टेहरी के पाल राजाओं को ‘श्री 108 बस्दरिसचर्या-प्रयाण गढ़राज महिमहेंद्र, धर्मबैभव, धर्म रक्षक सिरमणि’ की उपाधी हासिल थी। आगे चलकर पंवार (Panwar) रज़ाओं ने ‘बोलंद बद्रीनाथ’ (Speaking Badrinath) नमक उपाधी भी हासिल किया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरन गढ़वाली सैनिक ‘जय बद्री विशाल’ के साथ-साथ ‘बोलंद बद्रीनाथ’ का भी नारा लगाते थे। गढ़वाल के राजा की गद्दी (सिंहासन) को ‘बद्रीनाथ का सिंहासन’ कहकर सम्बोधित किया जाता था और राजा इसी नाम से शपथ भी लिया करते थे।
उन्निसवी सदी के अंत तक तीर्थयात्री बद्रीनाथ मंदिर जाने से पहले राजा के दरबार में भी आभार व्यक्त करने जाते थे और मंदिर के पुजारी तीर्थयात्रियों से राजा के जन्मदिन के अवसर पर राजा का जन्मदिन मनाने का भी आग्रह करते थे। पुजारियों और तीर्थयात्रियों को भगवान के साथ-साथ राजा की भी साधना करनी पड़ती थी। बद्रीनाथ मंदिर और गढ़वाल राजा के बिच इसी सामंजस्यपूर्ण शासन व्यवस्था को पहाड़ों में ‘श्री 108 सरकार’ कहा जाता था।
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सरकार और मंदिर:
पहाड़ के पाल राजा कनक पाल ने आदि शंकर को बद्रीनाथ मंदिर निर्माण में मदद किया और मंदिर के संचालन के लिए मंदिर को कुछ गाँव (कर) दान में दिया जिसे गुंठ गाँव भी कहते हैं। बद्रीनाथ की यात्रा पर आने वाले यात्रियों के रहने और उनके भोजन के लिए यात्रामार्ग पर सुविधा उपलब्ध करवाने के लिए कुछ गाँव जिन्हें सदाबर्त गाँव कहा जाता था वो भी बद्रीनाथ मंदिर को आवंटित किए गए।
1815 में पहाड़ों पर ब्रिटिश शासन प्रारम्भ होने के बाद बद्रीनाथ मंदिर और मंदिर के आस-पास का क्षेत्र ब्रिटिश गढ़वाल में आ गया और टेहरी के राजा का उक्त क्षेत्र पर प्रभाव कम होने लगा। बद्रीनाथ मंदिर के आसपास के क्षेत्र पर राजा के प्रभाव घटने के कारण राजा का प्रभाव मंदिर और मंदिर संचालन व्यवस्था पर भी कम होने लगा। राजा नरेंद्र शाह ने अंग्रेजों से बद्रीनाथ मंदिर परिसर का चार वर्ग मील क्षेत्र के बदले मसूरी और भारत-तिब्बत सीमा का सात सौ वर्ग मील क्षेत्र अंग्रेजों को देने के लिए तैयार हो गए।
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पर चुकी बद्रीनाथ मंदिर नीती-माणा व्यापारिक मार्ग पर था इसलिए ब्रिटिश सरकार ये क्षेत्र किसी भी क़ीमत पर राजा को देने को तैयार नहीं हुए। वहीं दूसरी तरफ़ मंदिर के पुजारी और पांडुकेश्वर ग्राम में रहने वाले मंदिर के अन्य हक़-हकूकधारियों को यह अवसर दिखा मंदिर संचालन में राजा के वर्चस्व को खत्म करने का। राजा को न तो मंदिर परिसर मिला और न ही मंदिर परिसर के आसपास के गाँव जिसके भू-कर से मंदिर का खर्चा चलता था।

श्री 108 क्यूँ?
इस तरह ‘श्री 108 सरकार’ धीरे-धीरे टेहरी के राजा तक संकुचित होने लगे। लोगों में राजा की दैविए स्वीकार्यता कम होने लगी, तीर्थयात्री मंदिर जाने से पहले राजा के दरबार में कम जाने लगे और तीर्थयात्रियों व पुजारियों द्वारा राजा का जन्मदिन भी मनाने की प्रथा भी उन्निसवी सदी के अंत तक खत्म हो गई। चूँकि ‘श्री 108’ हिंदू धर्म के साहित्यों में हमेशा से भी शुभ और पवित्र व आध्यात्मिक समझा जाता रहा था इसलिए टेहरी के राजा के लिए अपनी उपाधियों के साथ ‘श्री 108’ शब्द का जोड़ना उनकी जनता के बिच आध्यात्मिक स्वीकारित को बढ़ाता था।
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