मानचित्रों में कहानी ऋंखला 1: नैन सिंह रावत की हिमालय यात्रा
नैन सिंह रावत ब्रिटिश हिंदुस्तान के सर्वोत्तम भौगोलिक अन्वेषक थे। इस लेख में उनके द्वारा की गई पाँच महत्वपूर्ण यात्रा और अन्वेषण को मानचित्र के माध्यम से समझने का प्रयास किया गया है।
“नैन सिंह रावत को उनके खोज के लिए पंडित की उपाधि दी गई”
मानचित्र 1: इस यात्रा में नैन सिंह रावत को पहले अपने गाँव मिलम से हल्द्वानी, देहरादून होते हुए मसूरी (40 दिन में 450 किलोमीटर) और फिर उसके बाद स्लागेंटवाइट भाइयों के साथ विधिवत तौर पर शिमला, मनाली, लेह, कश्मीर, रावलपिंडी, लाहौर, लुधियाना होते हुए वापस आना था। वर्ष 1856-57 की यात्रा नैन सिंह के जीवन की पहली यात्रा थी। इस यात्रा पर जाने के लिए नैन सिंह ने अपने भाई मानी सिंह से बहुत मिन्नत की थी। इस यात्रा पर नैन सिंह कोई खोजकर्ता नहीं बल्कि समान ढ़ोने वाला एक कूली के तौर पर काम किया। इस यात्रा के दौरान उनके भाई मानी सिंह ने नैन सिंह को बहुत परेशान किया और यात्रा बीच में ही छोड़ने के लिए बार बार भड़काया। इस यात्रा के दौरान स्लागेंटवाइट भाई नैन सिंह से बहुत प्रभावित हो गए और नैन सिंह के अंदर भविष्य के खोजकर्ता की पथकथा लिखी गई।
मानचित्र 2: वर्ष 1865 में नैन सिंह रावत का खोजकर्ता के रूप में पहला अभियान: काठमांडू से लहसा फ़र फिर रेला गोम्पा होते हुए कैलाश की यात्रा। एक खोजकर्ता के तौर पर नैन सिंह रावत की यह पहली यात्रा थी। इस यात्रा के बाद नैन सिंह को कई पुरस्कार दिए गए और एक खोजी के रूप में स्थापित हो गए। वर्ष 1864 में गहन प्रशिक्षण के बाद मांटगोमरी ने नैन सिंह और उनके भाई मानी सिंह को तिब्बत तथा मिलम से मानसरोवर होकर लहसा जाने का रास्ता ढूँढने व नक़्शा बनाने का आदेश दिया। उनके भाई मानी सिंह बीच रास्ते से ही वापस आ गए लेकिन नैन सिंह ने इतिहास रचा। इस यात्रा के दौरान उनके साथ कोई विदेशी नहीं था। इसी अभियान के दौरान काठमांडू में नैन सिंह से एक स्थानीय व्यापारी ने तिब्बत सीमा पार करवाने के लिए एक सौ रुपए लिए थे क्यूँकि भारतीयों को तिब्बत में प्रवेश का अधिकार नहीं था।
मानचित्र 3: वर्ष 1867 में पश्चमी तिब्बत के ठोकज्यालुंग़ क्षेत्र तक जाने वाली यात्रा नैन सिंह के नितृत्व में जीवन की पहली स्वतंत्र यात्रा थी। ठोकज्यालुंग़ अपने सोने, सुहागे और नामक के खानो के लिए प्रसिद्ध था। इस यात्रा का मक़सद लाहस और गोबी मरुस्थल के बीच अज्ञात जगहों का भौगोलिक क्षेत्रों के बारे में जानकारी इकट्ठा करना भी था। यह यात्रा नैन सिंह के लिए कठिन था क्यूँकि पिछली यात्रा के दौरान तिब्बत के व्यापारी और प्रशासन उन्हें पहचान चुकी थी और अब उनके लिए वेश बदलकर छुप-छुपाकर यात्रा करना कठिन था। इस यात्रा से वापस आते समय नैन सिंह पहली बार पौड़ी और कोटद्वार होते हुए नीचे उतरते हैं।
मानचित्र 4: वर्ष 1873-74 में मसूरी से शिमला, मनाली, लेह होते हुए यारकंद तक का सफ़र। मसूरी पहुँचने से पहले तय किया गया था कि यात्रा लेह-ल्हासा होते हुए तवांग को जाएगी। पर मसूरी पहुँचने के बाद लेह-ल्हासा होते हुए तवांग यात्रा को स्थगित कर दिया गया क्यूँकि इस यात्रा की रूपरेखा तैयार करने वाले ग्रेट ट्रीगनोमेट्रिकल सर्वे के उप अधीक्षक मेजर मांटगोमरी को किसी आपात कारण से फ़रवरी 1873 में इंग्लंड जाना पड़ा। विकल्प के तौर पर मसूरी से यारकंद की यात्रा शुरू की गई।
“नैन सिंह रावत ने अपने जीवन की पहली खोजी यात्रा एक कूली-बेगार (भारवाहक) के रूप में किया था”
मानचित्र 5: अब तक नैन सिंह रावत हिंदुस्तान के सर्वाधिक महत्वपूर्ण सर्वेक्षक के रूप में अपना नाम स्थापित कर चुके थे और अपने जीवन का सर्वाधिक बड़ा भौगोलिक सर्वेक्षण के लिए तैयार थे। यह यात्रा मसूरी से शुरू होकर लेह, ल्हासा, तवांग होते हुए गुवाहाटी तक जानी थी। वर्ष 1874 में होने वाली ये यात्रा नैन सिंह रावत के जीवन की अन्वेषक के रूप में आख़री यात्रा थी। यह यात्रा वर्ष 1873 में ही होनी थी। योजना के अनुसार इस यात्रा को गुवाहाटी से प्रारम्भ होना था और तवांग, होते हुए लेह (कश्मीर) जाना था पर हुआ उल्टा।
“द ग्रेट आर्क सर्वेक्षण ऋंखला में नैन सिंह रावत का योगदान अतुलनिये रहा”
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