समय, साहित्य और टैक्सी
मनोहर श्याम जोशी द्वारा लिखित उपन्यास ‘कसप’ का नायक और आज़ाद 1960 के दशक के पलायन करता आधुनिक पहाड़ का परिचायक D D (देविदत्त तिवारी) दिल्ली से अलमोडा टैक्सी से आया था। देविदत्त तिवारी एतिहासिक पत्र भी है जो पहाड़ों के पहले मोटर वाहन कम्पनी नैनीताल मोटर ट्रांसपोर्ट के प्रथम सचिव थे। D D का टैक्सी से आना अपने आप में इतिहास था। इस दौर में टैक्सी सिर्फ़ उच्च वर्ग की सुविधा था।
टैक्सी/ट्रेकेर/मैक्स/सूमो आम पहाड़ी के लिए यातायात का साधन 21वीं सदी के दस्तक से पहले नहीं बन पाती है। जिस रूप में यह यातायात का साधन आम पहाड़ियों और पहाड़ की लाइफ़-लाइन बन गई है वो अलग उत्तराखंड राज्य बनने का भी प्रतीक है। ये टैक्सी/ट्रेकेर/मैक्स/सूमो प्रतिनिधित्व करता है पहाड़ी मध्य और निम्न मध्य वर्ग के प्रतिरोध का जो पहाड़ की लगातार राजनीतिक और प्रशासनिक उपेक्षा से विचलित थी।

टैक्सी और इतिहास:
वर्ष 1929 में गांधी जी कुमाऊँ की यात्रा के दौरान गांधी जी की कार के नीचे आने से एक पहाड़ी व्यक्ति की मृत्यु हो गई थी। घटना को याद करते हुए गांधी जी 27 जून 1929 को छपे अपने लेख लिखते हैं, “पहाड़ के ग्रामीण लोग मेरी कार देखकर बेसुध होकर भागने लगते थे और उस भगदड़ में दुर्घटना की पूरी सम्भावना होती थी। ऐसे ही एक दुर्घटना में अलमोडा के एक स्थानिये निवासी पदम सिंह घायल हो गए और बाद में उनकी मृत्यु हो गई।” पहाड़ों में (ख़ासकर गढ़वाल) सड़कों और यातायात की बदहाल व्यवस्था पर पंडित नेहरू बार बार चिंता करते हैं और क्षेत्र के विकास में महत्वपूर्ण बाधा मानते हैं।
सन् 1941 में कमिश्नर काम्बेट या पॉल ने 30 मोटर गाडियों के जखीरे को परमिशन देते हुए वाहन स्वामियों के लिए आदेश निकाले की वे गढ़वाल मोटर्स यूनियन का गठन करें। पर 1950-60 के दशक में पहाड़ी सड़कों पर मोटरगाड़ी चलाना और उसमें चलना दोनो जोखिम भरा भी था और महँगा भी। उसके ऊपर से इन वाहनो में चलने की हैसियत रखने वाले ज़्यादातर पहाड़ी पलायन करके राज्य की नई राजधानी लखनऊ और इलाहबाद का रुख़ कर रहे थे। शायद यही कारण है कि 1960 के दशक में पौड़ी का एक स्थानिय मोटरगाड़ी कारोबारी राजा राम मलासी ने बाद में यहाँ अपना कारोबार बंद करके मुंबई में टैक्सी चलाकर अपना कारोबार शुरू किया। जो कि आगे चलकर बहुत अमीर हुआ।

पहाड़ की लाइफ़लाइन
आज उत्तराखंड के पहाड़ का शायद की कोई गाँव होगा जहां से सुबह-सुबह कम से कम एक-दो टैक्सी शहरों के लिए नहीं निकलती होगी और शाम तक वापस आती होगी। गाँव छोड़ने से पहले ये मैक्स एक तोक़ से दूसरे तोक़ तक का सफ़र करती हुई हर घर से सवारी उठाती है और न सिर्फ़ गाँव को शहर से जोड़ती है बल्कि गाँव को गाँव से जोड़ती है, लोगों को लोगों से जोड़ती है, बिखरते पहाड़ को पहाड़ से जोड़ती है।
पहाड़ के बसो में आज भी गाने बिरले ही सुनाई देती है लेकिन टैक्सी/मैक्स/सूमो/ट्रेकेर में ज़्यादातर पहाड़ी गाने ही चलते हैं। ड्राइवर पहाड़ी भाषा का प्रयोग करता है और ग़ैर-पहाड़ियों को भी पहाडिपन का अहसास देता है। शायद यूँ ही इन्हें पहाड़ का लाइफ़-लाइन नहीं कहा जाता है। ये चलता फिरता पहाड़ है। हालाँकि छोटी कार में कुछ पंजाबी गाने भी बढ़ने लगे हैं और उत्तराखंड नेपाल की सीमा की ओर भोजपुरी गानों का भी प्रचलन बढ़ता जा रहा है।

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पहाड़ों में इन टैक्सी/मैक्स/सूमो/ट्रेकेर का महत्व इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान पूरे देश में एक भूतपूर्व चायवाला चाय पर चर्चा करवा कर प्रधानमंत्री बनने की तैयारी कर रहे थे तब भी पहाड़ में चाय की जगह इन टैक्सी/मैक्स/सूमो/ट्रेकेर को प्रचार का केंद्र बनाया गया।
आज उत्तराखंड के हर ज़िले में टैक्सी/ट्रेकर/सूमो/मैक्स यूनीयन है। अकेले गढ़वाल में 35-40 टैक्सी संघ है जिसमें लगभग 27 हज़ार लोग सदस्य हैं। इसी तरह कुमाऊँ में भी 44 टैक्सी संघ हैं। इन टैक्सी संघों के परे हज़ारों ट्रेकेर/मैक्स/सूमो बिना संघ के पहाड़ों पर दौड़ते हैं। गाँव से शहरों तक चलने वाले ज़्यादातर ट्रेकेर/सूमो/मैक्स यूनीयन के नियमों के परे कार्य करते हैं क्यूँकि पहाड़ का गाँव क़ानून से अधिक प्रेम, सम्बंध और विश्वास पर चलती है।

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