नेपाली मज़दूर को पहाड़ों में डोटियाल कहकर इसलिए सम्बोधित किया जाता है क्यूँकि पहाड़ में रोज़गार की तलाश में आने वाले ज़्यादातर नेपाली पश्चमी नेपाल के डोटी और जुमला क्षेत्र से आते हैं। (समय) के कार्यकाल के दौरान ये क्षेत्र उत्तराखंड में राज कर रहे क्युतर साम्राज्य का हिस्सा थे। डोटी राज्य की राजधानी चमोली ज़िले का जोशिमठ शहर था।
“अपमानजनक समझा जाता है ‘डोटियाल’ शब्द”
जिस तरह उत्तर प्रदेश और बिहार में चमार, भंगी, माँझी, मुसहर, शब्द का इस्तेमाल किसी व्यक्ति को सामाजिक रूप अपमानित करने के लिए किया जाता है उसी तरह उत्तराखंड में भी डोटियाल शब्द अपमान सूचक है। जिस तरह उत्तर पूर्व भारत के लोगों को सार्वजनिक रूप से चायनीज़, चिंकी, या नेपाली कहकर सम्बोधित करना अपमानजनक लगता है उसी तरह नेपाल से आए मज़दूरों को उत्तराखंड के स्थानिये लोगों द्वारा डोटियाल शब्द से इंगित करना अपमान जनक लगता है।

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आज भी डोटी क्षेत्र जो पश्चमी नेपाल (सुदूर पश्चिम राज्य) का हिस्सा है वो नेपाल के सर्वाधिक पिछड़े क्षेत्र हैं। सुदूर पश्चिम राज्य में वर्ष 2018-19 की जनगणना के अनुसार 33.9% लोग ग़रीबी रेखा से नीचे हैं जबकि पूरे नेपाल का औसत 18.7% है। इसी तरह इस राज्य में औसत स्कूलिंग मात्र 10.6 वर्ष है जो पूरे नेपाल में सर्वाधिक कम है।
एक शोध के अनुसार पूरे नेपाल में सर्वाधिक गरीब और पिछड़ा ज़िला इसी सुदूर पश्चिम प्रांत का बझंग ज़िला है जहां के कुल आय का 22% हिस्सा पलायन किए मज़दूरों और उनकी मज़दूरी से आता है। ज़िले के 85% आबादी बहुआयामी रूप से गरीब हैं। यह पहाड़ी ज़िला है जिसका आधा से अधिक भूभाग बर्फीला है।
“डोटियाल का पहाड़ी इतिहास और पलायन से सम्बंध”
वर्ष 1921 में हुए कूली-बेगार आंदोलन के बाद पहाड़ के लोग अंग्रेज़ी अधिकारी का बेगारी करने के लिए बाध्य नहीं थे। पर्वतारोहण के दौरान सस्ते कूलियों (भार-वाहकों) की कमी को दूर करने के लिए विदेशी पर्वतारोहियों ने नेपाल से उत्तराखंड आने वाले नेपाली मज़दूरों का इस्तेमाल करने लगे। उत्तराखंड में बढ़ते नेपाली मज़दूरों की माँग के कारण नेपाल से आने वाले मज़दूरों की संख्या लगातार बढ़ने लगी। विदेशी पर्वतारोहियों को पर्वतारोहण में मदद करने के लिए उत्तराखंड के बाहर से आने वाले लोगों में नेपाल और भूटान से आने वाले शेर्पा समुदाय के कर्मठ और दक्ष लोग भी शामिल थे।

हिंदुस्तान की आज़ादी के बाद उत्तराखंड से जैसे-जैसे पलायन शहरों और मैदानो की तरफ़ पलायन बढ़ने लगा वैसे-वैसे नेपाल से उत्तराखंड की कृषि अर्थव्यवस्था में अपना योगदान करने के लिए उत्तराखंड आने वाले मज़दूरों की भी संख्या बढ़ने लगी। 1990 के दशक में आर्थिक उदारिकरण के कारण दिल्ली-हरियाणा आदि में रोज़गार के नए अवसर खुलने के बाद उत्तराखंड से इन क्षेत्रों की ओर पहाड़ियों का पलायन भी तेज़ी से बढ़ा। पहाड़ियों के पहाड़ों के बाहर बढ़ते पलायन के साथ नेपाली मज़दूरों का पहाड़ी कृषिगत ग्रामीण अर्थव्यवस्था में की ओर भी पलायन तेज़ी से बढ़ा।

नेपाली मज़दूर आज पहाड़ी कृषिगत अर्थव्यवस्था में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। ने नेपाली मज़दूर अक्सर ज़मीन पट्टों पर लेकर उसमें कृषि करते हैं। इन्हें आज भी अक्सर डोटियाल बोलकर सम्बोधित किया जाता है। शहरों या क़स्बों में समान ढ़ोने वाले नेपाली मज़दूरों को ‘डोटियाल’ के स्थान पर बहादुर बोलकर सम्बोधित किया जाता है। तीर्थ यात्राओं पर डोलियों में तीर्थयात्रियों को ढ़ोने वालों में अक्सर नेपाली मूल के मज़दूर भी मिल जाते हैं जिन्हें सैलानियों (तीर्थयात्रियों) द्वारा ‘डोली वाला’ कहकर सम्बोधित किया जाता है।