रथ यात्रा भारत के हिंदू संगठनों की अलग पहचान है। लेकिन उससे पहले महात्मा गांधी की दंडी यात्रा और चीन में माओ का लॉंग मार्च विश्व के इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक यात्राओं में से एक जिसने उक्त देश की पहचान को बदल दिया। गांधी की दंडी यात्रा को विश्व के लगभग सभी देशों की मीडिया ने प्रमुखता के साथ छापा। गांधी और माओ के प्रति विरोध की भावना ने सम्भवतः आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद को यात्राओं के राजनीतिक महत्व से दूर रखा। लेकिन 1980 का दशक आते आते संघ यात्रा के राजनीतिक महत्व को पहचान चुकी थी।
एकत्मता यात्रा:
नवम्बर-दिसम्बर 1983 में RSS ने एकत्मता यात्रा का आयोजन किया। इस रथ यात्रा को तीन भागों में बाटा गया जिसका एक भाग हरिद्वार से प्रारम्भ हुआ, दूसरा नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर और तीसरा पश्चिम बंगाल के गंगासागर से प्रारम्भ होना तय हुआ। तीन यात्रा को RSS के मुख्य कार्यालय नागपुर में मिला था। नागपुर के बाद हरिद्वार से प्रारम्भ होने वाली यात्रा तमिलनाडु के रामेश्वरम तक जानी थी, नेपाल से शुरू होने वाली कन्याकुमारी तक, और गंगासागर से शुरू होने वाली सोमनाथ तक जाना तय था। इन तीन मुख्य यात्राओं के अलावा 89 अन्य लघु-यात्राएँ भी इस दौरान स्थानीय स्तर पर हुई।
इस रथ यात्रा में संघ परिवार के अलावा आर्य समाज, रोटरी क्लब, लाइयन क्लब, जैन सम्प्रदाय, वैष्णव परिवार, सिख परिवार, बुद्धा सम्प्रदाय और भारतीय दलित वर्ग संघ ने भी हिस्सा लिया। इस यात्रा के तीनों विंग ने समग्र रूप से लगभग 85 हज़ार किमी की दूरी तय की और इसमें तक़रीबन छः करोड़ लोगों ने हिस्सा लिया। यात्रा को इस तरह से आयोजित किया गया कि अधिकतम संख्या में धार्मिक स्थलों पर यात्रा का विराम हो।
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इस रथ यात्रा के दौरान भारत माता के एक चित्र के अलावा गंगाजल का कलश भी यात्रा के साथ साथ चला। इसके अलावा यात्रा के दौरान धार्मिक किताबों, भारत माता के कैलेंडर, स्टिकर, कंगन, आदि का बिक्री स्टाल भी लगाया गया। इस यात्रा की सफलता के बाद विश्व हिंदू परिषद ने दिल्ली में आयोजित एक धर्म सांसद के बाद अंततः अप्रैल 1984 में पहली बार राम जन्मभूमि की मुक्ति योजना का आग़ाज़ किया। इस धर्म संसद में यह भी तय किया गया कि अयोध्या को मुक्त करवाने के बाद संघ मथुरा और काशी के ऐसे हिंदू मंदिरों का पुनः निर्माण करवाएगी जिसे मुस्लिम शासकों ने नष्ट कर दिया था।
राम-जानकी रथ यात्रा:
इस धर्म संसद के बाद कारसेवकों का एक यात्रा भी प्रारम्भ हुआ जो सितम्बर 1984 में बिहार के सीतामढ़ी से प्रारम्भ होकर अक्तूबर में अयोध्या तक जाना था। इस यात्रा के दौरान रथ पर कारावास में बंद भगवान राम का एक चित्र यात्रा के साथ घूमना प्रारम्भ हुआ। लेकिन 31 अक्तूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद इस यात्रा को बीच में ही रोकना पड़ा। यात्रा के राजनीति महत्व पहचान चुकी संघ परिवार ने अगले वर्ष 1985 में पुनः एक अन्य यात्रा का आयोजन किया जिसका नाम रखा गया ‘राम-जानकी रथ यात्रा। इसके बाद संघ-भाजपा की राजनीति में यात्राओं की बाढ़ सी आ गई।
1990 के दशक दौरान लाल कृष्ण आडवाणी की प्रसिद्ध रथ यात्रा के आलावा कई अन्य यात्राएँ भी हुई जो उतना अधिक प्रचलित नहीं हो पाया। उदाहरण के लिए वर्ष 1995, 1996, और फिर 2005 में विश्व हिंदू परिषद ने 1983 की यात्रा की तरह तीन अलग अलग एकत्मता रथ यात्रा का आयोजन किया जिसे तीर्थ यात्रा की तरह आयोजित किया गया। आज भी देश के विभिन्न स्थानो पर समय समय पर स्थानीय स्तर पर राम-जानकी रथ यात्राओं का आयोजन होते रहता है।
दोहराता इतिहास:
उपरोक्त सभी संघ के रथ यात्राओं में एक समानता थी कि कोई भी यात्रा पदयात्रा नहीं थी। सभी यात्राएँ गाड़ी-घोड़े और रथ पर चली थी। पिछले एक वर्षों के दौरान भाजपा-संघ ही नहीं देश की राजनीति में एक बार फिर से धर्म-संसद, यात्रा और उसके साथ बिहार महत्वपूर्ण हो गया है। लोकसभा चुनाव के दो वर्ष पहले पिछले वर्ष (2022) अक्टूबर में भाजपा ने बिहार में धर्म सांसद का आयोजन किया। ठीक उसी तरह से जिस तरह से 1985 के चुनाव के ठीक दो वर्ष पहले 1983 में VHP ने बिहार में धर्म सांसद के बाद बिहार-अयोध्या यात्रा प्रारम्भ किया था।
जिस तरह से 2024 के चुनाव से पहले राम मंदिर का मुद्दा के समानांतर में बिहार के कुछ विपक्ष की पार्टियों (JDU) द्वारा वल्मीकिंगर में सीता माता के मंदिर के मुद्दे तो तूल दिया जा रहा है उसी तरह 1980 के दशक के दौरान बिहार के किसान मज़दूर मंच ने सीतामढ़ी और पुनौरा में स्थित जर्जर हालत में पड़ी दो जानकी मंदिर के लिए आंदोलन करने का प्रयास किया था।
इसी तरह अक्तूबर 1990 में भी सीतामढ़ी ज़िले के स्वतंत्रता सेनानी संगठन के अध्यक्ष राज किशोर शर्मा संघ द्वारा सीतामढ़ी को इग्नोर करने का आरोप लगाने लगे। इन लोगों ने ‘जय श्री राम’ के नारे में सीता के नहीं होने पर भी आपत्ति जताई लेकिन संघ ने इन आरोपों पर कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं दिया।
लेकिन 1980 के दशक के विपरीत इस बार बिहार संघ-भाजपा के लिए थोड़ा अधिक परेशान का रहा है। राहुल गांधी की सफल ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद पिछली बार की विपरीत इस बार संघ के लिए कोई धर्म-यात्रा करना मुश्किल है। लेकिन वर्ष 1983 में ही भावी प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कन्यकुमारी से दिल्ली तक की सफल पदयात्रा किया था इसके बावजूद संघ की यात्रा अपने तरीक़े से सफल रही। सम्भवतः राजनीति में यात्रा का महत्व सिर्फ़ प्रचार नहीं बल्कि आत्ममंथन अधिक होता है जो आगे कि राजनीति का रास्ता साफ़ करने में मदद करता है। सम्भवतः यही कारण है कि राहुल गांधी की सफल भारत जोड़ो यात्रा की सफलता के बावजूद प्रशांत किशोर बिहार में लम्बी पदयात्रा कर रहे हैं।

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