उत्तराखंड के इतिहास में वर्ष 1921 में कूली बेगार प्रथा के ख़िलाफ़ सत्याग्रह का आग़ाज़ हुआ। वर्ष 2021 कूली बेगार आंदोलन की 100वीं वर्षगाँठ है। वर्ष 1871 में देहरादून ज़िले की स्थापना हुई। इस हिसाब से वर्ष 2021 में देहरादून को अपनी 150वीं वर्षगाँठ मनानी चाहिए। कुछ ही वर्षों में मसूरी अपनी 200 वीं वर्षगाँठ मनाएगा। पहाड़ों में कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है और न ही देहरादून में। लेखकों की नगरी मसूरी भी हसीन वादियों में उलझी साहित्य के सुलझने का इंतज़ार कर रहा है शायद।
मैं पिछले एक वर्षों से उत्तराखंड के आठ ज़िलों में गाँव से लेकर शहर तक का सफ़र किया, महिला, युवा, आंदोलनकारी, समाजसेवी, पत्रकार, लेखक, अधिकारी, किताब दुकानदार, समेत लगभग सभी राजनीतिक पृष्ठभूमि से सम्बंध रखने वाले लोगों से मिला। एक बात जो मुझे सभी वर्ग के लोगों में सतही समानता दिखी वो थी ये कि सभी पहाड़ी संस्कृति के प्रति सजग है। सभी भट्ट, झाँगोरा, पहाड़ी पहनावा, पहाड़ी वेश-भूषा और भाषा को अपने जीवन के छोटे से ही सही पर किसी ना किसी कोने में ज़िंदा रखना चाहते हैं।
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दस्तावेज
यक़ीन मानिए पहाड़ में लोग अपने ही एतिहासिक दस्तावेज़ों को संजोकर रखने के प्रति उदासीन दिखी। अपने पिछले एक वर्ष की यात्रा के दौरान मैंने उत्तराखंड राज्य आंदोलन से सम्बंधित अधिक से अधिक दस्तावेज इकट्ठा करने का प्रयास किया। पर मुश्किल से कुछ पुराने अख़बार की कतरन, चित्र और कुछ पर्चे मिल पाएँ जो पृथक उत्तराखंड राज्य आंदोलन से सम्बंधित थे।
- दस्तावेज संजोकर नहीं रख पाने के अलग अलग कारण दिए गए जिनमे से कुछ निम्न है:
- आपदा क्षेत्र होने से दस्तावेज़ों को बचकर रख पाना लगभग असम्भव है।
- परिवार के लोगों ने फेंक दिया।
- शोधार्थी, पत्रकार, लेखक दस्तावेज ले जाते हैं और कभी वापस नहीं करते हैं।
- दस्तावेज रखने का कोई फ़ायदा नहीं।
- सरकार को पहल करनी चाहिए।
पहले कारण को छोड़ दे तो उपरोक्त अन्य सभी चार कारण कहीं न कहीं हमारी इतिहास के प्रति उदासीनता ही दर्शाती है। प्रोफ़सर शेखर पाठक और उनके pahar.in को छोड़ दे तो उत्तरखंड का शायद ही कोई इतिहासकार हुआ जिसने पहाड़ों में रहकर पहाड़ों के अतीत को संरक्षित रखने का प्रयास किया हो। पर अफ़सोस की pahar.in पर भी पृथक उत्तराखंड राज्य से सम्बंधित कोई दस्तावेज नहीं है। pahar.in उत्तराखंडी नहीं हिमालयी पहचान के प्रति सजग दिखती है।
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कुछ नाम
यात्रा के दौरान जो कुछ दस्तावेज मिल पाए वो या तो चंद्रशेखर कापड़ि (पिथोरगढ़) और उमा भट्ट (नैनीताल) जैसे इतिहास के शिक्षक व प्रोफ़ेसर के पास ही मिले या फिर जंगी जी (हल्द्वानी) जैसे ग़ैर-पहाड़ी के पास से मिली। इनकी भी शिकायत रही कि काग़ज़ात ले जाते हैं पर कभी वापस नहीं करते। दो मात्र स्थान जहाँ मुझे दस्तावेज सर्वाधिक संरक्षित और व्यवस्थित रूप में मिलें वो था नैनीताल में नैनीताल समाचार के संस्थापक राजीव लोचन शाह और उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के संस्थापक P C तिवारी। नैनीताल में ही पिछले वर्ष 9 नवम्बर को उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर पृथक उत्तराखंड राज्य आंदोलन से सम्बंधित पुराने फ़ोटो और अख़बार के कतरन की प्रदर्शनी दिखी।
अपनी यात्रा के दौरान मुझे ये एहसास हुआ कि पहाड़ के लोगों के भीतर इतिहास का एहसास इतिहास की समसामयिक महत्व तक सीमित रखते हैं। महत्व खतम, इतिहास खतम। पृथक उत्तराखंड राज्य आंदोलन से सम्बंधित काशी सिंह ऐरी, कमला पंत, राजीव लोचन शाह, शेखर पाठक जैसे लोग इस चलता फिरता इतिहास हैं। पहाड़ के कुछ तथाकथित चलते-फिरते इतिहास और विकिपीडिया ऐसे भी मिले जिन्हें लगा कि मैं उनके दस्तावेज के आधार पर कुछ ऐसा ना लिख दूँ जो वो भी नहीं लिख पाए।

आश्चर्य होता है कि पृथक उत्तराखंड राज्य आंदोलन का नेतृत्व करने वली उत्तराखंड क्रांति दल का मुख्य चेहरा काशी सिंह ऐरी, दिवाकर भट्ट या पुष्पेश त्रिपाठी (विपिन त्रिपाठी के पुत्र) या महिला मंच की कमला पंत के पास आंदोलन से सम्बंधित कोई दस्तावेज सुरक्षित नहीं है। आप ऐरी जी या दिवाकर भट्ट जी के पास जाएँगे तो वो आपको पुष्पेश त्रिपाठी के पास भेजेंगे, पुष्पेश जी चारु तिवारी जी के पास भेजेंगे और चारु तिवारी जी दिल्ली में बैठकर आपको पहाड़ भेज देंगे।
पद्मश्री शेखर पाठक जैसे इतिहासकार भी जैसे ही 1980 के दशक के पहाड़ी इतिहास लेखन में प्रवेश करते हैं वो इतिहासकार कम और आंदोलनकारी/पर्यावरणविद अधिक हो जाते हैं। वे राज्य के भावुक और उदासीन दोनो हो जाते हैं जिसकी इतिहास लेखन में कोई जगह नहीं है। शायद यही कारण है कि कुछ दिनो की मेहनत में शेखर पाठक की वर्षों की मेहनत से लिखे इतिहास से बेहतर इतिहास लिख जाते हैं।
कितनी उम्मीद
कम से कम पिछले एक दशक से उत्तराखंड के नए युवा वर्ग के बिच अपने संस्कृति, धरोहर और इतिहास के प्रति बढ़ती रुचि अच्छा संकेत दे रही है। पर लगातार बेलगाम होती बाज़ार और उनके इशारे पर नाचती राज्य व्यवस्था के दौर के बिच बाज़ार, पर्यटन और रोज़गार के हाथों संचालित यह पहाड़ी इतिहास-संस्कृति का प्रादुर्भाव कहाँ तक इतिहास और कहाँ तक पर्यटन बाज़ार को संजो पाएगी यह आगे आने वाला समय ही बताएगा।
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