कभी सोचा है कि एक साल में पूरे हिंदुस्तान में ऐसी कड़कड़ती हुई कितने वज्रपात होती होगी? पूरे बिहार में ये बिजली एक साल में कितनी बार चमकती होगी? इस बिजली के चमकने से हर साल कितनी मौतें होती है, बिहार में? या पूरे हिंदुस्तान में? या किस राज्य में सबसे ज़्यादा बिजली चमकती है और किस राज्य मे ये बिजली चमकने से सबसे ज़्यादा मौतें होती है?
क्या आपको विश्वास होगा कि साल 1995 तक भारत सरकार बिजली गिरने से कितने मौतें हुई है ये पता करने के लिए समाचारपत्रों पर निर्भर रहा करती थी? क्या आपको विश्वास होगा कि एक साल में देश में बाढ़, सूखा, भूस्खलन, भूकम्प, साइक्लोन जैसी सभी तरह की प्राकृतिक आपदाओं में से सर्वाधिक मौतें बिजली चमकने से होती है। इसके बावजूद आज तक केंद्र सरकार बिजली चमकने से होने वाली मौत को प्राकृतिक आपदा नहीं मानती है।
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केंद्र सरकार की जो प्राकृतिक आपदा कि अधिकारिक सूची है उसमें बाढ़, सूखा, भूस्खलन, भूकम्प, साइक्लोन जैसे तेरह तरह के आपदाओं को तो शामिल किया है लेकिन बिजली गिरने को अभी तक शामिल नहीं किया गया है। यहाँ तक की शीतलहर और कीड़ों के आक्रमण को प्राकृतिक आपदा की सूची में शामिल कर लिया गया है लेकिन बिजली गिरने को नहीं।
सरकार की सूची में शामिल सभी तरह के प्राकृतिक आपदाओं में मारे जाने वाले लोगों को सरकार State Disaster Response Fund (SDRF) से आर्थिक सहायता देती है और इस फंड का 75% हिस्सा केंद्र सरकार देती है और बाक़ी का 25% हिस्सा राज्य सरकार। लेकिन बिजली गिरने पर केंद्र सरकार एक रुपया भी नहीं देती है क्यूँकि केंद्र सरकार की नज़र में इस तरह की बिजली गिरने से होने वाली मौतें प्राकृतिक है ही नहीं, ये तो भगवान का प्रकोप है, 18वीं सदी तक का यूरोप भी यही मानता था की ये बिजली गिरना भगवान का प्रकोप है, जब तक कि बिजली की खोज नहीं हो गई यूरोप में।
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इसी साल 30 जून को बिहार के अलग अलग ज़िलों में 19 लोगों की बिजली गिरने से मौत हो गई। इसी तरह 05 जुलाई को पंद्रह लोगों की जान गई। और पंद्रह जुलाई को भी 17 लोगों की मौत हुई इसी तरह की बिजली गिरने से। राज्य सरकार ने पीड़ित परिवारों को मुख्यमंत्री सहायता कोष से चार चार लाख रुपए दिए। बिहार सरकार अक्सर ये पैसे मुख्यमंत्री सहायता कोश से देती है हालाँकि किसी और भी कोश से दे सकती है जहां भी फंड उपलब्ध हो, लेकिन देती है।
बिहार में साल 2022 में बिजली गिरने से 375 लोगों की जान गई थी, इसी तरह साल 2021 में 280 लोगों की, 2020 में 459 लोगों की, 2019 में 253 लोगों की, 2018 में 139 लोगों की, 2017 में 180 लोगों की और साल 2016 में बिहार के अलग अलग हिस्सों में बिजली गिरने से कुल 114 लोगों की मृत्यु हुई थी। पूरे बिहार में हर साल औसतन चार लाख बार बिजली गिरती है। जबकि देश में प्रत्येक वर्ष औसतन डेढ़ से दो करोड़ तक बिजली गिरती है जिसमें औसतन प्रत्येक वर्ष ढाई हज़ार लोगों की मौत होती है। साल 2022 के दौरान इस तरह की बिजली गिरने से पूरे हिंदुस्तान में कुल 2183 लोगों की मौत हुई।
पिछले एक दशक से देश और बिहार दोनो जगह बिजली गिरने और उससे मरने वाले लोगों की संख्या में लगातार वृद्धि होने के आँकड़े सामने आ रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग से अधिक बिजली गिरती है। BBC की एक रिपोर्ट के अनुसार तापमान में एक डिग्री की बृद्धि होने से बिजली गिरने में लगभग 12 प्रतिशत की बढ़ोतरी होती है। तभी कहूँ भारतीय सिनेमा में ये बिजली गिराने वाली महिला को हमेशा हॉट गर्ल क्यूँ बोलते हैं। जितना ज़्यादा हॉट्नेस बढ़ेगी उतना ज़्यादा बिजली गिरेगी।
वैसे हिंदुस्तान में इस बिजली गिरने से मारने वालों में 86 प्रतिशत लोग देश के गाँव में रहते हैं और उसमें से भी ज़्यादातर छोटे किसान, भूमिहीन मज़दूर या चरवाहा समाज के लोग होते हैं। पूरे साल में ज़्यादातर बिजली जून और जुलाई के महीने में गिरती है और यही वो मौसम है जब खेतिहर मज़दूर खुले खेतों में बारिश में भीगते हुए धान की रोपाई करते हैं, चरवाहा अपने जानवरों को नई घास चराने जाते हैं, और जब बारिश तेज होती है तो बारिश से बचने के लिए कभी अभी किसी पेड़ की आड़ लेते हैं और बिजली गिरने पर मारे जाते हैं।
आपदा विभाग के अनुसार बिजली से 75 प्रतिशत मौतें पेड़ के नीचे ही होती है। इनके ऊपर कभी वो हिंदी फ़िल्मों वाली बिजली नहीं गिरती है। इनपर और इनके परिवार पर तो सिर्फ़ ख़राब क़िस्मत की बिजली गिरती है। इसी तरह से हिंदुस्तान के जिस क्षेत्र में जिस साल अधिक वेस्टर्न disterbances होगा उस क्षेत्र में उतना ही अधिक बिजली गिरेगी। ग़रीबों वाली बिजली, अमरों वाली नहीं, गाँव वाली बिजली शहर वाली नहीं, भारत वाली बिजली इंडिया वाली बिजली नहीं।
बिजली तो दिल्ली में भी गिरती है, पहले भी गिरती थी, क़ुतुब मीनार पर भी गिरी थी। इतिहास में कम से कम तीन ऐसे मौक़े थे जब क़ुतुब मीनार पर बिजली गिरी और क़ुतुब मीनार की ऊपर की मंज़िल तोड़ डाली। 1326, 1368 और 1803. वैसे तो हिंदुस्तान में जबसे ज़्यादा बिजली केरल और बंगाल में गिरती है लेकिन उससे मौतें सबसे ज़्यादा बिहार और बंगाल में होती है। दक्षिण भारत की राज्य सरकारों ने अपने प्रदेश के अलग अलग हिस्सों में बिजली गिरने को डिटेक्ट करने वाली मशीन लगवाई है। ये मशीन किसी भी जगह पर बिजली गिरने से आधा घंटा से चालीस मिनट पहले ये बता देती है कि कहाँ बिजली गिरने वाली है। इसी के अनुसार राज्य सरकार की आपदा टीम उस क्षेत्र के लोगों को सतर्क कर देती है जिससे बिजली तो गिरती है लेकिन मौतें कम होती है।
साल 2017 में जब बिहार में भी बिजली गिरने के कारण मरने वाले लोगों की संख्या 2016 के 114 की तुलना में बढ़कर 180 हो गई थी तो बिहार सरकार ने पूना में स्थित इंडीयन इन्स्टिटूट ओफ़ ट्रॉपिकल मीटीअरॉलॉजी से सम्पर्क किया। वहाँ की टीम अगले साल ही बिहार आइ, बिहार में उन जगहों का चुनाव करने जहां बिजली गिरने को डिटेक्ट करने वाली मशीन लगनी चाहिए। लेकिन पिछले साल तक बिहार में मात्र ऐसी दो ही मशीने लगाई जा सकी है। इस तरह की एक मशीन दो सौ किलोमीटर तक क्षेत्र में बिजली की भविष्यवाणी कर सकती है। फ़िलहाल ऐसी एक मशीन गया और एक मधुबनी में लगी हुई है। बिहार को ऐसी और मशीनों की ज़रूरत है। हालाँकि झारखंड में भी दो ही मशीन लगी है और बाबा के प्रदेश उत्तर प्रदेश में तो एक ही मशीन लगी है और वो भी बाबा ने अपने घर गोरखपुर में लगवा लिया है।
इंडीयन इन्स्टिटूट ओफ़ ट्रॉपिकल मीटीअरॉलॉजी तो कम से कम मशीन भी बनवाती है, नैशनल इन्स्टिटूट ओफ़ डिज़ैस्टर मँजेमेंट की तो साल 1995 में स्थापना ही हुई थी। और वो भी बिजली गिरने से सम्बंधित कोई डेटा इकट्ठा नहीं करती थी। बिजली गिरने से सम्बंधित डेटा तो साल 2012 से रखा जाना शुरू हुआ जब India Meteorological Department ने ये काम शुरू किया। इसके पहले तो 1967 से 1995 तक NCRB सिर्फ़ कुछ हस्पतालों से और मीडिया में छपी खबरों के आधार पर देश में बिजली गिरने और उससे होने वाली मौतों की संख्या पता करती थी। 1995 से यही काम NIDM भी करने लगी। मतलब नैशनल इन्स्टिटूट ओफ़ डिज़ैस्टर मँजेमेंट।
1967 से 1971 तक सरकार की प्राकृतिक आपदा की सूची में मात्र पाँच तरह की आपदाओं का नाम था और उसमें बिजली गिरना शामिल नहीं था। 1971 में इस सूची में दो और नाम जोड़े गए लेकिन बिजली गिरने को नहीं, 1995 में इसमें पाँच और नाम जोड़े गए, लेकिन बिजली गिरने को नहीं, और उसके बाद दो और नाम जोड़े गए, लेकिन बिजली गिरने को अभी भी देश की प्राकृतिक आपदा की सूची में शामिल होने का इंतज़ार है।
हालाँकि इस दौरान सिर्फ़ 1993 में हिमालय में आने वाले भूस्खलन, 1995 का हीट वेव, 1997 में आंध्र प्रदेश का साइक्लोन 1999 का ओड़िसा साइक्लोन, 2000 का उत्तर पूर्व का बाढ़ और 2001 का गुजरात भूकम्प छोड़ दें तो छोड़ दें तो 1967 से लेकर आज तक हर साल प्राकृतिक आपदा में सर्वाधिक मौतें बिजली गिरने से ही हुई है। प्रत्येक वर्ष प्राकृतिक आपदा से देश में होने वाली सभी मौतों का लगभग चालीस प्रतिशत हिस्सा अकेले बिजली गिरने से होती है जबकि दूसरे नम्बर पर बाढ़ है जिसके कारण प्राकृतिक आपदा से होने वाली कुल मौतों का बीस प्रतिशत हिस्सा भी नहीं है। हर साल हिंदुस्तान में लगभग ढाई हज़ार लोग बिजली गिरने से मरते हैं जबकि शायद ही कोई साल होगा जब बाढ़ से देश में एक हज़ार से ज़्यादा लोग मरते होंगे।
लेकिन इसके बावजूद केंद्र सरकार बिजली गिरने को सरकार की प्राकृतिक आपदा की अधिकारिक सूची में शामिल नहीं करती है। वो शामिल नहीं करती है क्यूँकि केंद्र सरकार को भी पता है कि अगर सूची में शामिल किया तो पैसे देने पड़ेंगे, और केंद्र सरकार पैसा देना नहीं चाहती शायद।
हिंदुस्तान में तो फिर भी बिजली गिरने एक करोड़ लोगों पर मात्र ढाई लोगों की मौत होती है लेकिन अफ़्रीका के स्वजीलैंड देश में एक करोड़ की जनसंख्या पर 155 लोगों की मौत होती है, ज़िम्बाब्वे में 134 लोगों की मौत होती है, वियतनाम में 88, नेपाल में 27 और Cambodia में 18 लोगों की मौत होती है, प्रत्येक एक करोड़ जनसंख्या पर।