जिस तरह से मणिपुर के पहाड़ में रहने वाले कुकी और तराई में रहने वाले मैती समाज के लोगों के बीच हिंसा हो रही है और हिंसा बेक़ाबू होते जा रही है क्या उसी तरह की हिंसा आगे आने वाले दशकों के दौरान उत्तराखंड में भी होने की सम्भावना है? सम्भवतः है, कैसे? आइए समझते हैं इन आठ बिंदुओं में।
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मणिपुर बनाम उत्तराखंड:
- पहला बिंदु, जिस तरह से मणिपुर के पहाड़ में रहने वाली लोगों का विकास तराई या मैदानी में रहने वाले लोगों की तुलना में बहुत कम हुआ है, न के बराबर हुआ है, उसी तरह की स्थिति उत्तराखंड के पहाड़ी और मैदानी ज़िलों में भी है, जहां उत्तराखंड के पहाड़ों में विकास न के बराबर हुआ है और सारा विकास देहरादून, हरिद्वार, ऊधम सिंह नगर और हल्द्वानी जैसे मैदानी भागों तक सीमित होता जा रहा है।
- दूसरा बिंदु, जिस तरह से मणिपुर में 60 में से 40 विधानसभा सीट मैदानी क्षेत्रों में है उसी तरह से उत्तराखंड में भी 70 में से 34 विधानसभा क्षेत्र उत्तराखंड के मात्र तीन मैदानी ज़िलों तक सीमित है। उत्तराखंड के तेरह में से दस पहाड़ी ज़िलों में मात्र 36 विधानसभा सीट हैं। पहाड़ी क्षेत्र का विधानसभा सीट हर परिसीमन के बाद 5 से 7 सीट कम होता जा रहा है और मैदानी क्षेत्र का विधानसभा सीट बढ़ता जा रहा है। इस तरह से पूरी सम्भावना है की 2026 में होने वाले परिसीमन के बाद पहाड़ के कुल विधानसभा सीटों की संख्या तीस तक कम हो सकती हैं और मैदानी क्षेत्र के विधानसभा सीटों की संख्या चालीस से भी अधिक हो सकती है।
- तीसरा बिंदु, जिस तरह से मणिपुर में हिंसा के कई कारणों में से एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि मणिपुर के मैदान में रहने वाले लोगों का पहाड़ में ज़मीन ख़रीदने का अधिकार माँग रहे हैं, उसी तरह उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में भी मैदान से लोग जाकर पहाड़ की ज़मीन ख़रीद रहे हैं जिसके ख़िलाफ़ पहाड़ के लोगों के बीच बहुत रोष है।
- चौथा बिंदु, जिस तरह से मणिपुर में म्यांमार से घुशपैठ का मुद्दा इस पूरे मणिपुर समस्या के केंद्र में बना हुआ है उसी तरह उत्तराखंड में भी मैदान से, और ख़ासकर बांग्लादेश या हिंदुस्तान के अन्य मैदानी इलाक़ों से, आकर मुसलमानों का पहाड़ में बसना पहाड़ में तनाव पैदा कर रहा है।
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- पाँचवाँ बिंदु, जिस तरह से मणिपुर में ज़्यादातर हिंदू आबादी मैदानी क्षेत्रों में रहते हैं और ज़्यादातर ईसाई आबादी पहाड़ी क्षेत्रों में रहते हैं उसी तरह उत्तराखंड में भी ज़्यादातर मुस्लिम आबादी मैदानी क्षेत्र में रहते हैं और ज़्यादातर हिंदू आबादी पहाड़ी क्षेत्रों में रहते हैं। इस तरह से पहाड़ और मैदान के बीच मणिपुर और उत्तराखंड दोनो में एक धार्मिक विभाजन है जो ख़तरे कि घंटी बजाने के लिए काफ़ी है।
- छठा बिंदु, जिस तरह से ज़मीन ख़रीदने और बेचने का अधिकार का मुद्दा मणिपुर समस्या के केंद्र में बना हुआ है उसी तरह उत्तराखंड में भी पिछले एक दशक से भू-क़ानून उत्तराखंड की राजनीति और चुनाव का मुख्य मुद्दा बना हुआ है।
- संतवा बिंदु, जिस तरह से मणिपुर के पहाड़ों में अफ़ीम का उत्पादन कई कारणों में से एक महत्वपूर्ण कारण है, जिसके कारण पहाड़ के लोगों का न सिर्फ़ मैदान के लोगों के साथ मतभेद बढ़ते हैं बल्कि सरकार के साथ भी इस मुद्दे पर मतभेद और मुटभेड़ पिछले कुछ वर्षों से बढ़ते जा रहें हैं। ठीक इसी तरह उत्तराखंड के पहाड़ों में भी गाँजा, चरस और कीड़ा जड़ी की अवैध बिक्री धीरे धीरे मुद्दा बनता जा रहा है। मैदान के लोगों को यह लगने लगा है कि उनके बच्चे चरसख़ोर और गंजेडी पहाड़ से आने वाले गाँजे और चरस के कारण होते जा रहे हैं। आगे आने वाले समय में इस मतभेद, और मनभेद के मुटभेड में बदलने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।
- आख़री और आठवाँ बिंदु, दोनो राज्यों में यानी की मणिपुर और उत्तराखंड में समानता तो और भी बहुत है, लेकिन एक आख़री समानता, जो आज के इस “फटाफट चीर-फाड़” एपिसोड का हिस्सा हो सकती है वो ये है कि दोनो जगह भाजपा की सरकार है। दोनो जगह की भाजपा सरकार ने मणिपुर और उत्तराखंड के धार्मिक गुटों के बीच विभेदकारी नीतियाँ अपनाई है। पिछले एक साल में उत्तराखंड में वन क़ानून और अतिक्रमण के नाम पर उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने सैकड़ों मज़ार, और मस्जिद तोड़ दिए हैं। ऐसे ही मणिपुर में भी वहाँ की भाजपा सरकार वन-क़ानून के नाम पर पहाड़ में रहने वाले ईसाई धर्म के लोगों का गाँव-का-गाँव उजाड़ दे रही है।

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