शीर्षक: ‘दास्तान ए हिमालय’
लेखक: Shekhar Pathak
प्रकाशन का वर्ष: 2021
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पद्मश्री सम्मान से सम्मानित, हिमालय पर लिखे कई किताबों के लेखक, पहाड़ निवासी, पर्यावरणविद, यात्री और आंदोलनकारी, PAHAR के संस्थापक, हिमालय पर कई किताबों के लेखक, शेखर पाठक (Shekhar Pathak), उत्तराखंड और हिमालय के सर्वोत्तम इतिहासकारों में से एक है।
एक ही किताब में सब कुछ और हर छोटी-बड़ी जानकारी समाहित करने के चक्कर में पहले से पहाड़ के जानकार पाठकों को यह किताब बहुत जगहों पर अनावश्यक रूप से बड़ा होता दिखेगा, वहीं जो पाठक पहाड़ के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं उन्हें कई स्थानो पर यह किताब पहेलियों में कहानियाँ बुझाता हुआ प्रतीत होगा। उदाहरण के तौर पर कैसे हिमालय टेथिस सागर के स्थान पर प्रतिदिन तिब्बत के पठार के साथ संघर्ष करते हुए लगातार अपनी ऊँचाई बढ़ाता जा रहा है ये बच्चे मध्यामिक विद्यालय से पढ़ते आ रहे हैं।
इस किताब की ख़ासियत भी यही है कि इस किताब में सभी के लिए कुछ न कुछ है। इतिहास के छात्र से शिक्षक व शोधकर्ता तक, पर्यावरणविद् से आंदोलनकारी तक, पत्रकार से पंडित तक, पर्वतारोही (यात्री) से लेकर धर्म-संस्कृति में रुचि रखने वालों सभी वर्ग के लोगों के लिए यह किताब कुछ न कुछ रोचक जानकारियों से भरा हुआ है।
पिछले तीन वर्षों में Shekhar Pathak की उत्तरखंड के इतिहास पर यह तीसरी किताब है। 2019 में ‘हरी भरी उम्मीद’, 2020 में ‘The Chipko Movement’ और इस वर्ष 2021 में यह किताब (‘दास्तान ए हिमालय’)। अगर अपने इनकी पुरानी दोनो किताब पढ़ ली है तो कसी जगहों पर ये किताब आपको जल्दी जल्दी पन्ने पलटने को मजबूर कर सकता है। हालाँकि पहले दो किताब का केंद्र इस किताब से अलग है। ख़ासकर चिपको आंदोलन को इस किताब में जगह नहीं मिली है।

दो भागो में विभाजित यह किताब Shekhar Pathak द्वारा 1979 से 2016 के बीच लिखे गए अनेक छोटे लेखों का संग्रह है जो पहले भी कई जगहों पर लेख के रूप में छाप चुके हैं। हालाँकि दोनो ही खंड में उत्तराखंड किताब के केंद्र में है पर पहले खंड में उत्तराखंड से किताब बाहर निकालकर कश्मीर से लेकर तिब्बत और उत्तर-पूर्व तक जाता है।
पहले खंड का पहला दो अध्याय हिमालय के जन्म से मध्य काल का इतिहास और हिमालय की उपयोगिता पर केंद्रित है। तीसरा अध्याय अंग्रेज़ी काल द्वारा हिमालय के साथ आधुनिकता के प्रयोग की कहानी है। चौथा, पाँचवें, और छठे अध्याय हिमालय के तीन प्रमुख व्यक्तियों (चंद्र सिंह गढ़वाली, राहुल संक्रित्यान, और गांधी जी) की चर्चा करने के सहारे स्वतंत्र भारत में प्रवेश करता है।
नैन सिंह रावत को Shekhar Pathak भूल जाते हैं क्यूँकि नैन सिंह रावत के ऊपर लेखक ने बहुत पहले ही पूरी किताब लिख चुके हैं। सरला बहन चिपको आंदोलन की पहली कड़ी थी, पर चुकी Shekhar Pathak पिछले वर्ष ही चिपको आंदोलन पर एक पृथक किताब लिख चुके थे इसलिए इस किताब की इतिहास की यात्रा यहीं समाप्त हो जाति है और आठवें अध्याय में उत्तराखंड की भाषा के ऊपर बात होती है और फिर नौवाँ अध्याय कैलास-मानसरोवर क्षेत्र के संस्कृति के ऊपर।
“पद्मश्री से सम्मानित हैं pahar.org के संस्थापक Shekhar Pathak”
किताब दूसरे खंड थोड़ा बिखरा हुआ प्रतीत होता है। पहला अध्याय उत्तराखंड के राजनीतिक इतिहास केंद्रित करता है, दूसरा इतिहास लेखन का अवलोकन करता है, तीसरा राज्य में सभी सामाजिक आंदोलनो को एक माले में पिरोने का प्रयास करता है फिर चौथा अध्याय उदाहरण के तौर पर उनमे से एक आंदोलन (कूली बेगार आंदोलन) का अवलोकन करने वापस पीछे जाता है। आंदोलन के अवलोकन को पुख़्ता करने के लिए टिहरी राजा के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन पाँचवें अध्याय के केंद्र में है।
छठे अध्याय में पहली बार Shekhar Pathak पहाड़ के लोगों की उनकी जातिगत और सामंती भावना के लिए आलोचना करता है पर इसके लिए भी प्रदेश की जातिगत संरचना को कम और बाहरी ताक़तों के प्रभाव को अधिक ज़िम्मेदार ठहराते हैं। बाहरी ताक़तों को ज़िम्मेदार ठहराने का सिलसिला सातवें अध्याय में भी जारी रहता है जहां 1980 के दशक के ‘नशा नहीं रोज़गार दो आन्दोलन’ का अवलोकन किया जाता है। इस आंदोलन के दौरान किस तरह से उत्तर प्रदेश सरकार को विलेन बनाया जाता है ये जग-ज़ाहिर है। आठवाँ और आख़री अध्याय उत्तराखंड में खेति और पर्यावरण के बीच बदलते सम्बन्धों पर केंद्रित है।
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बेहतर होता कि लेखक Shekhar Pathak ‘पृथक राज्य आन्दोलन’ और उसकी समीक्षा के साथ इस पुस्तक को ख़त्म करते। हिंदुस्तान का एक-मात्र राज्य जिसकी स्थापना पहाड़ी और हिमालयी पहचान के साथ हुई उसे किताब से परे रखकर कैसे कोई ‘दास्तान ए हिमालय’ सुने या सुनाए। हिमालयी पहचान के साथ बनाई गई उत्तराखंड में हिमालय/पहाड़ आज ख़ाली हो रहा है, हिमालय भूतिया हो रहा है। प्रदेश का दस प्रतिशत से अधिक हिमालयी गाँव पूरी तरह से ख़ाली (भूतिया) हो चुका है। इसी तरह के कई अन्य मुद्दों पर किताब सफ़ाई से बचकर निकलने का प्रयास करता है जैसे ‘पेड़ काटो आंदोलन‘।
Shekhar Pathak जैसे जैसे 1970 के दशक में किताब को प्रवेश करवाता है वैसे वैसे भावुक होता चला जाता है और Shekhar Pathak इतिहासकार/बुद्धिजीवी कम एक आंदोलनकारी के रूप में किताब लिखने लगता है। लेखक इतिहासकार के साथ साथ इसी 1970 के दशक से उत्तराखंड में होने वाले लगभग सभी आंदोलनो में प्रखर आंदोलनकारी के रूप में अहम भूमिका निभाते रहें है। फिर चाहे वो चिपको हो या ‘शराब नहीं रोज़गार दो’ आंदोलन या फिर ‘पृथक उत्तराखंड राज्य आंदोलन हो’। इन सबके बीच लेखक जिस आत्मीयता और भावनात्मक होकर यह किताब लिखता है वो हिमालय और पहाड़ प्रेमियों को कई जगहों पर भावनात्मक कर सकता है।
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