीतियाँ लागू की, पुराने विशेषाधिकार ख़त्म किए, और क्षेत्र के ज़िलों को नया नाम दिया जिससे आम जनता तो रुष्ट थी लेकिन क्षेत्र के राजनेताओं को ख़ुश कर दिया गया था। इस क्षेत्र में में कांग्रेस विरोध को कम करने के लिए कांग्रेस ने एक अन्य नीति (फुट डालो शासन करो) भी अपनाई जिसमें क्षेत्र के भावनगर और नवानगर में विशेष विकास व राजनीतिक प्रतिनिधित्व देकर सौराष्ट्र की एकता को तोड़ने का सफल प्रयास किया।
इसी क्रम में वर्ष 1962 के चुनाव के बाद 1963 में भावनगर क्षेत्र से आने वाले बलवंत राय मेहता को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया गया। आज़ादी के प्रारम्भिक दो दशकों तक भावनगर और नवानगर क्षेत्र भी कांग्रेस विरोध और अलगाववाद गतिविधियों का हिस्सा था लेकिन वर्ष 1970 आते-आते कांग्रेस ने भावनगर में बंदरगाह के विकास और इसी क्षेत्र में विश्वविद्यालय की घोषणा कर सौराष्ट्र क्षेत्र की एकता को तोड़ने का सफल प्रयास किया। भावनगर को किए गए ये सभी वादे कभी पूरे नहीं हुए लेकिन 1971 के बाद सौराष्ट्र में दुबारा कभी अलगाववादी ताक़तें कभी मज़बूत नहीं हो पायी।
अलगाववादी आंदोलन:
1960 के दशक के अंतिम वर्षों से इस क्षेत्र में कांग्रेस विरोधी और अलगाववादी राजनीतिक ताकते ‘रतिलाल तन्ना’ के नेतृत्व में फिर से मज़बूत होने लगी। यह दौर पूरे हिंदुस्तान में कांग्रेस-विरोध का दौर था जब कांग्रेस का विभाजन (कांग्रेस-O और कांग्रेस-R) भी हुआ और कांग्रेस के ख़िलाफ़ जेपी आंदोलन भी पूरे देश में आग की तरह फैला। इसके अलावा यह दौर मज़बूत होते नक्सल आंदोलन और हिंदी-विरोधी आंदोलन का भी दौर था।
वर्ष 1971 के चुनाव में सौराष्ट्र के 6 लोकसभा क्षेत्रों में से पाँच और कच्छ के दोनो सीट पर कांग्रेस की हार हुई। पूरे गुजरात के 24 लोकसभा सीट में से कांग्रेस को मात्र 11 सीट पर सफलता मिली। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जे॰पी॰ आंदोलन सर्वाधिक मज़बूत इसी क्षेत्र में था। यह सिर्फ़ संयोग नहीं है कि गुजरात में अब तक पाँच बार राष्ट्रपति शासन लगा है और उसमें से चार बार अकेले 1970 के दशक के दौरान लगा।
जब जब इस क्षेत्र में अलगाववाद और कांग्रेस विरोध मज़बूत हुआ तब तब सौराष्ट्र के विशेषाधिकारों को सुरक्षा मिली लेकिन जैसे ही इस क्षेत्र का राजनीतिक वर्चस्व कम हुआ और कांग्रेस का इस क्षेत्र की राजनीति पर पकड़ बढ़ी भारत सरकार ने इस क्षेत्र को मिलने वाले विशेषाधिकारों को कम करने का हर सम्भव प्रयास किया। वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा रजवाड़ों को मिलने वाली प्रीवी पर्स को ख़त्म करना भी इस क्षेत्र के स्थानीय कांग्रेस विरोधी राजनीतिक-आर्थिक ताक़तों को कुचलने के प्रयास का हिस्सा था।
विशेष राज्य का दर्जा:
पिछले पच्छतर वर्षों के इतिहास के दौरान कैसे ऐसे मौक़े मिले जब भारतीय संविधान और क़ानून के कुछ पक्ष गुजरात पर लागू नहीं किया गया क्यूँकि गुजरात के सौराष्ट्र और कच्छ क्षेत्र को विशेष अधिकार प्राप्त था। उदाहरण के लिए जब Two Member कन्स्टिचूयन्सी अधिनियम लाया गया तो गुजरात को इस नयी व्यवस्था से बाहर रखा गाय। संविधान में इस क्षेत्र को कई अन्य विशेषाधिकार दिए गए हैं और संविधान का कई हिस्सा इस क्षेत्र पर लागू नहीं होता है।
यह सिर्फ़ संयोग नहीं है कि 1960 के दशक के बाद से गुजरात अपने पेट्रोलियम और भारी उध्योग के लिए प्रसिद्ध हुआ और उसी दौरान रिलायंस ने आसमान छुआ। दूसरी तरफ़ वर्ष 2000 के बाद फिर से जब सौराष्ट्र क्षेत्र का गुजरात की राजनीति पर प्रभाव बढ़ा तो गुजरात अपने नहर योजना और बंदरगाह के लिए हमेशा अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बटोरता रहा और उसी दौरान खध्य तेल और बंदरगाह में व्यापार करने वाले अड़ानी समूह का जन्म और अप्रत्याशित विकास हुआ। नहर और बंदरगाह सौराष्ट्र की पहचान है और उसके साथ साथ पटेल आंदोलन से लेकर मोदी समाज का भी गढ़ है।
अर्थात् किसी राज्य को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने अथवा नहीं दिए जाने कि नीति के पीछे सिर्फ़ संवैधानिक प्रक्रिया और उक्त क्षेत्र में पिछड़ापन मात्र आधार नहीं होता है बल्कि उक्त क्षेत्र में सत्ता के साथ राजनीति और अर्थव्यवस्था का गठजोड़ अहम भूमिका निभाती है। सम्भवतः यही कारण है कि बिहार जैसे राज्य के कई क्षेत्र पिछड़ेपन के पैमाने पर सौराष्ट्र और कच्छ जैसे क्षेत्रों कि तुलना में विशेष सहायता के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होते हुए भी उसे कभी कोई विशेष सहायता नहीं दी गई।

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