दिसम्बर 1988 में उत्तराखंड के लगभग चार हज़ार भूमिहीन किसानों ने हल्द्वानी (तराई) के कोटखर्रा में वन विभाग के हज़ारों एकड़ ज़मीन पर क़ब्ज़ा किया। वन विभाग और पुलिस ने जवाबी कार्यवाही में सैकड़ों की पिटाई और गिरफ़्तारी के साथ महिलाओं के साथ बदसलूकी की। कोटखर्रा के अलावा भूमिहीन किसान बिंदुखत्ता, घोड़ानाल जैसे स्थानों पर भी सरकारी और ज़मींदारों की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने का प्रयास कर रहे थे।
तराई भूमि और शरणार्थी:
दरअसल देश की आज़ादी के पूर्व तक हल्द्वानी और ऊधम सिंह नगर की तराई भूमि बंजर और दलदल से भरी हुई थी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उत्तराखंड के सैनिकों ने जिस बहादुरी के साथ लड़ा था उसका इनाम के रूप में ब्रिटिश सरकार ने इन तराई भूमि को उत्तराखंडी सैनिकों में वितरित कर उन्हें इनाम देना चाहती थी। इन बंजर तराई ज़मीनों पर सरकार का स्वामित्व था जिसे खाम भूमि कहा जाता था। लेकिन वर्ष 1947 में आज़ादी के बाद सरकार की इस तराई भूमि योजना पर ताला लगा दिया गया।
उत्तराखंड के इन तराई ज़मीनों को उत्तराखंडियों में वितरित करने के बजाय सरकार इस तराई ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा पहले देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को दिया और बाद में 1960 व 1970 के दशक के दौरान बांग्लादेश से आए शरणार्थियों में वितरित करने का फ़ैसला लिया। कुछ ज़मीनों को 99 वर्ष की लीज़ पर निजी पूँजीपतियों और सहकारी समितीयों को भी वितरित किया गया जबकि छोटे किसानों को भूमि का छोटा पाट्टा तीन वर्ष की लीज़ पर दिया गया।
भूमि वितरण: अमीरों का खेल
भूमि वितरण की इस प्रक्रिया में बड़े बड़े अमीरों, नेताओं, अधिकारियों और ज़मींदारों ने उत्तराखंड के हज़ारों एकड़ ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लिया। उदाहरण के लिए प्रयाग नाम के निजी फार्म ने सोलह हज़ार एकड़ ज़मीन पर क़ब्ज़ा किया था, वहीं मेजर जनरल चिमनी ने चार हज़ार एकड़, कर्नल लाल सिंह ने तीन हज़ार एकड़ और मार्शल अर्जुन सिंह ने एक हज़ार एकड़ ज़मीन पर क़ब्ज़ा किया। पंजाब के नेता प्रकाश सिंह बादल और सूरजीत सिंह बरनाला भी ज़मीन क़ब्ज़ाधारियों की सूची में शामिल थे। इनमे से ज़्यादातर लोग उत्तराखंड के स्थानीय निवासी नहीं थे।
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वर्ष 1972 में जब उत्तर प्रदेश में भी ज़मींदारी उन्मूलन क़ानून लागू हुआ तो इन बड़े बड़े भूमि-स्वामियों की ज़मीनों को कोई छू नहीं पाया। उस समय की उत्तर प्रदेश की सरकार ने नैनीताल ज़िले (उस समय नैनीताल और ऊधम सिंह नगर एक ही ज़िला था) के कुल ज़मीन में से मात्र 1.4 प्रतिशत ज़मीन को ही ज़मींदारी उन्मूलन क़ानून के तहत अतिरिक्त ज़मीन घोषित किया जिसमें से मात्र 0.4 प्रतिशत ज़मीन का ही भूमिहीन किसानों में वितरण किया गया। यह 0.4 प्रतिशत ज़मीन सत्तर हज़ार भूमिहीन किसानों के बीच बाँटी गई और प्रत्येक किसान को एक एकड़ भी ज़मीन नसीब नहीं हुआ।
एक दशक के भीतर भूमिहीन किसानों को वितरित तराई ज़मीनों का 18 प्रतिशत हिस्सा फिर से बड़े किसानों और पूँजीपतियों के हाथों बिक गई और किसान फिर से भूमिहीन हो गए। बड़े बड़े भूमि स्वामियों ने अपनी ज़मीन को ज़मींदारी उन्मूलन क़ानून से बचाने के लिए अलग अलग नायाब तरीक़े अपनाएँ जिसमें ज़मीन को ग़ैर-सिंचित और बंजर ज़मीन घोषित करवाना (ग़ैर-सिंचित ज़मीन ज़मींदारी उन्मूलन क़ानून के दायरे में नहीं आते थे), अपनी ज़मीनों पर फ़र्ज़ी स्कूल, हॉस्पिटल, सड़क आदि की ज़मीन बताना, अपने नौकरों और पालतू जानवरों के नाम पर ज़मीन पंजीकृत करवाना, आदि शामिल था।
वन विभाग और भूमिहीन किसान:
तराई से उत्तराखंड के निराश भूमिहीन किसान अब अपना रुख़ नैनीताल के जंगली ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने का रुख़ किया। लेकिन सरकार के अनुसार नैनीताल ज़िले का 98 प्रतिशत जंगली ज़मीन आरक्षित वन की श्रेणी में आता था जहाँ वन की ज़मीन ही नहीं बल्कि उसके पत्तों पर भी सरकार का पूर्ण स्वामित्व था। हालाँकि इस 98 प्रतिशत में हल्द्वानी जैसे शहरों की ज़मीन को भी शामिल कर लिया गया था जहां जंगल के नाम पर एक भी पेड़ नहीं दिखता था।
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वन विभाग जंगल की ज़मीन के साथ साथ लकड़ी को भी बाज़ार की क़ीमत से पाँच गुना कम मूल्य पर काग़ज़ बनाने वाली फ़ैक्टरी को बेच रही थी। घोड़ानाल के पाँच सौ परिवारों के घर को तोड़कर सेंचरी पल्प कम्पनी को पाँच सौ एकड़ और फलाहारी बाबा आश्रम को भी 286 एकड़ वन भूमि दी गई। पहाड़ से उतरकर तराई की ज़मीनों पर कृषि करने की लालसा लिए नीचे उतरने वाले लोगों चमोली ज़िले का एक सेवानिवृत सैनिक परिवार भी था लेकिन पुलिस प्रशासन ने उसे भी वापस पहाड़ में खदेड़ दिया। हालाँकि PUDR के द्वारा आरोप यह भी लगाया जाता है कि तराई की ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करने वालों में हेमवती नंदन बहुगुणा भी शामिल थे।

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