HomeEnvironmentकौन से घास के मैदान गढ़वाल (उत्तराखंड) में सर्वाधिक प्रसिद्ध थे?

कौन से घास के मैदान गढ़वाल (उत्तराखंड) में सर्वाधिक प्रसिद्ध थे?

घास के मैदान:

रामगंगा नदी के 10-12 मिल दोनो तरफ़ 1-2 मिल की चौड़ी पट्टी का हिस्सा जहाँ घास के मैदान थे जिसे पतली दून बोला जाता था। रामगंगा घाटी के आस पास उगने वाले इस ख़ास तरह के घास को चौरस घास कहा जाता था। ये घास बहुत लम्बे होते थे। छोटे छोटे घास के इन मैदानो को खरक कहते थे और दूधाटोली में स्थित इनके समूह को दूधाटोली का घास का मैदान कहा जाता था। यहाँ गर्मी के मौसम में भी घास खत्म नहीं होते थे। पर अब ये घास के मैदान सूखते जा रहे हैं।

माना जाता था कि जब पहाड़ के सभी भागों में घास खत्म या सुख जाते थे तब भी दूधाटोली के घास हरे भरे रहते थे। इन लम्बे घास की जड़ें क्षेत्र की मिट्टी की ना सिर्फ़ नमी बचा कर रखती है बल्कि इन घास के मैदानों से ही छोटी छोटी जल की धाराएँ भी निकलती है जो पश्चमी रामगंगा, नयार और अतगाड नदी का निर्माण करती है। पश्चमी रामगंगा नदी उन विरले नदियों में से एक थी जिसका उद्ग़म स्थल किसी ग्लेशियर में न होते हुए भी पूरे वर्ष प्रवाहित रहती है जिसमें इन बड़े बड़े घास के मैदानों का सर्वाधिक योगदान है। पर अब ये नदी भी गर्मी में सुख जाती है।

घास के मैदान
चित्र: दूधाटोली के प्रमुख खरक (घास के मैदान), स्त्रोत: Down To Earth

दानपूर और भदानगढ़ी क्षेत्र के चारगाहों के बारे में ये कहावत प्रचलित थी कि वहाँ जानवर जितने घास दिनभर में खाते थे उतने घास रात-भर में नए उग जाते थे। भोटिया चरवाहों का समूह यहाँ से घास ख़रीदने आया करते थे। इसी तरह चोखम और कोहतरी दून जो पतली दून के पश्चिम में है, कालांतर में जहाँ से घास का निर्यात मैदानों में भी होता था। इसी तरह बेदनी और बद्रीनाथ का चारागाह मैदान (बुग्याल) भी प्रसिद्ध था। 

दसजयूलि और दसोलि मल्ली के लोग बारिश के मौसम के तुरंत बाद अपने जानवरों के साथ ऊपर लगभग दस हज़ार फुट तक ऊँचाई तक चले जाते थे जबकि उनके गाँव के आसपास के घास को काटकर पेड़ों के ऊपर संरक्षित रखा जाता था। अक्तूबर में गाँव के आसपास के संरक्षित घास को काटकर संग्रहित कर लिया जाता था क्यूँकि नवम्बर से बर्फ़बारी शुरू हो जाती थी। 

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चित्र: दूधाटोली के खरक में घास चरते पशु।

घास-मैदान के दावेदार:

वर्ष 1840 के दशक के दौरान जब जंगल की ठेकेदारी ब्रिटिश सरकार ने पूँजीपतियों (ठेकेदार) को देना प्रारम्भ किया तो उन्होंने पेड़ों के बेहतर वृद्धि के उद्देश्य से घासों को जलाना प्रारम्भ कर दिया जिससे स्थानिये लोगों को चारे की कमी होने लगी। स्थानिये लोगों और जंगल के ठेकेदारों के बीच बढ़ते झड़प के बीच ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1854 में आंशिक और वर्ष 1865 में जंगल संरक्षण पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया। 

इसे भी पढ़े: ‘घास-घसियारी’: पहाड़ी कहावतों के आइने से

लैंसडाउन में स्थित सेना कंटोलमेंट में उगे घास को काटने वाले स्थानिये लोगों से पैसे लिए जाते थे। वर्ष 1908 में कंटोलमेंट के कुल आय का दस प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा उसकी सीमा में उगने वाले फल और घास से हुआ था। चारे के रूप में जंगली घास के अलावा भयूनल के पत्ते और पराली का भी इस्तेमाल होता था। नमक यहाँ के जानवरों को बहुत कम दिया जाता था। 

पहाड़ के घास हमेशा से पहाड़ी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हुआ करती थी। चुकी पहाड़ी अर्थव्यवस्था बहुत हद तक पहाड़ी महिलाओं के कंधों पर टिकी हुई है इसलिए पहाड़, घास, घास के मैदान और पहाड़ी अर्थव्यवस्था के बीच हमेशा से गहरा सम्बंध रहा है। इन सम्बन्धों को लेकर कई पहाड़ी कहावतें और किद्वंतियाँ भी प्रचलित है।

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चित्र: वाण गाँव में बर्फ़ गिरने से पहले नवम्बर महीने में घास काटकर लाती एक महिला।

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Sweety Tindde
Sweety Tinddehttp://huntthehaunted.com
Sweety Tindde works with Azim Premji Foundation as a 'Resource Person' in Srinagar Garhwal.
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