आज से लगभग सौ वर्ष पहले पहाड़ों में रहने वाली हर नौवीं लड़की, महिला या औरत अपनी जवानी में ही विधवा हो जाती थी। इन विधवाओं की उम्र बीस से चालीस वर्ष के बीच हुआ करती थी। देश के अन्य क्षेत्रों में भरी जवानी में विधवा होने वाले महिला और पुरुष (विदुर) की संख्या में बहुत ज़्यादा अंतर नहीं होता था लेकिन यह अंतर पहाड़ में सर्वाधिक था। उत्तराखंड के ही देहरादून क्षेत्र में महिला विधवाओं से कहीं अधिक संख्या पुरुष विदुरों की होती थी। इस विषमता पूर्वक आँकड़ों के कुछ कारणों में से एक महत्वपूर्ण कारण यह भी था कि पहाड़ में महिला बाल विवाह पुरुष बाल विवाह से कहीं अधिक था।
विधवा बनाम विदुर:
उदाहरण के तौर पर वर्ष 1931 की भारतीय जनगणना के आँकड़ों से यह बात स्पष्ट होती है कि देहरादून ज़िले में पुरुष विदुरों की कुल संख्या 9554 थी जबकि महिला विधवाओं की कुल संख्या मात्र 10,577 थी। अर्थात् महिला विधवाओं की संख्या पुरुष विदुरों की संख्या से मात्र 1023 अधिक थी। वहीं दूसरी तरफ़ गढ़वाल ज़िले (वर्तमान पौरी, चमोली, और रुद्रप्रयाग ज़िला) में कुल पुरुष विदुरों की संख्या 10,110 थी जबकि महिला विधवाओं की संख्या 41,210 थी। अर्थात् महिला विधवाओं की संख्या पुरुष विदुरों की संख्या से चार गुना (31,100) से भी अधिक थी। इसी यही हाल लगभग अलमोडा ज़िला और टेहरी गढ़वाल रियासत का भी था।
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चुकी नैनीताल ज़िले में पहाड़ और भाबर दोनो क्षेत्र थे इसलिए वहाँ पुरुष विदुर और महिला विधवा का यह अंतर मात्र डेढ़ गुना था। दूसरी तरफ़ देहरादून लगभग पूर्णतः मैदान था या जौनसार भाबर के क्षेत्र में महिलाओं को लेकर सामाजिक कुरीति लगभग नगण्य थी इसलिए महिला से सम्बंधित सामाजिक कुरीति इस ज़िले में सर्वाधिक कम दिखती है। अगर हम उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले का भी उदाहरण ले जिसका हरिद्वार ज़िला हिस्सा हुआ करता था, वहाँ भी महिला, विधवा और बाल विवाह से सम्बंधित आँकड़े पहाड़ों के आँकड़ों से कहीं अधिक बेहतर थे।
जवानी में विधवा:
महिला विधवा और पुरुष विदुर के बीच असमान ज़मीन का यह अंतर पहाड़ में हर उम्र वर्ग की जनसंख्या में देखने को मिलता था। उदाहरण के लिए गढ़वाल और अलमोडा दोनो ज़िले में जवानी से पहले ही अर्थात् पाँच वर्ष या पंद्रह वर्ष की उम्र का पड़ाव पूरा करने से पहले ही विधवा बन चुकी बच्चियों की संख्या इसी उम्र के पुरुषों की संख्या से पाँच गुना से भी अधिक थी। दूसरी तरफ़ देहरादून और नैनीताल में यह अंतर दुगुना से भी कम था और सहारनपुर में तो जवानी से पहले ही विदुर हो चुके पुरुषों की संख्या महिला विधवाओं की संख्या से भी अधिक था। (टेबल-1)
इसी तरह भरी जवानी में अपने उम्र के 15 से 40 वर्ष के दौरान विधवा हो चुकी महिलाओं की संख्या पुरुष विदुरों की संख्या से पौड़ी गढ़वाल और टेहरी गढ़वाल में पाँच गुना, और अलमोडा में चार गुना अधिक था। दूसरी तरफ़ यह अंतर देहरादून में और सहारनपुर में उल्टा था। अर्थात् इन दो ज़िलों में भरी जवानी में विधवा होने वाले महिलाओं की संख्या भारी जवानी में विदुर होने वाले पुरुषों की संख्या से कम थी।
पहाड़ों में जवानी में विधवा होने वाली लड़कियों की संख्या अधिक होने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण यह था कि यहाँ लड़कियों के अंदर बाल विवाह का प्रचलन पुरुषों से ज़्यादा था। टेबल संख्या 2 में यह स्पष्ट होता है कि 5-10 वर्ष उम्र के लड़कियों का बाल विवाह उसी उम्र के लड़कों के बाल विवाह का गढ़वाल में चार गुना और अलमोडा में आठ गुना अधिक था। दूसरी तरफ़ देहरादून में यह अंतर न के बराबर था जबकि सहारनपुर में यह अंतर दुगुना से भी कम था। लगभग यही अंतर 0 से 15 वर्ष के लड़कों और लड़कियों में भी दिखता है।
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आँकड़ों का खेल:
वर्ष 1951 की भारतीय जनगणना तक बिना पति के औरत और बिना पत्नी के मर्द दोनो के लिए ही विधवा (Widowed) शब्द का इस्तेमाल होता था। लेकिन उसके बाद के जनगणनाओं में विधवा की गणना में कई ऐसे बदलाव देखने को मिलता है जो भारतीय इतिहास, संस्कृति, और समाज को पीछे ले जाने और उसे महिला विरोधी होने का दावा करने के लिए काफ़ी है।
वर्ष 2011 की नवीनतम भारतीय जनगणना में देश के किसी भी क्षेत्र का जिलावार विधवाओं और उनके उम्र की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई है। हालाँकि राज्य स्तर पर यह आँकड़ा उपलब्ध है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड में लगभग 11.37 प्रतिशत महिलाएँ विधवा हैं जबकि यह आँकड़ा उत्तर प्रदेश में यह आँकड़ा 9.12 और बिहार में 7.33 प्रतिशत है। अगर ये आँकड़े प्रत्येक ज़िले का अलग अलग उपलब्ध होता हो इसकी पूरी सम्भावना है कि उत्तराखंड के पहाड़ी ज़िलों में विधवा महिलाओं का अनुपात मैदान के ज़िलों और राज्यों से कहीं अधिक होने की पूरी सम्भावना है। (टेबल-३)

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