
“मारद बाखरो पकांद कुकुड़ो खांदी दांव लिंगुड़ा को ठुपुड़ो” (उसने ने बकरा काटा, मुर्ग़ा पकाया और रात में लिंगुड़ा खाते हुए पाया गया)। ये कहावत उन लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता था जो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं पर उनकी औक़ात बहुत छोटी हुआ करती थी। यानी कि औक़ात के मामले में सर्वाधिक औक़ात बकरा खाने वालों की होती थी और उसके बाद मुर्ग़ा और सबसे कम लिंगुड़ा खाने वालों की।
लिंगुड़ा सिर्फ़ उत्तराखंड के पहाड़ों में नहीं मिलता बल्कि ये दुनियाँ के लगभग सभी हिस्सों में अलग अलग नामों से जाना और पाया जाता है और इसे बनाने की विधि भी अलग अलग है। कहीं इसे अचार के रूप में खाते हैं, कहीं सलाद के रूप में, कहीं उबाल कर तो कहीं भूनकर पर सभी जगह इसे बनाते समय एहतियात रखने की सलाह दी जाती है। लिंगुड़े का चुनाव और सफ़ाई ठीक से नहीं होने पर जानलेवा भी हो सकता है।
“इतिहास में लिंगुड़ा खाने वालों को हीनता (निम्न) नज़रिए से देखा जाता था”
लिंगुड़ा (Fiddlehead) के बारे में चीन में भी एक कहावत है कि जब राम-लक्ष्मण की तरह दो राजकुमार अपने राज्य छोड़कर बनवास जंगल को निकले तो लिंगुड़ा खाकर ही वो अपना जान बचा पाए। कहानी कुछ यूँ है कि जब हिंदुस्तान में अथर्ववेद लिखे जा रहे थे तब चीन के शांग राज्य में राम और लक्षण की तरह दो भाई हुआ करते थे। बड़े का नाम बोई और छोटे का शुकी। दोनो में असीम प्रेम था। उनके पिता राज्य के एक प्रांत के मुखिया थे।
पिता छोटे बेटे को अधिक पसंद करते थे पर राजा दशरथ की तरह राजगद्दी का उत्तराधिकारी घोषित किए बग़ैर एक दिन वो चल बसे। परम्परा के अनुसार बड़े बेटे बोई को राजगद्दी मिलनी थी। पर चुकी बोई जनता था कि उसके पिता उसके छोटे भाई शुकी को अधिक पसंद करते थे इसलिए एक रात वो राजमहल छोड़कर जंगल में बनवास पर निकल गए ताकि उसके छोटे भाई शुकी राज्य पर राज करे और उसके पिता की आत्मा को शांति मिले।
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जितनी मोहब्बत बोई को शुकी से थी, शुकी को भी बोई से भी उतनी ही मोहब्बत थी। गद्दी के असली हक़दार राम जैसे बड़े भाई बोई की अनुपस्थिति में लक्ष्मण जैसे छोटे भाई शुकी भी एक रात राजमहल छोड़कर जंगल बनवास पर चला गया। दोनो पड़ोसी राज्य Zhou में आम आदमी की तरह निवास करने लगे। इस बीच Zhou के राजा ने पड़ोसी शांग राज्य पर हमला करके उसपर क़ब्ज़ा कर लिया।
विरोध स्वरूप दोनो भाइयों ने Zhou राजा द्वारा जीते राज्य का एक भी दाना खाने से इंकार कर दिया और शूयंग पर्वत पर चले गए जहां उन्होंने सिर्फ़ लिंगुड़ा खाकर जीवन बिताने लगे। कुछ समय बाद एक लड़की ने उन्हें लिंगुड़ा में ज़हर होने का हवाला देकर उसे खाने से मना किया जिसके बाद कुछ दिनो तक दोनो भाई हिरन का दूध पीकर ज़िंदा रहे लेकिन दोनो अधिक दिन तक ज़िंदा नहीं रह पाए और प्राण त्याग दिए।

चीन में आज भी बोई और शुकी भाइयों के आपसी प्रेम और मौलिकता के उदाहरण दिए जाते हैं। इस कहानी से ये भी सिद्ध होता है कि कम से कम ईसा पूर्व एक हज़ार वर्ष पूर्व चीन में भी लिंगुड़ा मजबूरी का भोजन हुआ करता था। पहाड़ में भी लोग जानते हैं कि लिंगुड़े का अगर सावधानिपूर्वक चयन और सफ़ाई नहीं किया गया तो ज़हरीला हो सकता है।
उपरोक्त पहाड़ी कहावत से भी कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है कि लिंगुड़ा की कम से कम इतिहास में ऐसी किसी सब्ज़ी के रूप में शुमार नहीं होता था जिसे खाना लोग प्रीवलेज समझते हों। पर पहाड़ के गाँव से दूर भागकर फेकेबूक पर रोज़ रायता फैलाने वाला उभरता शहरी मध्य वर्ग आज चाहे लिंगुडे का जितना चाहे चटकारे ले ले पहाड़ के गाँव में आज भी लिंगुड़े की कोई औक़ात नहीं है।

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