बिहार जातीय गणना में किन्नरों ने इस बार नचा दिया है नीतीश सरकार को, और असली नाच तो अभी बाक़ी है, जब सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला आएगा। दरअसल पूरा मामला ये है कि बिहार जातिगत जनगणना 2022 में किन्नर (ट्रांसजेंडर) को एक जाति की तरह गणना किया गया है जिसका ट्रांसजेंडर समाज ने विरोध किया और अब जब आँकड़े सार्वजनिक हुए तो वो भी अटपटा है। बिहार जातीय गणना 2022 के अनुसार बिहार में किन्नरों की कुल आबादी मात्र 825 बताई गई है।
जबकि साल 2011 में हुए भारतीय जनगणना के अनुसार बिहार में किन्नरों की कुल आबादी 40,827 थी और साल 2019 में भारतीय चुनाव आयोग द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार में ट्रांसजेंडर मतदाताओं की कुल संख्या 2164 थी। मतलब तीन अलग अलग रिपोर्ट में आसमान-ज़मीन के अंतर के बराबर ट्रांसजेंडर की जनसंख्या निकली है जो अटपटा है और ट्रांसजेंडर समाज के साथ मज़ाक़ भी है।
किन्नर और जाति :
ट्रांसजेंडर को एक जाति के रूप में गणना करने के ख़िलाफ़ ट्रांसजेंडर समाज के लोग पटना हाई कोर्ट भी गए। हाई कोर्ट ने नीतीश सरकार को फटकार भी लगाई लेकिन नीतीश सरकार किन्नरों की माँग नहीं मानी, अब ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग सर्वोच्च न्यायालय गए हुए हैं, सुनवाई चल रही है। न्यायालय का फ़ैसला क्या आता है ये तो समय बतायेगा लेकिन ट्रांसजेंडर समुदाय के साथ इस तरह का भद्दा मज़ाक़ करने वालों में बिहार अकेला नहीं है।
ट्रांसजेंडर से सम्बंधित राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव आयोग आदि के आँकड़ों को गौर से भी देखेंगे तो कई चौकाने वाले तथ्य सामने आते हैं जो साफ साफ दिखाता है कि ट्रांसजेंडर समाज के लोगों को कोई विशेष अधिकार तो दूर भारत में उन्हें समान नागरिक तक नहीं समझा जाता है। ट्रांसजेंडर के साथ होने वाले ऐसे मज़ाक़ों का चीर फाड़ किया जाएगा आज न्यूज़ हंटर्स पर फटाफट चीर-फाड़ में।
इस साल जनवरी में जब जातीय गणना का पहला फ़ेज़ शुरू हुआ था तो सरकार ने 214 जातियों की लिस्ट और प्रत्येक जाति का कोड जारी किया था। तब कुछ लोग और कुछ संस्थाएँ इस जातीय गणना के विरोध में पहले पटना उच्च न्यायालय और फिर सर्वोच्च न्यायालय गए इस जातीय गणना को रुकवाने के लिए। मीडिया में ये खबर खूब चली, पक्ष विपक्ष के बीच इसके ऊपर खूब आरोप-प्रत्यारोप चले, और मीडिया ने ये सब खूब मशालें के साथ दिखाया।
लेकिन इन्हीं खबरों के बीच, पक्ष विपक्ष के हाय-हल्लों के बीच बिहार के ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग भी बिहार जातीय जनगणना से सम्बंधित कुछ सवालों के ऊपर आपत्ति के साथ पटना उच्च न्यायालय से लेकर देश की सर्वोच्च न्यायालय तक गए लेकिन इनकी खबर कहीं नहीं दिखी। किन्नरों की खबर क्यूँ दिखेगी, जब आज भी हमारा समाज इन्हें देखने लायक़ ही नहीं समझता है तो उनकी खबरें क्यूँ दिखेगी? न तो किसी नौकरी में ये दिखते हैं, न राजनीति में, न संसद में न पुलिस में और न ही मतदाता सूची, तो फिर जातीय गणना में इनकी पहचान को क्यूँ जगह दी जाएगी?
किन्नर और जनगणना:
बिहार जातीय गणना में किन्नरों की जनसंख्या मात्रा 825 दिखाए जाने पर तो सवाल आज उठा है लेकिन ट्रांसजेंडर समाज के लोग तो आज से महीनों पहले इस सवाल पर ही पटना उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा चुके हैं कि किन्नरों को अलग जाति क्यूँ समझा जा रहा है? किन्नर एक लिंग है, किन्नर कोई जाति नहीं है, किन्नर SC समाज के घर में भी पैदा हो सकता है, ST समाज के घर में भी, भुमिहर के घर में भी, ब्राह्मण के घर में भी, यादव के घर में भी और किन्नर मुसहर के घर में भी पैदा होता है। तो फिर सारे किन्नर एक जाति के कैसे हो गए?
उदाहरण के लिए 2011 जनगणना के अनुसार बिहार के कुल 40,827 किन्नर जनसंख्या में से 6,295 दलित थे और 506 आदिवासी किन्नर थे। भारतीय जनगणना में चुकी OBC या अन्य जातियों की गणना नहीं होती है इसलिए किन्नर के अन्य जातियों का विवरण नहीं दिया गया है 2011 की जनगणना में।
लेकिन बिहार सरकार तो जातीय गणना कर रही थी, बिहार सरकार को तो यह पता करना चाहिए था कि कितने किन्नर भुमिहार जाति से हैं, कितने ब्राह्मण से, कितने यादव से या कितने मुसहर से। और फिर ये भी पता करना चाहिए था कि कितने ब्राह्मण या भुमिहर किन्नर शिक्षित है, सम्पन्न है, नौकरी वाले हैं, पैसे वाले हैं, अपना घर वाले हैं, अपनी गाड़ी रखने वाले हैं, अपना लैप्टॉप रखने वाले हैं? ऐसे कई सवलों का जवाब जानना ज़रूरी था।
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दरअसल बिहार जातीय गणना के लिए बिहार सरकार द्वारा जारी 214 जातियों की सूची में 22 नम्बर पर किन्नर का नाम लिखा हुआ था. यानी की किन्नर का जाति कोड 22 था। मतलब बिहार जातीय गणना में किन्नरों को एक लिंग के रूप में नहीं बल्कि जाति के रूप में गणना किया जाना था।
किन्नरों को जाति के रूप में गणना करने पर आपत्ति के साथ जब मार्च 2023 में ट्रांसजेंडर समाज के लोग पटना उच्च न्यायालय गए तो 18 अगस्त को पटना उच्च न्यायालय ने भी यह फ़ैसला दिया कि ट्रांसजेंडर समाज के लोगों की गणना जाति के रूप में नहीं बल्कि लिंग के रूप में किया जाए लेकिन बिहार सरकार पटना उच्च न्यायालय के फ़ैसले को नहीं मानी और बिहार जातीय गणना में जातियों की सूची को बदलने से इंकार कर दिया।
हालाँकि बिहार सरकार ने कोर्ट को ये भी बताया कि जातीय गणना में ट्रांसजेंडर समाज के लोगों की गणना थर्ड जेंडर के नाम से भी किया जा रहा है लेकिन बिहार सरकार ने किन्नर को जातियों की सूची से बाहर करने से इंकार कर दिया। इसके बाद ट्रांसजेंडर समाज के लोग सर्वोच्च न्यायालय में गए लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला आने से पहले बिहार में जातीय गणना हो भी गई और उसकी रिपोर्ट भी जारी हो चुकी है।
ऐसे में सवाल उठता है कि नीतीश सरकार किस आधार पर पटना उच्च न्यायालय के फ़ैसले को नहीं मानी, और अगर अब सर्वोच्च न्यायालय का भी फ़ैसला ट्रांसजेंडर समाज के पक्ष में आएगा तो फिर क्या बिहार सरकार किन्नरों की जातीय गणना अलग से करेगी? सम्भवतः नहीं करेगी क्यूँकि किन्नरों के पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके आधार पर वो नीतीश सरकार को डरा सके या लुभा सके।
राजनीति वोट से चलती है और पूरे बिहार में कुल ट्रांसजेंडर मतदाताओं की संख्या मात्रा 2164 है जबकि साल 2011 की जनगणना के अनुसार बिहार में किन्नरों की कुल आबादी 40,827 थी जो पिछले दस सालों में बढ़ी ही होगी। यानी कि किन्नरों की कुल आबादी का पाँच प्रतिशत लोगों के पास भी मतदाता पहचान पत्र नहीं है। और ये हाल सिर्फ़ बिहार का नहीं है बल्कि पूरे देश का है।
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साल 2019 में भारतीय जनगणना आयोग द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में साल 2011 की भारतीय जनगणना के अनुसार किन्नरों की कुल आबादी 4,87,803 थी जो की पिछले 12 सालों के दौरान और अधिक बढ़नी चाहिए। लेकिन इन 4,87,803 ट्रांसजेंडर में से मात्र 39075 ट्रांसजेंडर का नाम मतदाता सूची में हैं जो कि ट्रांसजेंडर की कुल आबादी का मात्र 8.01% होता है। जबकि आम जनता में लगभग 66% जनसंख्या का नाम मतदाता सूची है क्यूँकि भारत की कुल जनसंख्या का 66% हिस्सा 18 साल से अधिक के उम्र के लोगों का है।
अगर भारत में अन्य वर्ग के लोगों का मतदाता सूची में नाम का अनुपात 66% है तो फिर किन्नरों का 8.01% क्यूँ है? क्यूँकि चाहे वो मतदाता सूची में नाम डालना हो या बिहार जातीय गणना में या फिर सरकार के किसी अन्य योजना में, नाम जोड़ने वाले कर्मचारी ट्रांसजेंडर के बस्तियों और उनके के घरों में गणना करने नहीं जाते हैं। और ये समस्या बिहार सरकार या भारत सरकार या किसी अन्य राज्य की सरकार का नहीं है बल्कि ये समस्या भारतीय समाज का है जो ट्रांसजेंडर को एक बराबरी वाला नागरिक तक नहीं समझता है जिसके पास वोट का अधिकार हो, आधार कार्ड बनवाने का अधिकार हो, सरकारी सुविधाओं को पाने का अधिकार हो। बराबरी के साथ।
किन्नर और बिहार सरकार:
किन्नरों के साथ भेदभाव करने में बिहार का पर्फ़ॉर्मन्स अव्वल है। बिहार के मात्र 5.30 प्रतिशत किन्नरों को मतदाता सूची में जगह दी गई है जबकि राष्ट्रीय औसत 8.01 प्रतिशत है। वहीं दूसरी तरफ़ तमिलनाडु में ये अनुपात 25.90 प्रतिशत है और कर्नाटक में 23.81% है। बिहार न सिर्फ़ किन्नरों को मतदाता सूची में शामिल करने में पीछे है बल्कि उनके उत्थान के लिए योजना लागू करने में भी बिहार पीछे है।
ट्रांसजेंडर के उत्थान के लिए सबसे ज़्यादा योजना तमिलनाडु में चलती है लेकिन बिहार में किन्नरों के लिए एक भी सरकारी योजना नहीं चलती है। बिहार में बिहार ट्रांसजेंडर बोर्ड की स्थापना ही साल 2019 में हुई और बिहार सरकार को ट्रांसजेंडर के लिए किसी विशेष योजना की ज़रूरत का एहसास भी पहली बार साल 2020 में हुआ। नीतीश सरकार ने बिहार के सभी किन्नरों की गणना करने और उन्हें पहचान पत्र देने का प्रयास किया था लेकिन अगले दो सालों में 2022 तक मात्रा 20-25 किन्नरों का ही पहचान पत्र बन सका और बिहार सरकार की वो योजना विफल रही।
साल 2021 में बिहार सरकार ने ट्रांसजेंडर को SHG से जोड़ने का प्रयास किया लेकिन किन्नरों की 40,827 जनसंख्या वाले बिहार में इसके लिए मात्र 50 लाख का बजट दिया गया यानी की राज्य के प्रत्येक ट्रांसजेंडर को औसतन 120 रुपया दिया गया और बिहार सरकार की ये योजना भी विफल हो गई।
इसी तरह किन्नरों के लिए गरिमा गृह योजना चलाई गई लेकिन वो भी विफल रही। जब ट्रांसजेंडर का सही से एक भी सर्वे तक नहीं होगा तो ऐसे योजनाए तो विफल होगी ही। बिहार जातिगत जनगणना बिहार सरकार के लिए एक अच्छा मौक़ा था जब बिहार सिर्फ़ महिला ही नहीं बल्कि ट्रांसजेंडर समुदाय के विकास के लिए सजग होता लेकिन बिहार ने ये मौक़ा खो दिया है।

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