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कैसे बनी उर्दू बिहार की दूसरी अधिकारिक भाषा और क्यूँ पिछड़ा भोजपुरी, मगधी या मैथिली इस लड़ाई में?

भगवा वस्त्र धारण करने वाले, और उत्तर प्रदेश में हिंदुत्व का डंका पिटने वाले वाले योगी आदित्यानाथ के उत्तर प्रदेश में सरकार की दूसरी सरकारी भाषा उर्दू है। यानी की योगी सरकार की दूसरी सरकारी भाषा उर्दू है। हिंदू सम्राट सरकार की दूसरी भाषा उर्दू है। न संस्कृत ना भोजपुरी, ना अवधी, सिर्फ़ उर्दू। उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार एक मात्र दूसरा राज्य है पूरे हिंदुस्तान हिंदुस्तान में जिसकी दूसरी सरकारी भाषा सिर्फ़ उर्दू है। पहली तो हिंदी ही है। 

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बिहार में तो फिर भी उर्दू को सरकारी भाषा का दर्जा दिलवाने के लिए लिए प्रदेश के मुसलमानों ने लम्बा संघर्ष किया। आज़ादी के पहले भी और आज़ादी के बाद भी। लेकिन यूपी के मुसलमानों को तो उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा ख़ैरात में मिल गई थी जिसे योगी आदित्यानाथ पता नहीं कब छिनेंगे। मुसलमानों से इलाहबाद, फ़ैज़ाबाद, जैसे कई शहरों से लेकर गाली-मोहल्ले तक का नाम छिन लेने वाले और ताजमहल तक छिनने की तैयारी करने वाले बाबा की सरकार पता नहीं कब उत्तर प्रदेश की सरकार से उर्दू छिनेंगे। बिहार में तो चलिय फिर भी वर्तमान भी विभीषण के वंशजों का है और इतिहास भी हिंदू-विरोधियों का था। 

आज़ादी से पहले साल 1918 में ही पटना में ‘अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू’ की स्थापना हो चुकी थी। 28 अगस्त 1938 को उत्तर भारत में और ख़ासकर बिहार और उत्तर प्रदेश में हिंदी को बढ़ावा देने वाली संस्था ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ के अध्यक्ष भावी राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और अब्दुल हक़ के बीच महात्मा गांधी की मध्यस्था में समझौता भी हुआ। जिसमें यह तय हुआ कि दोनो समाज के लोग यानी की हिंदू और मुसलमान, हिंदुस्तानी भाषा का समर्थन करेंगे जिसे हिंदी और उर्दू दोनो लिपि में लिखा जाएगा।

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इसके अलावा 1950 के दशक के दौरान उच्च शिक्षा में उर्दू की पढ़ाई के लिए भी बिहार में अभियान चला, बिहार के पहले मुख्यमंत्री खुद श्री बाबू उर्दू कॉन्फ़्रेन्स का उद्घाटन किए, उर्दू भाषा के प्रचार के लिए सिग्नेचर अभियान चलाया गया। कांग्रेस-विरोधी जेपी आंदोलन के दौरान भी बिहार में उर्दू के ज़्यादातर समर्थकों ने कांग्रेस के ख़िलाफ़ जेपी का साथ दिया और चुनाव में कर्पूरी ठाकुर का साथ दिया, जबकि उत्तर प्रदेश की मुस्लिम मजलिस ए मशवव्रत ने इंदिरा गांधी का साथ दिया। बिहार के विधानसभा और विधनपरिषद में भी मुस्लिमों का उत्तर प्रदेश की तुलना में अधिक विधायक और सांसद चुने गए। 

1967 में पहली बार उर्दू भाषा और फ़ारसी लिपि को बिहार की दूसरी सरकारी भाषा घोषित करने के लिए विधानसभा में बिल पेश किया गया। उस समय बिहार के उप मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने इसका समर्थन भी किया। लेकिन जनसंघ ने इसका विरोध किया और कांग्रेस ने इसपर चुप्पी साध ली।

इसके बाद 1970 के दशक के दौरान बिहार का मुस्लिम कांग्रेस के भी ख़िलाफ़ होता चला गया, और कर्पूरी ठाकुर जैसे पिछड़े नेता का साथ देने लगे। मुसलमानों और पिछड़ों के इसी साथ से कर्पूरी ठाकुर बिहार के दो दो बार मुख्यमंत्री बनते है। इसी दौरान बिहार में ‘बिहार उर्दू यूथ फ़ोरम’ भी बना, लेकिन उत्तर प्रदेश में ऐसा कुछ नहीं हुआ। 

बिहार में उर्दू को लेकर आंदोलन कितना मज़बूत था इसका अंदाज़ा आप इससे ही लगा सकते हैं कि 1980 का चुनाव आते आते कांग्रेस को भी अपने मेनिफ़ेस्टों में यह वादा करना पड़ा कि अगर वो सत्ता में आएँगे तो बिहार में उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा देंगे।

इसके बाद कांग्रेस सत्ता में आइ भी और सत्ता में आते ही दिसम्बर 1980 में Bihar Official Language Act भी लायी, जिसके तहत जुलाई 1981 में बिहार के दस ज़िलों में उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा दे दिया गया। बाद में 1986 में इसमें छह और ज़िलों को जोड़ा गया, 1988 में एक और ज़िला और फिर 1989 में बिहार के सभी ज़िलों में उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा दे दिया गया

बिहार के परे उर्दू:

बिहार में उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा देने से कांग्रेस को इतना फ़ायदा हुआ कि कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में भी 1989 में ही उत्तर प्रदेश के सभी ज़िलों में उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा दे दिया। हालाँकि इसके लिए बिहार के विपरीत उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को ना कोई आंदोलन करना पड़ा और न ही कोई अभियान चलाना पड़ा।

उत्तर प्रदेश के मुसलमान थूथरवा साँप की तरह सुन्न रहे। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को इतना बड़ा तोहफ़ा दिया और बदले में कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में सरकार गिर गई। एन डी तिवारी चलते बने और मुसलमानों ने नए मसीहा मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश की गद्दी सम्भाली। बिहार के विपरीत उत्तर प्रदेश में उर्दू भाषा कभी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के लिए मुद्दा बना ही नहीं था। 

हिंदुस्तान में बहुत कम ऐसे राज्य हैं जहां कि दूसरी सरकारी भाषा सिर्फ़ उर्दू हो। तेलंगाना ऐसा ही एक राज्य है। दूसरी सरकारी भाषा का मतलब होता है सेकंड official language यानी की दूसरी प्रशासनिक भाषा। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के विभाजन के बाद, पिछले वर्ष ही आंध्र प्रदेश सरकार ने उर्दू को राज्य की दूसरी प्रशासनिक भाषा बनाने की घोषणा कर दिया था। हालाँकि आंध्र प्रदेश के पंद्रह ज़िलों में उर्दू पहले से ही दूसरी सरकारी भाषा थी। जगन रेडी ने सिर्फ़ इसे राज्य के सभी ज़िलों पर लागू किया है यानी की 11 अन्य ज़िलों में इक्स्टेंड कर दिया। आंध्र प्रदेश में कुल 26 ज़िले हैं। 

इसके अलावा झारखंड, और पश्चिम बंगाल में भी उर्दू दूसरी सरकारी भाषा है लेकिन अकेले उर्दू नहीं है दूसरी सरकारी भाषा। बल्कि इन दोनो राज्यों में एक से अधिक दूसरी सरकारी भाषा है जिसमें से उर्दू एक है। उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल में उर्दू के अलावा  नेपाली, हिंदी, सन्थली समेत ११ अन्य भाषाएँ भी पश्चिम बंगाल की दूसरी सरकारी भाषा है जबकि बंगाली और अंग्रेज़ी पश्चिम बंगाल की पहली सरकारी भाषा है। यहाँ पहली और दूसरी का मतलब इस तरह से समझिएगा कि पहली भाषा का मतलब पहला प्रेफ़्रेन्स वाली भाषा और दूसरी मतलब दूसरा प्रेफ़्रेन्स वाली भाषा। 

भारतीय संविधान के अनुसार देश में दोहरी भाषा प्रणाली है, जिसके तहत केंद्र सरकार यानी की भारत सरकार की दो सरकारी भाषा होती है: हिंदी और अंग्रेज़ी। दूसरी तरफ़ सभी राज्यों को अपने-अपने राज्य सरकार की पहली और दूसरी सरकारी भाषा या राजकीय भाषा चुनने का पूरा अधिकार है और केंद्र सरकार इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। 

देश के अलग अलग राज्य में अलग अलग सरकारी भाषाएँ है। उदाहरण के लिए कर्नाटक में कन्नड़ राज्य की पहली और अंग्रेज़ी कर्नाटक दूसरी सरकारी भाषा है। इसी तरह केरल में मलयालम पहली और अंग्रेज़ी दूसरी। यानी की इन दोनो राज्यों में हिंदी का दूर दूर तक कहीं कोई नामों निशान नहीं है। हिंदी को पूरी तरह ग़ायब करने वाले राज्यों में तमिलनाडु, गोवा, असम, पंजाब, ओड़िसा, महाराष्ट्र और उत्तर पूर्व के ज़्यादातर राज्य शामिल हैं।

तेलंगाना ने तो उर्दू को दूसरी भाषा का दर्जा दिया लेकिन हिंदी को कहीं कोई जगह नहीं दिया। दूसरी तरफ़ गुजरात में गुजराती को पहली और हिंदी को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा दिया गया है। अरुणाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओड़िसा, पंजाब, राजस्थान, कश्मीर, और त्रिपुरा में तो कोई दूसरी सरकारी भाषा है ही नहीं। चंडीगढ़ और अरुणाचल प्रदेश में तो आज भी सिर्फ़ अंग्रेज़ी ही सरकारी भाषा है, यहाँ सरकारी काम सिर्फ़ अंग्रेज़ी में ही होता है। 

हिंदुस्तान में दो राज्य ऐसे भी है जिन्होंने अपने अपने राज्य की दूसरी सरकारी भाषा, संस्कृत को बनाया है। ये राज्य है हिमांचल प्रदेश और उत्तराखंड। दोनो देवभूमि है। लेकिन आश्चर्य होता है कि जिस उत्तराखंड राज्य की स्थापना उत्तराखंडी पहचान के लिए पहाड़ी पहचान के लिए लम्बे आंदोलन के बाद कई कुरबानियों के बाद पृथक उत्तराखंड राज्य की स्थापना हुआ था उस उत्तराखंड की सरकारी भाषा में उत्तराखंडी भाषा यानी की कुमाऊँनी या गढ़वाली को कोई जगह नहीं दिया गया। और किसी उत्तराखंडी ने आज तक इसके लिए ना कोई अभियान चलाया ना आवाज़ उठाई। 

दूसरी तरफ़ उत्तर प्रदेश में जब 1989 में उर्दू को राज्य की सरकारी भाषा घोषित किया गया तो इसका विरोध भी हुआ। सर्वोच्च न्यायालय में लम्बी सुनवाई के बाद साल 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने अंतिम फ़ैसला देते हुए राज्य सरकार के 1989 के फ़ैसले को सही माना। यानी की सर्वोच्च न्यायालय ने भी उत्तर प्रदेश की दूसरी सरकारी भाषा के रूप में उर्दू के पर मुहर लगा दी और UP हिंदी साहित्य सम्मेलन के पटिशन को रेजेक्ट कर दिया।

जिस संस्कृत को योगी के उत्तर प्रदेश की सरकारी भाषा होनी चाहिए उस योगी के प्रदेश में उर्दू सरकारी भाषा बनी हुई है और हिंदू सम्राट चुप बैठे हुए है। योगी जी ने इलाहबाद, फ़ैज़ाबाद, मुग़ल सराय जैसे दर्जनों शहरों और गाली-मोहल्लों के के तो नाम बदल दिए लेकिन उर्दू को प्रदेश की सरकारी भाषा से पता नहीं कब बाहर करेंगे?

योगी सरकार के लिए यह करना भी कोई मुश्किल नहीं है क्यूँकि योगी सरकार और उनके समर्थक संस्कृत के रहनुमाई करते हैं लेकिन संस्कृत को राज्य की सरकारी भाषा घोषित करने का ख़िताब तो उत्तराखंड और हिमाचल ले गया। दो बार मुख्यमंत्री बनने के बावजूद यूपी का संस्कृत अभी भी योगी जी का इंतज़ार कर रही है। 

संस्कृत को योगी जी सरकारी भाषा नहीं बनाना चाहते हैं तो भोजपुरी को ही बना दे, वैसे भी भोजपुरी बोलने वाले लोगों ने बहुत आंदोलन किया है इतिहास में, अपनी भाषा के लिए। बेचारों को अलग भोजपुर राज्य तो आजतक मिला नहीं, कम से कम भोजपुरी भाषा को सरकारी पहचान ही मिल जाए योगी राज में।

अगर योगी जी वो भी नहीं करना चाहते है तो कम से कम अवधी भाषा को तो उत्तर प्रदेश की सरकारी भाषा बनाना ही चाहिए। उत्तर प्रदेश तो अवध की नागरी, और अवध राम की नागरी है, भगवान राम की, अब रमराज्य में तो कम से कम राम की नागरी की भाषा हो। वैसे भी उत्तर प्रदेश का नामकरण अवध प्रदेश ही होना चाहिए।

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Sweety Tindde
Sweety Tinddehttp://huntthehaunted.com
Sweety Tindde works with Azim Premji Foundation as a 'Resource Person' in Srinagar Garhwal.
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