ऐसा मान लिया जाता है कि बिहार से पलायन करके दूसरे राज्य जाने वाले ज़्यादातर लोग गरीब होते हैं और वो अपनी ग़रीबी के कारण रोज़गार के लिए दूसरे राज्य जाते हैं। लेकिन बिहार जातीय गणना 2022-23 ने इस भ्रम को तोड़ दिया है। चुकी हिंदुस्तान में ग़रीबी का जाति के साथ बहुत गहरा रिश्ता है इसलिए यह भी माना जाता था कि बिहार से पलायन करने वाले ज़्यादातर लोग पिछड़ी जातियों से सम्बंध रखते हैं और सम्भवतः यही कारण है कि बिहार के पलायन संस्कृति को गीत और रंगमंच देने वाले भिखारी ठाकुर भी पिछड़े समाज से ही सम्बंध रखते थे। भिखारी ठाकुर पिछड़ा ही नहीं बल्कि अतिपिछड़ा नाई जाति से सम्बंध रखते थे।
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बिहार जातीय गणना के अनुसार भिखारी ठाकुर की जाति नाई से 94.62 प्रतिशत लोगों ने बिहार से बाहर छोड़िय बिहार के भीतर भी अपने ज़िले से बाहर नहीं जाते हैं। मतलब बिहार में मात्र 05.38 प्रतिशत नाई जाति के लोग पलायन करते हैं और उसमें से भी बिहार से बाहर पलायन करने वाले नाई जाति के लोगों का अनुपात मात्र 3.82 प्रतिशत है जबकि 01.58 प्रतिशत नाई जाति के लोग बिहार के भीतर ही बिहार के अन्य ज़िलों में रोज़गार या फिर शिक्षा के लिए बाहर जाते हैं।
हालाँकि बिहार जातीय गणना में उन लोगों को भी पलायन की श्रेणी में रखा गया है जो अपने गाँव से अपने ज़िले में ही पलायन करके अस्थाई रूप से रह रहे हैं। मतलब कि अगर अपने ही ज़िले में अपने स्थाई निवास से अलग किसी शहर या क़स्बे में रहने वाले लोगों को अलग कर दिया जाए तो यह 03.82 प्रतिशत और भी कम हो जाएगा।
नाई जाति के इस 03.82 प्रतिशत पलायन करे वाले लोगों की तुलना में बिहार में ब्राह्मण जाति के बीच बिहार से बाहर जाकर पलायन करने वाले ब्रह्माओं का अनुपात 09.23 प्रतिशत है। अर्थात् नाई जाति के बीच पलायन का प्रतिशत ब्राह्मणों के बीच पलायन का लगभग एक तिहाई है।

यही हाल भुमिहार का भी है, राजपूत का भी और कायस्थ का भी। बिहार में 06.68 प्रतिशत भूमिहार जाति के लोग बिहार छोड़कर रोज़गार और शिक्षा के लिए देश दुनियाँ के अन्य भागों में जाकर बसने के लिए मजबूर हैं जबकी राजपूतों के भीतर बिहार से बाहर आस्थाई रूप से बसने वालों का अनुपात 07.37 प्रतिशत है और कायस्थों के बीच 07.48 प्रतिशत है। मुसलमानों के भी स्वर्ण जातियों का भी यही हाल है। मुसलमानों में में भी सर्वाधिक पलायन स्वर्ण जातियों के बीच ही है।
पूरे बिहार में सभी स्वर्ण जातियों के बीच पलायन का अनुपात 09.98 प्रतिशत है जबकि पिछड़ी जातियों (OBC) के बीच यह अनुपात 05.39 प्रतिशत, अतिपिछड़ों (EBC) के बीच 05.18 प्रतिशत, और दलितों (SC) के बीच 03.90 प्रतिशत है। मतलब साफ़ है, जितनी उच्च जाति उतना अधिक पलायन, जितनी अधिक सम्पन्नता उतना अधिक पलायन, जितनी अधिक साक्षरता उतना अधिक पलायन। तो फिर क्या हम कह सकते हैं कि पलायन का मुख्य कारण ग़रीबी नहीं बल्कि अमीरी है? पिछड़ापन नहीं बल्कि अगड़ापन हैं? अशिक्षा नहीं बल्कि शिक्षा है?
कुछ ऐसे ही उदाहरण उत्तराखंड में भी देखने को मिलता है जहां पहाड़ों से मैदानों की तरफ़ सर्वाधिक पलायन उच्च जाति के लोगों का हुआ है, और सर्वाधिक विकसित अलमोडा और पौड़ी ज़िले से हुआ है जो सर्वाधिक विकसित पहाड़ी ज़िले माने जाते हैं।

उत्तराखंड में तो फ़िलहाल जातीय गणना होने की कोई सम्भावना नहीं है लेकिन बिहार के जातीय गणना से कुछ और जातियों के आँकड़ों पर नज़र मार लेते हैं। बिहार में पिछड़े जातियों में से तीन सर्वाधिक सम्पन्न जातियाँ यादव, कुर्मी और कुशवाहा को माना जाता है। इन तीनों से भी सर्वाधिक शिक्षित कुर्मी उसके बाद कुशवाहा और यादव को सर्वाधिक अशिक्षित जाति समझा जाता है।
पलायन के आँकड़े भी इसी ओर इशारा करते हैं कि इन तीनों जातियों में से सर्वाधिक पलायन कुर्मी जाति के बीच है उसके बाद कुशवाहा और सबसे कम यादव जाति का है। कुर्मी का पलायन अनुपात 08.17 प्रतिशत है जबकि कुशवाहा का 05.59 प्रतिशत और यादव का 04.32 प्रतिशत।
पलायन और साक्षरता:
माना जाता है कि बिहार में सर्वाधिक पिछड़ा, अविकसित जाति मुसहर है लेकिन पलायन के मामले में मुसहर यादव से भी बेहतर है। यादवों पे बीच पलायन का अनुपात 04.32 प्रतिशत है जबकि मुसहर जाति में यह अनुपात 03.19 प्रतिशत है। इस 03.19 प्रतिशत में से 03.03 प्रतिशत मुसहर अपना स्थाई घर का त्याग रोज़गार की खोज के लिए करते हैं और बाक़ी के 0.16 प्रतिशत उच्च शिक्षा के लिए अपने स्थाई निवास से दूर जाते हैं। दूसरी तरफ़ 03.76 प्रतिशत यादव पलायन रोज़गार के लिए करते हैं 0.36 प्रतिशत शिक्षा के लिए करते हैं।
क्या ये कहा जा सकता है कि बिहार में शिक्षा के प्रति जागरूकता यादवों से अधिक मुसहरों के बीच है? आज भी मुसहर शिक्षा के मामले में यादव से बेहतर तो नहीं है लेकिन अगर साल 1931 की जनगणना से तुलना करें तो जिस तेज़ी से मुसहर ने शिक्षा के प्रति अपनी जागरूकता दिखाई है उसके सामने यादवों का प्रयास फीका है।
मुसहर तो नहीं लेकिन दलित समाज के कई जातियाँ है बिहार में जिनका प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा सभी में प्रदर्शन यादवों से कहीं अधिक बेहतर है। उदाहरण के लिए दलित समाज से आने वाले धोबी, पासी और बौरी जाति के लोगों के बीच निरक्षरता यादवों से कम है। यादवों के बीच 31.60 प्रतिशत निरक्षर लोग हैं जबकी बौरी जाति में निरक्षरता का अनुपात मात्र 25.72 प्रतिशत, धोबी का निरक्षरता अनुपात मात्रा 28.39 प्रतिशत और पासी का निरक्षरता अनुपात 31.59 प्रतिशत है।
इसी तरह यादवों के बीच मात्र 06.81 प्रतिशत लोग ग्रैजूएट है जबकी पासी जाति में ग्रैजूएट का अनुपात 07.48 प्रतिशत है और धोबी जाति में 09.46 प्रतिशत लोग ग्रैजूएट हैं। पासी और धोबी जाति के बीच यादवों से अधिक अनुपात में डॉक्टर भी है, इंजीनियर भी है, PhD और यहाँ तक CA वाले भी यादवों से अधिक अनुपात में पासी और धोबी जैसे दलित समाज के लोगों में हैं।
मुसहर और पासी दोनो जातियों में पलायन का अनुपात यादव जाति से कम है। मतलब की पासी जाति में यादव से अधिक शिक्षा का प्रचलन के बावजूद पासी समुदाय का पलयन कम है। लेकिन धोबी जाति में पलयन यादव जाति से अधिक है पर धोबी जाति में उच्च शिक्षा के लिए किया जाने वाला पलायन यादव से दो गुना से भी अधिक है। मतलब साफ़ है पलायन का शिक्षा के साथ सकारात्मक सम्बंध है।
बिहार जातीय गणना का अध्ययन जैसे जैसे परत दर परत किया जाएगा वैसे वैसे चौकाने वाले ऐसे ऐसे तथ्य सामने आएँगे जिसे पिछले नौ से भी अधिक दशकों से अधिक समय से दबाया जा रहा था।

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