हिंदुस्तान की आज़ादी का जश्न अभी थमा नहीं था और रेडियो पर्व प्रारम्भ हो चुका था। मुंबई के एक चौल के बाहर सैकड़ों की भिड़ इकट्ठा थी। पास ही खजूर के एक पेड़ में लाउडस्पीकर लगा था। नीचे साफ़ कपड़े से ढके एक टेबल पर कुछ फूल-माला रखा हुआ था। टेबल पर ही एक थाली रखी हुई थी जिसमें पीतल का एक घी का दीया, कपूर, चंदन, सिंदूर और अगरबत्ती रखा हुआ था। थोड़ी देर में वहाँ एक मोटरकार आकर रुकी। मोटरकार से कोट-पैंट पहने दो साहब उतरे जिसमें से एक ने मराठी टोपी भी पहन रखी थी। दोनो के हाथ में लगभग एक फुट लम्बा, आधा फुट चौड़ा और तक़रीबन आधा फुट ही ऊँचा एक बक्सा भी था।

टेबल के पास सफ़ेद मटमैले धोती के ऊपर नंगा बदन में खड़े स्थानीय दुग्ध समिति के अध्यक्ष ने दोनो साहबों का स्वागत किया। महाराष्ट्र में दुग्ध समिति के प्रतिनिधि को ‘बहया’ बोला जाता था। दोनो साहब ने अपने हाथ से वो डब्बा बहया को दिया। उन तीनों के लिए चारो तरफ़ से घेरी भिड़ ने तालियाँ बजाई। एक फुट लम्बा, आधा फुट चौड़ा और तक़रीबन आधा फुट ही ऊँचा वह बक्सा एक रेडियो था जो UNESCO के गिफ़्ट कूपन योजना के पैसे से मुंबई के चौल तक पहुँचाया गया था।
सिर्फ़ मुंबई के चौल तक ही नहीं बल्कि हिंदुस्तान के दूरस्त क्षेत्रों तक इस योजना के तहत रेडियो, फ़िल्म प्रजेक्टर आदि पहुँचाए जा रहे थे जिसके पैसे अमेरिका से लेकर यूरोप के आम नागरिक दे रहे थे। उनका मानना था कि रेडियो और फ़िल्म प्रजेक्टर के माध्यम से निरक्षर भारत में आधुनिकता का अध्याय फैलाने के लिए पत्र-पत्रिकाओं और किताबों की तुलना में अधिक तीव्र गति से पहुँचाया जा सकता था।

रेडियो और महिला साक्षरता:
उस दौर में मुंबई जैसे विकसित शहर में भी साक्षरता का दर 25 प्रतिशत पार नहीं कर पाया था और चौल की हालत तो और भी ख़राब थी। इन चौलों में रहने वाली महिलाएँ तो शिक्षा और साक्षरता का मतलब भी सम्भवतः नहीं समझती थी। लेकिन बॉम्बे सोशल एजुकेशन समिति जैसी संस्था और कुलसूम सयानी जैसी महिलाएँ मुंबई के चौल में रहने वाली महिलाओं के बीच घुम-घूमकर उनके बीच साक्षरता के प्रसार का प्रयास कर रही थी।
इस कार्य के लिए भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 1960 में पद्मश्री भी दिया। वर्ष 1939 में स्थापित बॉम्बे सोशल एजुकेशन समिति ने अगले 10-12 वर्षों के भीतर लगभग तीन लाख पुरुष-महिलाओं को चार-चार माह की प्रारंभिक शिक्षा का कोर्स करवाया और उनमें से दो तिहाई से अधिक लोग परीक्षा में उत्तीर्ण भी हुए।

इसे भी पढ़े: क्या था हल्द्वानी में यूनेस्को का ‘गिफ्ट कूपन योजना’ (1948)?
बहरहाल अमेरिका से आए उस रेडियो को सजे धजे टेबल पर रखा गया, उसे माला पहनाया गया, सिंदूर और चंदन का टिका लगाया गया, धूपबत्ति जलाई गई और फिर उसकी की आरती उतारी गई। रेडियो की आवाज़ दूर तक जाए उसके लिए खजूर के पेड़ पर बंधे लाउडस्पीकर के तार को रेडियो से जोड़ा गया और मोटरगाड़ी में रेडियो लेकर आए दोनो साहब की मदद से रेडियो चलाया गया।
रेडियो की आवाज़ सिर्फ़ चौल तक नहीं बल्कि कई किलोमीटर दूर तक जा रही थी लेकिन कुछ ही मीटर की दूरी से चौल की खिड़की और गलियारों से महिलाएँ उस बोलने वाली मशीन की तरफ़ झांक रही थी ताकि उन्हें भी रेडियो की एक झलक मिल जाए। पहली बार रेडियो या टीवी आने पर हिंदुस्तान के किसी भी दूरस्त और पिछड़े क्षेत्र में यही नज़ारा आगे आने वाले कई दशकों तक देखा गया।
Hunt The Haunted के WhatsApp Group से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें (लिंक)

Hunt The Haunted के Facebook पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें (लिंक)