HomeTravellersTrekking1921 के कुली-बेगार आंदोलन का क्या असर पड़ा पहाड़ में पर्वतारोहण पर?

1921 के कुली-बेगार आंदोलन का क्या असर पड़ा पहाड़ में पर्वतारोहण पर?

वर्ष 1921 में हुआ कूली-बेगार आंदोलन पहाड़ों में होने वाला वो आंदोलन था जिसने पहाड़ को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ने का काम किया। इस आंदोलन को पर्वतारोहण के साथ जोड़कर देखना दिलचस्प होगा।

वर्ष 1921 से पहले अंग्रेज़ी शासन के दौरान पहाड़ों में पर्वतारोहण करने आने वाले विदेशियों को सरकारी सुविधाओं के अलावा मुफ़्त में अनगिनत कूली दिए जाते थे। विदेशी पर्वतारोहीयों को मुफ़्त बेगार मिलने से पर्वतारोहण में बहुत सुविधा मिलती थी। लेकिन वर्ष 1921 में कुमाऊँ केसरी बद्री दत्त पांडे, गढ़ (गढ़वाल) केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा और गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व में पूरे पहाड़ में कूली-बेगार प्रथा के ख़िलाफ़ आंदोलन हुआ और कूली बेगार प्रथा को ख़त्म किया गया। इस लेख में दो पर्वतारोहण अभियान के दौरान चित्रों के माध्यम से कूली-बेगारी प्रथा पर पाबंदी का पर्वतारोहण पर प्रभाव को समझा जाएगा।

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इनमे से पहला पर्वतारोहण वर्ष 1906 में Henery Brocherel, Alexis Brocherel, Dr. Tom Longstaff, Major Bruce और A L Mumm के नेतृत्व में कठगोदाम से नैनीताल, अलमोडा, ग्वाल्दम, वाण, रमनी, कुआरी पास, भयुंदर घाटी होते हुए नीती-माणा के आगे तक गई और दूसरी 1931 में Frank S. Smythe के नेतृत्व में रानीखेत से वाण, रमनी कुआरी पास आदि होते हुए कामेट पर्वत शिखर तक गई। दोनो दल का रास्ता ग्वाल्दम के बाद एक ही था जबकि दूसरा दल नीती-माणा से कहीं आगे तक जाते हैं। पहला पर्वतारोहण कूली बेगार प्रथा ख़त्म होने से पहले का है और दूसरा कूली बेगार प्रथा प्रतिबंधित होने के बाद का है।

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चित्र 1: 5 मई 1906 को क्यारी पास पर आगे बढ़ते कुली और पर्वतारोहण पर निकले दिखाई दे रहे हैं। कूलियों की संख्या का अनुमान लगाइए।

चित्र 1 और चित्र 2 में विदेशी पर्वतारोही के साथ भारतीय मूल के लोगों की संख्या पर गौर करे। चित्र 1 की तुलना में चित्र 2 में भारतीय मूल के लोगों की संख्या आधे से भी कम है। दूसरा चित्र जिस स्थान पर लिया गया है वो एक रिहायसी इलाक़ा है आसानी से कुली मिल ज़ाया करते थे जबकि पहला चित्र बर्फ़ के बीच ग़ैर-रिहायसी इलाक़े का है जहां कूली पैसा खर्च करने के बावजूद मुश्किल से मिलता था। ग़ैर-रिहायसी इलाक़ा होने के बावजूद पहले चित्र में कूलियों की संख्या दूसरे चित्र से दुगने से अधिक है।

“वर्ष 1921 में हुआ कूली-बेगार आंदोलन पहाड़ों में होने वाला वो आंदोलन था जिसने पहाड़ को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ने का काम किया”

ऐसा इसलिए है क्यूँकि वर्ष 1921 के बाद पहाड़ों में कूली-बेगार प्रथा समाप्त हो चुकी थी। वर्ष 1921 के बाद अगर किसी विदेशी को अपने पर्वतारोहण अभियान के दौरान स्थानीय पहाड़ी लोगों की मदद की ज़रूरत पड़ती थी तो उन्हें पहाड़ियों की सेवा के बदले भुगतान करना पड़ता था। लेकिन 1906 में स्थानीय पहाड़ियों (कूली) की सेवा के बदले कोई भुगतान नहीं करना पड़ता था। अतः पर्वतारोही बिना पैसों की चिंता किए अधिक से अधिक स्थानीय कुलियों को अपने साथ बेगारी के लिए रख लेते थे।

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चित्र 2: वाण और कनौल गाँव के बीच पर्वतारोहियों का क़ाफ़िला। वर्ष 1931,

प्रत्येक गाँव के पधान (प्रधान) की ये ज़िम्मेदारी होती थी कि विदेशी पर्वतारोही जितने कूली की माँग करते थे उतना उन्हें उपलब्ध करवाना पड़ता था। चित्र 3 में पर्वतारोहियों के कैम्प के पास बैठे कुछ लोगों को देख सकते हैं जिन्हें प्रधान ने पर्वतारोहीयों के लिए बेगार सेवा के उद्देश्य से बुलाया था। एक गाँव का कूली पर्वतारोहियों के अगले पड़ाव तक उनके साथ चलता था, उनका सामान ढोता था, उनकी पालकी ढोता था, उनके लिए टेंट (तम्बू) लगाता, पानी, लकड़ी, आदि ज़रूरत की चीजों का इंतज़ाम करता था। अगर पर्वतारोहियों को कोई कूली और उसकी मेहनत व दक्षता पसंद आ जाती थी तो उक्त कूली को पर्वतारोही जितने दिनो के लिए चाहे अपने साथ रख लेता था।

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चित्र 3: 7 मई 1906, टोवा गाँव से अपना कैम्प (तंभु) हटाने की तैयारी करते पर्वतारोही की टीम। सामने कुछ कुली बैठे दिखाई दे रहे हैं।

इन विदेशी पर्वतारोहियों के साथ कुछ स्थाई स्थानीय पर्वतारोही भी हुआ करते थे जिन्हें ये मेहनताना दिया करते था। पहाड़ के प्रसिद्ध खोजकर्ता नैन सिंह रावत ऐसे ही एक सहयोगी पर्वतारोही थे। ऐसे प्रशिक्षित, कुशल, सक्षम, शिक्षित, अनुभवशाली, और ज़िम्मेदार स्थानीय पर्वतारोहीयों को विदेशी पर्वतारोही सम्मान भी देते थे और उन्हें अपने फ़ोटो में भी शामिल करते थे। लेकिन कूलियों को अलग और दूर बिठाया जाता था, उनके साथ भेदभाव किया जाता था जैसा कि आप चित्र संख्या 4 में देख सकते हैं। चित्र 3 में भी कूली को कैम्प से थोड़ा दूर हटकर बिठाया गया है।

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चित्र 4, जोशिमठ से आगे मलारी गाँव में 22 जून 1906 को पर्वतारोही कैम्प के पास बक्सिश का इंतज़ार करते ग्रामीण और कूली। कैम्प के सामने बैठे कूलियों के अलवा कैम्प के पीछे खड़े भिड़ के हुजूम को गौर कीजिए और उनकी संख्या का अनुमान लगाइए। यह भी समझने का प्रयास करें कि उन्हें कैम्प के पास आने की इजाज़त क्यूँ नहीं दी गई है।

वर्ष 1921 के कूली बेगार आंदोलन के बाद 1931 तक आते आते कूलियों (भुगतान पाने वाले) को भी चित्रों में शामिल किया जाने लगा जैसा कि 1931 के चित्र संख्या 5 में देख सकते हैं। यह वही दौर था जब राष्ट्रीय स्तर पर बी॰आर॰ अम्बेडकर जाति प्रथा के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू कर चुके थे और गांधीजी भी छुआछूत को हिंदू धर्म के लिए अभिशाप मान चुके थे। हालाँकि वर्ष 1921 में क़ानूनी तौर पर कूली-बेगार व्यवस्था सरकार के द्वारा ख़त्म किया जा चुका था लेकिन गाँव के पधान अभी भी गोरे साहबों के सामने अपनी निष्ठा दिखाने के लिए कुछ कूलियों का इंतज़ाम ग़ैर-अधिकारिक रूप से कर ही दिया करते थे।

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चित्र: 1931 की पर्वतारोही यात्रा के दौरान कूली, गोरखा सैनिक और स्थानीय पर्वतारोही। 1931 के इस दस्तावेज में कूली के लिए कूली नहीं बल्कि भरवाहक (Porter) शब्द का इस्तेमाल किया गया है। 1921 से पूर्व के दस्तावेज़ों के विपरीत 1931 के इस दस्तावेज में कूली और स्थानीय लोगों के अलग से चित्र संकलित किए गए हैं। इन भरवाहकों के लिए कूली शब्द का इस्तेमाल नहीं होना और इनके चित्रों को दस्तावेज में शामिल करना साफ़ साफ़ कूली-बेगार आंदोलन की सफलता से प्रभावित था।

विदेशी पर्वतारोहियों के साथ चलने वाले इन स्थानीय मज़दूर पर्वतारोहियों की ये ज़िम्मेदारी होती थी कि ये क़ाफ़िले के साथ चल रहे कुलियों पर नज़र रखे और उन्हें यात्रा के बीच में भागने से रोकें। बेगारी कर रहे कूली अक्सर बीच रास्ते में मौक़ा मिलते ही भाग ज़ाया करते थे। मज़दूरों, ग़ुलामों, बंधुआ मज़दूरों द्वारा काम छोड़कर भागने के इस प्रक्रिया को सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में Jemes C. Scott के शब्दों में ‘Weapons of the Weak‘ कहा जाता है।

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कुलीयों को बीच रास्ते में भागने से रोकने के लिए बल के अलावा लालच भी दिया जाता था। कभी कभी इन कुलियों को विदेशी पर्वतारोही अपनी इच्छा के अनुसार बक्सिश के रूप में कुछ दे दिया करते थे। अक्सर इन कुलियों को ख़ाली टिन के डब्बे और यात्रा में आगे चलने के लिए ग़ैर-ज़रूरी सामान दे दिया जाता था। ख़ाली टिन के डब्बों को पाने के लिए स्थानीय लोगों के बीच आपस में झगड़े हो जाते थे क्यूँकि स्थानीय लोगों की नज़र में ये टिन के ख़ाली डब्बे बहुत उपयोगी हुआ करते थे। ठंढे पहाड़ों में टिन के ख़ाली डब्बों बहुत क़ीमती समझा जाता था क्यूँकि लोग इसमें पानी जल्दी गर्म हो जाता है।

स्त्रोत: १) “Five Months in The Himalaya: A Record of Mountain Travel in Garhwal and Kashmir” by A. L. Mumm, published in 1909.

स्त्रोत: २) ‘Kamet Conquered’ by Frank S. Smythe, published in 1938.

Sweety Tindde
Sweety Tinddehttp://huntthehaunted.com
Sweety Tindde works with Azim Premji Foundation as a 'Resource Person' in Srinagar Garhwal.
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