भोटिया जान एक तरह का देशी वाइन है जिसे तैयार करने के लिए नवम्बर से अप्रैल तक उच्च हिमालय के बर्फ़ में फेरमेंट होने के लिए गाड़कर रखा जाता है और फिर अप्रैल के बाद उसे पिया जाता है। दूसरी तरफ़ भोटिया कच्ची (दारु) हिंदुस्तान के अन्य हिस्सों में बनाए जाने वाले देशी (स्थानिये) दारु की तरह हय जो पके हुए चावल को फेरमेंट करके बनाया जाता है। भोटिया कच्ची आपको उत्तराखंड के लगभग सभी पहाड़ी क्षेत्रों में आसनी से मिल जाएगा लेकिन भोटिया जान मिलना बहुत मुश्किल होता है। भोटिया जान मिलेगा तो सिर्फ़ और सिर्फ़ भोटिया बस्तियों के आस पास ही।
भोटिया जान और कच्ची बनाने की विधी एकमात्र समानता यह है कि दोनो को बनाने के दौरन बालन का इस्तेमाल होता है जो मिश्रण को फेरमेंट करने के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। बलम/बलमा एक तरह का यिस्ट/ख़मीर है जिसे भोटिया समाज के लोग अपने घर में देशी/गावरान/पहाड़ी विधी से बनाते हैं।

बलम बनाने की विधी
- सबसे पहले गेहूँ को साफ़ पानी में अच्छी तरह से धोकर उसे धूप में सुखाया जाता है और फिर पत्थर की चक्की में पिसकर उसका आटा बनाया जाता है।
- पिसे हुए गेहूं के आटें को मध्यम आँच पर मिट्टी के चूल्हे में हल्का भूरा रंग का होने तक भुना जाता है।
- भुने हुए आँटे को ठंढा होने के बाद पानी और अन्य स्थानिये जड़ी-बूटियों के साथ मिलाकर गुंद लिया जाता है। इन स्थानिये जड़ी बूटियों में लौंग, इलाइची, पेपर, जंगली मिर्च और पुराने बचे हुए बलम/बलमा के चुर शामिल होते हैं। गुंदे हुए मिश्रण से छोटी-छोटी गोलियाँ बनाकर उसे धूप में सूखने के बाद बलम इस्तेमाल के लिए तैयार हो जाता है।
हलंकि बाज़ार में बलम बिक्री के लिए उपलब्ध नहीं होता है लेकिन भोटिया परिवार से सम्पर्क बनाने पर आजकल इसकी क़ीमत 100-150 रुपए किलो है। बलम का इस्तेमाल कोलरा बीमारी के दौरन वृहद् स्तर पर होता था और आज भी इसका इस्तेमाल जानवरों में कमजोरी दुर करने के लिए औषधी के रूप में किया जाता है।
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जान बनाने की विधी
- जान बनाने के लिए चावल/मांडवा/जौं आदी किसी भी अनाज या सेव जैसे फल या इनके मिश्रण का का इस्तेमाल किया जा सकता है। मिश्रण या किसी एक ही अनाज को पहले पानी में अच्छे से उबाला जाता है।
- उबले हुए मिश्रण से पानी अलग करके मिश्रण को ठंढा होने के लिए छोड़ दिया जाता है।
- ठंढे मिश्रण में बलम को अच्छी तरह से मिलाया जाता है।
- मिश्रण को मिट्टी के किसी बर्तन में रखकर उसे अच्छी तरह से बंद कर दिया जाता है।
- मिश्रण के बंद मिट्टी के बर्तन को फरमेंट होने के लिए छोड़ दिया जाता है। सामान्य गर्मी के मौसम में उत्तर भारत में 3-7 दिन का समय लगता है लेकिन उच्च बर्फ़ीले हिमालय में भोटिया समाज के लोग इसे लगभग छः महीने के लिए बर्फ़ में गाड़कर छोड़ देते हैं। माना जाता है कि मिश्रण जितना कम तापमान पर धीरे धीरे अधिक समय लेकर फेरमेंट होगा जान उतना ही अधिक बेहतर बनेगा। भोटिया जान इसी धीमी गती से फेरमेंट होने की प्रक्रिया के लिए प्रसिद्ध है।
- फेरमेंट होने के बाद मिश्रण को कपड़े/जाली से छान लिया जाता है। छना हुआ द्रव्य जान है जबकि बच्चा हुआ मिश्रण सेज कहलाता है जिसे लोग धूप में सुखाकर खाते हैं या जानवरो को खिलाते हैं।
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कच्ची बनाने की विधी
- कच्ची ज़्यादातर जौं से बनती है पर लोग मांडवा या चावल का भी इस्तेमाल करते। सबसे पहले इनमे से किसी भी अनाज को पानी में एक रात के लिए भिगोया जाता है।
- सुबह भीगे हुए अनाज को आधा-अधूरा पकाया जाता है और फिर उसे ठंढा होने के लिए छोड़ दिया जाता है।
- ठंढे अर्ध रूप से पके हुए अनाज में बलम को अच्छी तरह से मिलाया जाता है और फिर उस मिश्रण को एक मिट्टी के बर्तन में रखकर अच्छी तरह से बंद कर दिया जाता है ताकी उससे हवा अंदर-बाहर नहीं जा सके।
- इस मिश्रण को वातावरण के तापमान के अनुसार 3-7 दिनो तक किसी अंधेरे स्थान पर रख दिया जाता है ताकी मिश्रण अच्छी तरह से फेरमेंट हो जाए।
- फेरमेंट हो जाने के बाद पारम्परिक आसवन (Distillation) यंत्र (चित्र) में रखकर गर्म किया जाता है। गर्म होने पर मिश्रण से निकले भाप को पाइप के सहारे ठंढा करके द्रव्य के रूप में संग्रहित किया जाता है। जमा किया गया द्रव्य कच्ची/दारु है।
जान और कच्ची दोनो बनाना, बेचना और पीना तीनो दंडनीय अपराध है पर स्थानिये सम्पर्क होने पर आपको मिल सकता है। जहाँ अच्छी गुणवत्ता वाली कच्ची आपको 150-200 रुपए प्रति लीटर मिल जाएगा वहीं अच्छी गुणवत्ता वाली बर्फ़ में फेरमेंट हुई जान मिलना लगभग नामुनकिन है। स्थानिये तौर पर मुश्किल से उपलब्ध जान की क़ीमत भी लगभग 100-150 रुपए प्रति लीटर होती है।
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