ग्वाल्दम, एक समय था जब आप तीर्थयात्री यो या खोजी-यात्री या फिर तिब्बत को जाने या आने वाले व्यापारी, हिमालय के मुख्य तीर्थ-स्थलों से पुण्य पाने की लालसा हो या हिमालय के मुख्य चोटियों को छूने की इच्छा या फिर पश्चमी तिब्बत के साथ व्यापार करने की ललक, आप इस क़स्बे को नज़रअन्दाज़ नहीं कर सकते थे। अंग्रेजों के दौर से पहले तक तो फिर भी पश्चिम में गर्तांग गली (उत्तरकाशी ज़िला) और पूर्व में (पिथोरगढ़ जिला) नैन सिंह रावत के गाँव मीलम से भी तिब्बत और हिमालय की चोटियों की यात्रा कर सकते थे पर अंग्रेजों के दौर में ग्वाल्दम के बिना नहीं।
ग्वाल्दम का आरोप:
माणा गाँव की तरह ग्वाल्दम के लोग भी इस क़स्बे को पर्यटन धरोहर केंद्र का दर्जा पाने के लिए संघर्षरत व आशावान हैं। उनका आरोप है कि उत्तराखंड सरकार में मंत्री रह चुके केदार सिंह फोनियाँ के प्रभाव के कारण माणा तो पर्यटन धरोहर केंद्र के रूप में स्थापित हो गया लेकिन ग्वाल्दम नहीं। दरअसल, फोनियाँ जी मंत्री बनने से पूर्व केंद्र सरकार के पर्यटन विभाग में सचिव रह चुके थे और चमोली जिले के जोशिमठ तहसील के स्थानिये निवासी थे। उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षाएँ को सम्भावना भी जोशिमठ के आस-पास के क्षेत्र (बद्रीनाथ विधानसभा) से ही पुरी होनी थी इसलिय उन्होंने माणा गाँव को अधिक तरजीह दी और इस क़स्बे को नहीं।
दावे ऐसे भी किए जाते हैं कि पर्यटन के लिए प्रसिद्ध औली क्षेत्र (औली) से कहीं अधिक खूबसूरत आली बुग्याल था, जहाँ स्किंग के लिए भी औली से बेहतर बर्फ़बारी और ढलान मौजूद थे। इन दावों में कितनी सच्चाई है ये पता करना तो मुश्किल है पर इतिहास के पन्नो और दस्तावेज़ों के आधार पर यह दावा ज़रूर किया जा सकता है कि कम से कम पर्यटन और सुंदरता के नज़रिए से ग्वाल्दम अंग्रेजों के लिए माणा और औली से मिलों आगे था। औली का तो अंग्रेजों या यूरोपीय यात्रीयों ने कभी वर्णन भी नहीं किया जबकि माणा भारत-तिब्बत व्यापारिक सम्भावना और ब्रिटिश उपनिवेशी आशाओं के कारण अंग्रेजों के लिय रुचि का विषय रहा।
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इतिहास के पन्ने:
जब से उत्तराखंड पर अंग्रेज़ी शासन प्रारम्भ हुआ तब से कुमाऊँ का हल्द्वानी से लालकुआँ, नैनीताल, अल्मोडा, रानीखेत होते हुए ग्वाल्दम तक के सफ़र में ग्वाल्दम आख़री पड़ाव हुआ करता था। हल्द्वानी से रानीखेत के रास्ते ग्वाल्दम पहुँचने वाली सड़क बैलगाड़ी चलती थी जबकि अल्मोडा और रानीबाग होते हुए यहाँ पहुँचने वाली सड़क पर सिर्फ़ घोड़े-खच्चर चलते थे।
नंदा देवी पर पर्वतारोहण टिल्मन और फ़्रेंक स्माईथ दोनो के अनुसार उनके दौर में (1930 का दशक) ग्वाल्दम पश्चमी सभ्यता का हिमालय में आख़री पड़ाव हुआ करता था। 1907-8 के दौरन हिमालय की यात्रा करने वाले A L Mumm का भी यही मानना था।
पश्चमी सभ्यता का हिमालय में आख़री पड़ाव, और हेनरी रेम्जे के दौर का रमणी गाँव, वर्ष 1893 में रेम्जे की मृत्यु के बाद बीसवीं सदी के प्रारम्भ होने से पहले ही अपने पतन की ओर अग्रसर हो चुका था। ग्वाल्दम से शुरू होने वाली लोर्ड कर्ज़न ट्रेक हो या कुआरी पास ट्रेक या फिर माँ नंदा देवी यात्रा हो, ग्वाल्दम से रमणी जाने वाली सड़क सभी के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। ग्वाल्दम-रमणी मार्ग हिमालय के नंदा देवी, कामेट, त्रिशूल जैसे सर्वोच्च शिखरों की खोज में निकले उन पर्वतीय खोजी यात्राओं के लिए भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण था जिसकी शुरुआत तपोवन से हुआ करती थी।
ग्वाल्दम से रमणी की दूरी 38 मील हुआ करती थी। यह दूरी ग्वाल्दम से देवाल गाँव (आज तहसील) होते हुए एक पक्की झुला पूल पार करते हुए रमणी की ओर जाती थी। ग्वाल्दम से एक सड़क पिंडर नदी को पार करने के बाद नंदाकनी नदी घाट होते हुए नंदप्रयाग तक जाया करती थी।

पतन:
ग्वाल्दम सिर्फ़ अपने पर्यटन के लिए नहीं बल्कि कुमाऊँ और गढ़वाल के सबसे बड़े चाय बगान के लिए भी जाना जाता था जिसके मलिक थे Mr. Nash. इनके बंगले में अक्सर यूरोप के खोजी यात्री रुका करते थे। बाद में 1930 के दशक तक चाय बाग़ान उजड़ गई और Nash ने अपने बंगले को सरकार के हाथों बेच दिया जिसे सरकार डाक बंगला बनाना चाहती थी। पर जिस दिन Public Works Department ने बंगला ख़रीदा उसी दिन उसमें आग लग गई।
Kamet Conqured पुस्तक में सरकारी डाक बंगले में सुविधा का अभाव और चाय बगान मालिक Mr. Nash के बंगले में सुविधा होने की बात की गई है। बंगला इतना ख़राब था कि लेखक बंगला में रहने के बजाय टेंट बंगला के बाहर लगाया। ग्वाल्दम में मक्खियों का उत्पात का ज़िक्र बार बार होता था। यहाँ कोई स्वस्थ्य केंद्र भी नहीं था। अर्थात्, 19वीं सदी के अंत तक रमणी का पश्चमी सभ्यता का पहाड़ों में आख़री पड़ाव के रूप में पतन होने के बाद 1930 का दशक आते आते ग्वाल्दम का भी पश्चमी सभ्यता का आख़री पड़ाव के रूप में पतन होना शुरू हो चुका था। इसके बाद यह क़स्बा दुबारा पर्यटन क्षेत्र के रूप में कभी नहीं उभर पाया।
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ग्वाल्दम उन कुछ शहरों में से एक हैं जो कुमाऊँ और गढ़वाल को जोड़ता है। यहाँ पहुँचने के मुख्यतः दो रास्ते हैं जिनमे से एक रास्ता कुमाऊँ से शुरू होता है और दूसरा गढ़वाल से। दोनो रास्तों का विस्तृत विवरण निम्न है:
Routes 1: Delhi/Pantnagar (Air)—Haldwani/Rudrapur/Lalkuan/Kothgodam (train)—Bhowali—Nainital—Ranikhet/Almora—Someshwar—Kausani—Baijnath—Gurur—Gwaldam (Bus/Taxi)
Routes 2: Delhi—Kashipur/Ramnagar (Train)—Garjiya Temple—Ranikhet—Someshwar—Kausani—Baijnath—Gurur—Gwaldam (Bus/Taxi)
Routes 3: Delhi/Dehradun (Air/Train)—Haridwar/Rishikesh—Devprayag—Srinagar—Rudraprayag—Karnprayag—Narayanbagar—Tharali—Gwaldam (Bus/Taxi)
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Thanks Kamlesh Ji for appreciating us.