कश्मीर में हिंदू आरक्षण:
वर्ष 1968 तक जम्मू और कश्मीर में मुस्लिम के लिए 50% आरक्षण था। बाक़ी 40% जम्मू के ग़ैर-ब्राह्मण हिंदुओं के लिए और 10% वहाँ के कश्मीरी पंडितों के लिए आरक्षित हुआ करता था। लेकिन वर्ष 1968 में इस आरक्षण व्यवस्था को प्रदेश की उच्च न्यायालय और देश की सर्वोच्च न्यायालय दोनो ने निरस्त कर दिया। (स्त्रोत)
इसे बाद जम्मू और कश्मीर की सरकार ने वर्ष 1969 में जस्टिस जे एन वज़ीर की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग समिती बनाई जिसके रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने प्रदेश में आरक्षण का नियम बनाया। वर्ष 1971 से लागू नए आरक्षण नीती में 8% आरक्षण दलितों को दिया गया और 42% OBC को। मात्र 8 प्रतिशत आरक्षण मिलने से प्रदेश का दलित समाज नाखुश था और इस कारण सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से सरकार के फ़ैसले को निरस्त कर दिया।
वर्ष 1976 में सरकार ने फिर से डाक्टर ए एस आनंद के नेतृत्व में मामले के हल के लिए एक समिती बनाई। समिती ने अपने रिपोर्ट में दलित को 8%, गुज्जर और बकीर्वाल को 4%, अन्य पिछड़ों को 2%, लेह में रहने वालों को 2%, कारगिल में रहने वालों को 2%, राज्य में अन्य पिछड़े क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को 20%, लाइन और कंट्रोल के पास रहने वालों के लिए 3%, स्वतंत्रता सेनानियों को 2%, सेना के बच्चों को 3%, और खिलाड़ियों के लिए 3% आरक्षण का सुझाव दिया।
जम्मू कश्मीर में दलित आरक्षण:
चुकी आज़ाद हिंदुस्तान में जम्मू और कश्मीर राज्य को सर्वाधिक स्वायत्ता थी जिसके कारण भारतीय संविधान का बहुत कम हिस्सा वहाँ लागू होता था। जम्मू और कश्मीर राज्य का पृथक संविधान था जिसके आरक्षण सम्बन्धी क़ानून भी भारत के क़ानून से भिन्न था। जम्मू और कश्मीर में दलितों को आरक्षण का अधिकार दिलवाने के लिए प्रयास वर्ष 1946 से ही प्रारम्भ हो गया था जब वर्ष 1946 में प्रदेश के हरिजन मंडल ने किर्पिंड गाँव में दलित सम्मेलन का आयोजन किया था।
कश्मीर का भारत में विलय के बाद वर्ष 1956 में दलित नेता बाबू मिलखि राम के नेतृत्व में कठुआ ज़िले में भी दलित आरक्षण और भूमि-स्वामित्व की माँग के लिए 17 दिनों तक भूख हड़ताल किया गया। इसी तरह जम्मू के दलित नेता बघत अमरनाथ ने भी दलितों को आरक्षण के लिए एप्रिल 1970 में करण पार्क में भूख हड़ताल किया। इस भूख हड़ताल के दौरान बघत अमरनाथ की मौत के बाद जम्मू और कश्मीर की सरकार ने मजबूर होकर प्रदेश में दलितों के लिए 8 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया।
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पिछड़ा क्षेत्र और आरक्षण:
वर्ष 1971 में दलितों को प्रदेश में आरक्षण मिलने के बाद क्षेत्रीय पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण की माँग जम्मू और कश्मीर में बढ़ने लगी। वर्ष 1984 में प्रदेश के 18 प्रतिशत पिछड़े क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को 2 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा किया गया। यह आरक्षण वर्ष 1995 तक बढ़कर 20 प्रतिशत तक हो गया जबकि प्रदेश में पिछड़े क्षेत्रों का अनुपात वर्ष 1984 में 10 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2019 में 42 प्रतिशत हो गया।
क्षेत्रिये पिछड़ेपन के आधार पर किसी विशेष पिछड़े क्षेत्र को आरक्षण देने का प्रावधान देश के संविधान में पहले से ही शामिल है। इसी आधार पर उत्तराखंड राज्य में भी प्रदेश के कुछ क्षेत्रों को OBC क्षेत्र घोषित किया गया है जबकि उत्तराखंड में OBC आरक्षण जाति के आधार पर लागू नहीं किया गया है।
नए कश्मीर में आरक्षण:
वर्ष 2019 में जब भारत सरकार ने जम्मू और कश्मीर का विभाजन किया प्रदेश की संवैधानिक स्वायत्ता पर अंकुश लगाने का प्रयास किया तो प्रदेश में पिछड़े क्षेत्रों को मिलने वाले 20 प्रतिशत आरक्षण को घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया। इसके अलावा प्रदेश में अब दस प्रतिशत आर्थिक पिछड़ों को भी आरक्षण दिया जा रहा है। प्रदेश में अब कुल 60 प्रतिशत आरक्षण लागू है जो वर्ष 2019 से पहले तक 52 प्रतिशत था। (स्त्रोत)
वर्ष 2019 में भारत सरकार द्वारा जम्मू और कश्मीर को दो भागों में विभाजित करने और वहाँ राष्ट्रपती शासन लगाने के बाद बड़े बदलाव किए जा रहे हैं। प्रदेश की आरक्षण नीति पर भी इसका दूरगामी प्रभाव पड़ने के पूरे आसार है। देश के गृह मंत्री ने पहाड़ी भाषा बोलने वाले समाज को पहले ही प्रदेश की अनुसूचित जनजाति में शामिल करने और 14 अन्य जातियों को आरक्षण में शामिल करने की घोषणा कर चुके हैं।

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