गर्तांग गली पुल का इतिहास भारत-तिब्बत व्यापार के परे भी है। 1920 के दशक में जब टेहरी राजा और तिब्बत के लामा के बीच सीमा सम्बंधित विवाद ब्रिटिश सरकार की मध्यस्थ्यता में प्रखर हुआ तब विवाद का केंद्र निलंग घाटी थी जिसपर तिब्बत अपना हक़ जता रहा था। वर्ष 1926 में ब्रिटिश सरकार ने अपना फ़ैसला सुनाया जिसके तहत निलंग गाँव टेहरी और जढंग गाँव तिब्बत को दिया गया। 105 मीटर लम्बी गर्तांग गली नामक लकड़ी का यह पुल नेलोंग और जेडोंग गाँव के जद समुदाय के लोगों के लिए यातायात का मुख्य साधन था। टेहरी राजा और तिब्बत दोनो इस फ़ैसले से खुश नहीं थे।

राजा ज़िम्मेदार
वर्ष 1932 में फ़्रेड्रिक विल्यम्सॉन (1891–1935) के नेतृत्व में एक बार फिर से सर्वे किया गया। इस सर्वे में यह पाया गया कि गर्तांग गली पुल के उत्तर-पूर्व में टेहरी राजा ने किसी तरह का कोई सड़क बनाने या सुधार करने में कोई दिलचस्पी नहीं लिया था। टेहरी के राजा ने ब्रिटिश अधिकारियों को स्वयं बताया था कि वो नदी के ऊपर भैरोंघट्टी (Bhaironghatti) के पास एक लाख रुपए से अधिक खर्च करके एक नया गर्तांग गली पुल (Girder) बनाने कि योजना बना रहे हैं। अर्थात् टेहरी राजा पुराने गर्तांग गली पुल की मरम्मत/देखरेख में दिलचस्पी खो चुके थे।
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तिब्बत सरकार ने दो किताबें का हवाला दिया जिसमें तिब्बत सरकार द्वारा निलंग और जढंग गाँव से 74 रुपए वार्षिक कर वसूलने का ज़िक्र था। इन दो गाँव से 24 रुपए वार्षिक कर वसूलने का साक्ष्य टेहरी राज के पास भी था। टेहरी राज का ये भी दावा था कि तिब्बत के राजा कर वसूलने का जो दस्तावेज प्रस्तुत कर रहा था वो उक्त क्षेत्र से होकर गुजरने वाले व्यापार पर लगने वाला कर था। दूसरी तरफ़ तिब्बत दावा करता था कि टेहरी के अधिकारी निलंग और जढंग के स्थानीय लोगों को डराकर ये बोलने को बोल रहे थे कि ट्सांग चोक ला (जेलूखागा) पर राज हमेशा टेहरी का था।

गर्तांग गली का सफ़र
समुदरतल से 11 हज़ार फ़िट की ऊँचाई पर गर्तांग गली पुल का निर्माण 17वीं सदी में पेशावर (पाकिस्तान) के एक व्यापारी ने नेलँग घाटी में सुमला के रास्ते तिब्बत-भारत यात्रा को सुचारु रूप से सुविधाजनक बनाने के लिए सैकड़ों वर्ष पूर्व बनवाया था। गर्तांग गली पुल को भारत-चीन युद्ध (1962) के बाद लोगों के लिए बंद कर दिया गया था। वर्ष 1975 के बाद सेना भी इस रास्ते का इस्तेमाल करना बंद कर दी। वर्ष 2015 से गर्तांग गली पुल को दुबारा पर्यटन शुरू किया गया।
105 मीटर लम्बी यह लकड़ी का पुल नेलोंग और जेडोंग गाँव के जद समुदाय के लोगों के लिए यातायात का मुख्य साधन था जिसके टूटने के बाद उन्हें हर्षिल घाटी के बगोरि और दुंड़ा गाँव में विस्थापित कर दिया गया था। स्थानिये लोगों को वर्ष में एक बार इस क्षेत्र में जाने की अनुमति थी ताकि वो अपने इष्ट देवता की पूजा कर सकें। यह उत्तरकाशी शहर से 90 किमी की दूरी पर है जबकि जेडोंग गाँव इस पुल से 60 किमी की दूरी पर है।

व्यापार के परे
ऐसा नहीं है कि गर्तांग गली पुल ही एक मात्र रास्ता था लद्दाख़ के रास्ते तिब्बत से व्यापार करने का। वर्ष 1939 में इस क्षेत्र की तरफ़ यात्रा पर आए Robert Hamond ने अपने यात्रा वृतांत में लिखा है कि गर्तांग गली पुल के अलावा टोलिंग (Tholing/Toling) होते हुए एक अन्य व्यापार मार्ग था जो लद्धाख/गंगोत्री को तिब्बत से जोड़ता था। पर व्यापारी गर्तांग गली पुल को इसलिए प्राथमिकता देते थे क्यूँकि इस मार्ग में बरसात के मौसम को छोड़कर पूरे वर्ष कोई प्राकृतिक ख़तरा नहीं होता था। इस मार्ग में अन्य मार्गों की अपेक्षा बर्फ़ भी बहुत कम मिलती थी।

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कभी भारत तिब्बत व्यापार के लिए महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में जाना जाने वाला यह पुल इसी वर्ष गर्तांग गली पुल का पुनःउद्धार किए जाने के बाद से प्रमुख पर्यटन स्थल के रूप में उभर रहा है। फ़िलहाल कम से कम उत्तराखंड के लोगों के बीच इस स्थान पर जाना रोमांचक लग रहा है। इतिहास में यह पुल सिर्फ़ व्यापार के लिए नहीं बल्कि अन्य तथ्यों और महत्वों के लिए भी महत्वपूर्ण था।
उदाहरण के तौर पर नेलोंग घाटी के स्थानीय लोग शर्दियों में आठ महीने अपने भेड़-बकरी के साथ उत्तरकाशी के पास पलायन करके प्रवास करते थे जिसके लिए यह पुल एक मात्र ज़रिया था उनके लिए उत्तरकाशी पहुँचने का। स्थानिय लोग निलंग और जढंग में मात्र चार महीने रहते थे। यही कारण था कि उनका खान-पान बोल-चाल, और भेष-भूषा भी गढ़वाली संस्कृति से अधिक और तिब्बती संस्कृति से कम मिलती थी। यह सांस्कृतिक एकता ही हमें निलंग और जढंग गाँव के साथ-साथ गर्तांग गली पुल के साथ एकता बनाए रखने में मदद कि वरना टिहरी राजा तो इस पुल को जर्जर हालत में छोड़कर विकल्प के रूप में भैरोंघट्टी (भैरों घाटी) में एक नया पुल बनाने की योजना बना चुके थे।

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