HomeHimalayasपहाड़ी पटवारी की पलटती परम्परा

पहाड़ी पटवारी की पलटती परम्परा

पटवारी का महत्व सिर्फ़ उत्तराखंड नहीं बल्कि पूरे उत्तर भारत के के इतिहास में महत्वपूर्ण है। लेकिन इतिहास से लेकर आज तक पटवारियों का पद, अधिकर और सम्मान देश के अन्य भाग से अलग रहा है।

कालांतर से लेकर आज तक पहाड़ को अलग-अलग क्षेत्रों में बाटने की प्राकृतिक परम्परा पट्टियाँ रही है। अक्सर दो समानांतर पहाड़ों के बिच के क्षेत्र को एक पट्टी कहते हैं। अंग्रेज़ी दौर में एक पट्टी से कर वसुलने का कार्यभार एक व्यक्ति को दिया जाता था जिसे पटवारी के नाम से लोग पुकारते हैं। गढ़वाल जिला 11 परगना में विभाजित था और प्रत्येक परगना 5-10 पट्टियों में। उदाहरण के तौर पर गढ़वाल के चाँदपुर परगना में आठ पट्टी हुआ करता था और प्रत्येक पट्टी में एक एक पटवारी। 

पटवारी भूमि कर किसानो से नहीं बल्कि गाँव के पधान (प्रधान) से वसूलते थे। कर वसुलने के अतिरिक्त उन्हें अपनी कार्यक्षेत्र पट्टी में पुलिस से सम्बंधित ज़िम्मेदारी के साथ सरकारी कार्यों और ब्रिटिश पर्वतारोहियों/यंत्रियों के लिए कुली-बेगार मज़दूर की व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी भी दी जाती थी। येलोग प्रत्येक पट्टी में पुलिस चौकी का भी संचालन करते थे। आम जनता के बिच झगड़ों के अतिरिक्त पटवारी अपने पट्टी के सभी पधानो और मलगुज़ारों के बिच झगड़े का निपटारा भी करता था। 

अपनी सेवा के बदले ये लोग गाँव वालों से एक तय धन अपने व्यक्तिगत आय के लिए वसूलते थे। कुछ क्षेत्रों में सरकार की तरफ़ से चुनिंदा पटवारियों को कुछ वेतन भी दिया जता था। इसके अलवा इन्हें कर-मुक्त भूमि भी दी जाती थी और इन्हें स्थानिय लोगों से अपने व्यक्तिगत कार्य के लिए बेगारी करवाने का भी अधिकार होता था।

पटवारियों के गिरते दिन

पहाड़ों में पटवारी व्यवस्था वर्ष 1819 में शुरू किया गया। फ़ौजदारी अधिकर जो पहले मुग़लकालीन कानूनगो को होता था अब इनको स्थानांतरित कर दिया गया। अंग्रेजों के दौर में किसी शिक्षित, मध्यवर्ग पहाड़ी का पटवारी बनना सर्वाधिक सम्मान का विषय होता था। पहाड़ का शिक्षक भी हमेशा इस पद को पाने की लालसा में प्रयासरत रहता था। लेकिन ऐसा नहीं कि पटवारी का पद हमेशा आकर्षक ही था। मुग़ल काल में निम्नलिखित कहावत पहाड़ों में प्रचलित थी जिसका अर्थ पटवारी को निम्न श्रेणी से देखता है:

‘नाजर बाबा पटवारी है जाव’

(Applied by one who is ill-rewarded for his good services by an officer)

अंग्रेजों ने भोटिया समाज के लोगों को पटवारी पद के लिए सर्वाधिक उपयुक्त माना था क्यूँकि भोटिया सर्वाधिक गतिमान समाज था और अंग्रेजों के प्रति वफ़ादार भी थे। इन पटवारियों से अंग्रेज़ी सरकार कई तरह के सर्वे और जानवरों-जंगलो का भी लेखा-जोखा भी करवाती थी। सामान्यतः इनका का पद वांशिक होता था लेकिन ब्रिटिश सरकार किसी भी पटवारी को कभी भी पद से हटा सकती थी। 

फोरेस्ट एक्ट (जंगल क़ानून) के आने और उसमें लगातार सुधार में पटवारी के कार्यक्षेत्र, अधिकार और आमदनी तीनो में कमी आइ है। वन विभाग के क्षेत्र में इनके लगभग सारे अधिकार और जिम्मेदारियाँ धीरे धीरे वन विभाग को स्थानांतरित कर दिए गए। सफल कुली-बेगार आंदोलन (1921) के बाद कुली-बेगारों पर भी इनके अधिकर ख़त्म हो गए। इसके अलवा जैसे-जैसे कृषि का पतन हुआ वैसे वैसे कृषि कर से होने वाली आय भी कम हुई। उत्तराखंड में आज पटवारियों का कार्यक्षेत्र और अधिकर काग़ज़ी देखरेख व स्थानिय झगड़ों के निपटारे तक सीमित रह गया है।

पहाड़ से परे पटवारी  

पटवारी पद कभी भी पहाड़ों या उत्तराखंड तक सीमित नहीं था। बंगाल, बिहार, उड़ीसा से लेकर पंजाब तक सभी क्षेत्रों में ये लोग ब्रिटिश ग्रामीण अर्थव्यवस्था, ख़ासकर कृषि क्षेत्र के संचालन में लगभग समान रूप से महत्वपूर्ण थे। आज़ादी के बाद देश के ज़्यादातर हिस्सों में इनका कार्यभार काग़ज़ात/रेकोर्ड रख-रखाव तक सीमित हो गया था। लेकिन उत्तराखंड में आज भी पटवारी ही पहला व्यक्ति होता है जिसतक उक्त पट्टी के आम लोग दिवानी और फ़ौजदारी दोनो विवादों में सम्पर्क करते हैं। 

वर्ष 1986 से ही नवीनतम पंचायती राज व्यवस्था में लगातार न्याय पंचायत की स्थापना के प्रयास पूरे देश में जारी हैं। पर आज भी उत्तराखंड जैसे कुछ चुनिंदा राज्य ही हैं जहाँ न्याय पंचायत और ग्राम न्यायालय की व्यवस्था को क़ानूनी मान्यता दी जा सकी है। सम्भवतः यह मान्यता उसी परम्परा का धोतक है जिसे पटवारियों के इतिहास से बहुत हद तक समझा जा सकता है।

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Sweety Tindde
Sweety Tinddehttp://huntthehaunted.com
Sweety Tindde works with Azim Premji Foundation as a 'Resource Person' in Srinagar Garhwal.
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