राज्य आंदोलन से पहले:
22 जुलाई 1994 को अमर उजाला अख़बार में छपे इस लेख में मुलायम सरकार से समर्थन वापस लेने के प्रश्न पर UKD के भीतर अंतःविरोध की खबर को उजागर किया है। उस समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार मायावती (BSP) और UKD के एक विधायक (काशी सिंह ऐरी) के समर्थन के साथ चल रही थी। काशी सिंह ऐरी उन UKD के विधायकों में से एक विधायक थे। इस खबर के अनुसार जहाँ विपिन त्रिपाठी जैसे UKD के नेता उत्तराखंड के लिए हिल कौंसिल को नकार रहे थे और मुलायम सरकार से समर्थन वापस लेने के पक्षधर थे वहीं काशी सिंह ऐरी समर्थन जारी रखना चाहते थे।

राज्य आंदोलन के दौरान:
2 दिसम्बर 1994 को छपी इस खबर में UKD पर आरोप लगाया गया है कि वो उत्तराखंड राज्य आंदोलन के नेतृत्व को हड़पने का प्रयास असफ़ल प्रयास कर रहा है। हलंकि यह खबर में यह भी स्वीकार करता है कि तीन महीने पूर्व अर्थात् सितम्बर 1994 में जब आरक्षण के प्रश्न पर यह आंदोलन प्रारम्भ हुआ था तब UKD ने उस आरक्षण विरोधी आंदोलन को पृथक उत्तराखंड राज्य आंदोलन में परिवर्तित करने में अहम भूमिका निभाई थी।
पर तीन महीने के भीतर बने-बनाए मंच को हथियाने की अपनी प्रवृति के कारण UKD के नेता लोगों के बिच अपना जनाधार खोते जा रहे थे। उदाहरण के लिए लेखक लिखते हैं कि नवम्बर 1994 के आख़री दिनो में ऋषिकेश में UKD और काशी सिंह ऐरी की जनसभा में जनता की भिड़ नगण्य थी।
इस खबर में UKD के भीतर गरम मिज़ाज के दिवाकर भट्ट और काशी सिंह ऐरी के बिच विभेद को जमकर उभारा गया है। इंद्रमणी बाडोनी के हाथों से UKD के नेतृत्व को यह लेख उत्तराखंड और UKD दोनो के लिए दुर्भाग्यपूर्ण मानता है। UKD के नए नेतृत्व (ऐरी और दिवाकर भट्ट) की तुलना यह लेख गोरखालैंड आंदोलन के नेता सुभाष घिसिंग से करती हैं और ये आगाह करती है कि अगर ऐसे UKD के अवसरवादी नेता को उत्तराखंड की जनता नहीं नकारती तो उत्तराखंड राज्य आंदोलन का भी वही परिणाम होता जो गोरखालैंड राज्य आंदोलन का हुआ। आज तक गोरखालैंड पृथक राज्य नहीं बन पाया है।
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राज्य आंदोलन के बाद:
वर्ष 1999 का लोकसभा चुनाव आते-आते उपरोक्त लेख की भविष्यवाणी सही साबित होती दिखी। लोकसभा चुनाव के दौरान नैनीताल समाचार में छपे वज़ीर हस्सा के इस लेख में इंद्रमणी बाडोनी की अकस्मात् मृत्यु के बाद बिखरते UKD को दर्शाया गया है। टिकट के बँटवारे और उत्तरांचल विकास पार्टी के साथ गठबंधन और सीट बँटवारे के प्रश्न पर पार्टी के युवा नेताओं द्वारा विरोध करने पर उन्हें पार्टी से निकाले जाने की खबर को UKD का ‘ताबूत का आख़री कील’ की तरह देखा जा रहा था।
UKD के इस राजनीतिक अवसरवादी नीती के इतिहास को यह लेख बखूबी उभारता है जिसमें वर्ष 1989 के चुनाव के दौरान UKD द्वारा BJP के साथ गठबंधन करने का फ़ैसला, 1994 में आंदोलन शुरू होने तक मुलायम सरकार को उत्तराखंड राज्य आंदोलन का हितैषी बताना और मुलायम सरकार को समर्थन देने के फ़ैसले को भी इंगित करता है। लेख यह भी दावा करता है कि UKD इस लोकसभा चुनाव (1999) में कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के लिए तत्पर थी पर कांग्रेस ने UKD को तरजीह नहीं दिया।
लेखक चुनाव परिणाम की सटीक भविष्यवाणी करते हुए UKD से यह उम्मीद भी रखता है कि इस लोकसभा चुनाव के बाद UKD जन-भावनाओं के अनुरूप फ़ैसला ले और उत्तराखंड के विकास की रूपरेखा और आंदोलन की तैयारी करे।
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पर UKD अपनी बर्बादी का मन बना चुकी थी। 2000 में पृथक उत्तराखंड राज्य बनने के बाद वर्ष 2002 में हुए चुनाव में UKD को चार सीट पर विजय मिलती है और UKD कांग्रेस की गोद में चली जाती है। जनता इस विश्वासघात के लिए UKD को कभी माफ़ नहीं करती हैं और UKD आज तक उत्तराखंड की जनता का दुबारा समर्थन पाने में असमर्थ रहती है।
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