लेखक: Harold Wiliam Tilman (1898–1977)
प्रकाशनवर्ष: 1937
हिंदुस्तान का सर्वाधिक ऊँचा हिमालय शिखर नंदा देवी (Nanda Devi)। हालाँकि कनचंजंगा को सर्वाधिक ऊँचा माना जाता है लेकिन कंचनजंगा पूरी तरह हिंदुस्तान में नहीं बल्कि उसका कुछ हिस्सा नेपाल में भी पड़ता है। नंदा देवी की ख़ूबसूरती को लेकर नेहरू से लेकर कई पश्चमी विद्वानों ने इसकी तुलना विश्व की सर्वाधिक खूबसूरत चोटीयों से की है।
वर्ष 1936 से पहले नंदा देवी पर्वत शिखर तक पहुँचने के कई प्रयासों के बावजूद कोई नहीं पहुँच पाया था। इन प्रयासों में 1905 का मिलाम (कुमाऊँ) की तरफ़ से लॉंग्स्टैफ़ का प्रयास भी शामिल है। वर्ष 1934 में लेखक और Eric Shipton ने ऋषिगंगा वैली होते हुए नंदा देवी तक पहुँचने का रास्ता तो ढूँढ लिया था पर चोटी तक पहुँच नहीं पाए थे।
यह किताब उस दौर में सर्वाधिक खूबसूरत, सर्वाधिक कठिन और सर्वाधिक ऊँची पर्वत चोटी पर पहुँचने की रोमांचक यात्रा वृतांत है। 1936 में जब लॉंग्स्टैफ़ को टेलीग्राम से सूचना दी गई कि ‘दो लोग चोटी पर पहुँच गए’ तो उन्हें पहली बार में विश्वास नहीं हुआ था। उस टेलीग्राम में उन आठ लोगों (चार अमरीकी और चार ब्रिटिश) की टीम में से दो पर्वतारोहियों के नाम नहीं लिखे हुए थे जो चोटी तक पहुँचे थे। वो दो नाम थे टिल्मन (Tilman) और नोअल ओडेल (Noel Odell)।
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नंदा देवी (Nanda Devi) शिखर तक पहुँचना इसलिए भी मुश्किल था क्यूँकि स्थानीय लोग (भारवाहक/कूली/दूटियाल) नंदा देवी की यात्रा पर विदेशी पर्वतारोहियों के साथ जाने के लिए किसी भी क़ीमत पर तैयार नहीं होते थे। आज भी स्थानीय लोगों में मान्यता है कि नंदा देवी तक पहुँचने का प्रयास करने वाला कोई वापस लौटकर नहीं आ सकता है। यही कारण है कि रूपकुंड से नंदा देवी राज जात यात्रा वापस आ जाती है।
“नंदा देवी (Nanda Devi) शिखर तक पहुँचना सर्वाधिक कठिन पर्वतारोहण में से एक था”
इस समस्या से निजात पाने के लिए टिल्मन की टीम ने सिक्किम और नेपाल से चार शेरपा जनजाति के स्थानीय लोगों को अपने साथ लाए थे।शेरपा मूलतः नेपाल, भूटान, सिक्किम आदि हिमालय के उच्च स्थानो पर रहने वाली तिब्बती जनजाति है जो ज़्यादातर नेपाल के पूर्वी भाग में रहते हैं। ये जनजाति अपने पर्वतारोही क्षमता के लिए प्रसिद्ध है।

रूपकुंड से आगे शेरपा और माणा के भारवाहक ही पर्वतारोहियों का सामान ढ़ोने में साथ दे पाते हैं। चोटी तक पहुँचने से पहले माणा के भारवाहक भी टीम का साथ छोड़ देते हैं और लेखक टिल्मन का साथ सिर्फ़ शेरपा लोग ही देते हैं। आख़री डेढ़-दो किलोमीटर का रास्ता नोअल ओडेल और टिल्मन अकेले तय करते हैं।
यह यात्रा वृतांत इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि वृतांत में स्थानीय भार-वाहकों (शेरपा /कुली /बहादुर) को किताब में सम्माजनक स्थान दिया गया है। किताब में इन भार-वाहकों का वर्णन बार-बार चित्रों के साथ मिलता है। लेखक का स्थानीय भारवाहकों के साथ मधुर सम्बंध थे और यही कारण है कि पूरी यात्रा के दौरान सभी भारवाहकों के साथ समन्वय बनाने की ज़िम्मेदारी लेखक की थी।
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किताब का आधा भाग ऋषि गंगा ग्लेशियर पहुँचने की कहानी है। किताब का मानचित्र और फ़ोटो इसे और रोमांचक बना देता है। आगे चलकर Shipton ने भी इसी यात्रा के आधार पर एक अन्य किताब लिखी है जिसकी समीक्षा बहुत जल्दी की जाएगी।
लेखक एक पेश्वर सैनिक के रूप में प्रथम विश्व युद्ध में शामिल होने के बाद अफ़्रीका में कॉफ़ी बाग़वानी करते थे। अफ़्रीका में ही लेखक की पर्वतारोहण के प्रति रुचि बढ़ी जिसने उन्हें बहुत जल्दी हिमालय की तरफ़ खिंचा। लगभग अगले बीस वर्षों तक लेखक हिमालय के असाम से लेकर लद्दाख़ तक पर्वतारोहण करते रहे और हिमालय के सर्वोत्तम पर्वतारोहियों में से एक ख्याति प्राप्त किया।

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