‘प्यारी पहाड़न’! इसके कई आयाम हो सकते हैं। फ़िलहाल इसे उत्तराखंड और भोजन तक सीमित रखते हैं क्योंकि मामला एक रेस्त्रां से शुरू होता है, जो पिछले कुछ दिनों से उत्तराखंड में सुर्ख़ियाँ बटोर रहा है। आपत्ति, समर्थंन और विवाद का केंद्र ‘प्यारी’ शब्द तक सीमित रह गया है। पर कैसा हो अगर इस विवाद के सहारे हम संवाद को थोड़ा बहुत ‘पहाड़न’ और ‘भोजन’ के साथ ‘प्यारी पहाड़न’ के रिश्तों की तरफ़ भी मोड़ पाएँ? क्या रिश्ता है उत्तराखंड कि औरतों का भोजन, रसोई और पहाड़ों की विषम परिस्थितियों के साथ?
शब्द सुने सुनाए हो सकते है पर जब उक्त शब्द का रजनीतिकरण होता है तो उसका वृहद् विश्लेषण ज़रूरी हो जाता है। दरअसल मामला देहरादून शहर के कारगील चौक का है जहां एक उत्तराखंडी महिला द्वारा ‘प्यारी पहाड़न’ नाम से रेस्टोरेंट खोला गया। किसी भी शहर में रोज़ नए रेस्टोरेंट खुलते और बंद होते हैं और देहरादून में तो जिस तेज़ी से पलायन करने वाले लोगों की संख्या बढ रही है उसमें तो ऐसे रेस्टोरेंट खुलना लाज़मी है।
मामला तब विवादित हो गया जब कुछ विशेष राजनीतिक दल/विचारधारा और ग़ैर-राजनीतिक लोगों ने न सिर्फ़ ‘प्यारी पहाड़न’ शब्द पर आपत्ति जताई बल्कि रेस्टोरेंट के मालिक के साथ अभद्रता भी किया। आरोपियों का मानना है कि ‘प्यारी पहाड़न’ शब्द उत्तराखंड की महिलाओं का अपमान है। शायद वो लोग ‘प्यारी’ शब्द को यौवन और कामुकता से जोड़कर देख रहे हैं। इस मामले को देखने का कई नज़रिया हो सकता है।
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पहाड़ और महिला:
आप शब्दों के इस्तेमाल पर आपत्ति को थोड़ी देर भूल जाइए और उस महिला के संघर्ष को समझने की कोशिश कीजिए जो पहाड़ों से निकलकर देहरादून जैसे शहर में अपने दम पर एक रेस्टोरेंट खोलती है, अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए संघर्ष करती है। क्या इतना करने का प्रयास काफ़ी नहीं है! उस महिला को प्रोत्साहित करने के लिए? इस संघर्ष के सहारे हमें उत्तराखंड की महिलाओं का रोज़गार, भोजन और रसोई के सम्बन्धों को समझने का भी प्रयास करना चाहिए।
आए दिन उत्तराखंड से पलायन कर चुके लोग पहाड़ों के नाम पर अक्सर खूब सुर्खियां बटोरते हैं। हमें अपने पहाड़ी नाम के साथ पहाड़ी व्यंजनों को भी प्रचलित करना चाहिए न की हमारा उद्देश्य केवल पहाड़ी नाम पर कमाई करने का होना चाहिए। यह जो मुद्दा प्यारी पहाड़न आजकल प्रचलित हुआ है, इस मुद्दे को हम केवल सही, गलत या व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप तक ही सीमित ना रखकर हमें इसे मुख्य भूमिका में भी लाना चाहिए। यह हम सभी के लिए अवसर है कि हम एक पहाड़न का रसोई और भोजन के साथ संघर्षो पर चर्चा करें। इस मुद्दे पर जरूरत है हमारे प्रदेश के आंदोलनकारी और बुद्धिजीवियों को इस प्रश्न के वृहत स्वरूप को लोगों के सामने रखे।
संघर्षों से भरा होता है उत्तराखंड की महिलाओं का जीवन। महिलाओं का दिनचर्या इतना व्यस्त होता है कि वह खुद के लिए भी समय निकालना भूल जाती है। आम धारणा के विपरीत सजना-सवरँना, आत्ममुग्ध होना यह सभी प्यारी पहाड़न के दिनचर्या में सम्मिलित ना के बराबर हैं। फिर भी प्यारी पहाड़न तभी प्यारी हो सकती है जब वह पहाड़न हो। उसकी सुंदरता और प्यारापन उसके संघर्षों में है। जब उसकी सुबह भोर की किरणों से पहले शुरू होकर रसोईघर के धुंए पर खत्म होती हो। पहाड़न के दिनचर्या में रसोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
एक पहाड़न के लिए रसोई कभी भी रास्ते का कांटा नहीं बनी बल्कि उसे अपनी रसोईघर से उतना ही प्रेम है जितना अपने बच्चों से। प्यारी पहाड़न का रसोई केवल रसोईघर तक ही सीमित नहीं रहता है। वह रसोई के लिए जंगल से लकड़ियां एकत्रित करने तथा गाय भैंस के लिए चारा एकत्रित करने जंगल भी जाती है।
रसोई में क्या पकेगा, कैसे पकेगा, सिल्बट्टे पर पिसेगा या दराँती कटेगा और उसे खेतों से उपजाने का भी काम प्यारी पहाड़न ही करती है। प्यारी पहाड़न के बिना कौन कोदे की रोटी, झंगोरे की खीर, काले भट्ट, तिल की चटनी, गहथ की दाल आदि की कल्पना कर सकता है। स्वास्थ्य शरीर का प्रतीक इन शुद्ध भोजन को कौन बिना प्यारी पहाड़न के कल्पना कर सकता है?
जीवन भर संघर्ष करने वाली एवं रसोई के स्वाद को समझने वाली महिला ही प्यारी पहाड़न हो सकती है। पहाड़ों का जीवन इतना संघर्षो भरा होता है कि आजकल प्यारी पहाड़न पहाड़ों में नहीं रहना चाहती। प्यारी पहाड़न अब सजना-सवरना चाहती है, पठार के घरों को छोड़ देहरादून में आलीशान घर में रहना चाहती है जहां उनके काम में हाथ बटाने वाली बाई भी साथ हो, जंगलों या खेतों में नहीं पार्कों में घूमना फिरना, फिल्में देखना चाहती है और हाँ, ‘प्यारी पहाड़न’ रेस्टोरेंट में खाना भी खाना चाहती है।

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