द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान गढ़वाली सैनिकों ने जिस पराक्रम से लड़ा था उससे ब्रिटिश सरकार सर्वाधिक प्रभावित थी। युद्ध में विजय के बाद ब्रिटिश सरकार गढ़वाली सैनिकों को उनके पराक्रम के लिए पुरस्कृत करना चाहती थी और पुरस्कार के रूप में उन्हें ज़मीनों के पट्टे देना चाहती थी। अगस्त 1945 द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति की घोषण हुई और एक वर्ष के भीतर ब्रिटिश सरकार ने गढ़वाली सैनिकों को नैनीताल और देहरादून ज़िलों के तराई क्षेत्रों की उपजाऊ ज़मीन के पट्टे विस्तृत करने का प्रारूप तैयार कर चुकी थी।
लेकिन वर्ष 1946 के अंतिम दिनों में हिंदुस्तान में प्रांतीय चुनाव हुआ और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की गठबंधन की सरकार बनी और गढ़वाली सैनिकों को ज़मीन की पट्टी देने की योजना ठंढे बस्ते में चली गई क्यूँकि ब्रिटिश भारतीय संविधान के अनुसार ज़मीन राज्य सूची का हिस्सा था और राज्य में कांग्रेस की सरकार थी।
चुकी देश की आज़ादी विभाजन के साथ हुई थी और इस प्रक्रिया में पाकिस्तान में रहने वाले ज़्यादातर हिंदू भारत में पलायन कर गए इसलिए इन पलायन किए हिंदुओं को भारत सरकार द्वारा ज़रूरी ज़मीन का इंतज़ाम करना था। जो ज़मीन ब्रिटिश सरकार ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सैनिकों में वितरित करने के लिए चिन्हित किया था उन्मे से ज़्यादातर ज़मीनों पर इन पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को ज़मीन के पट्टे दिए गए।
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उत्तराखंड के जिन क्षेत्रों में पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को सर्वाधिक ज़मीनें आवंटित की गई उसमें ऊधम सिंह नगर और हल्द्वानी का क्षेत्र महत्वपूर्ण था। बाद में बचे हुए ज़मीन पर 1960 व 1970 के दशक के दौरान बांग्लादेश से आए शरणार्थियों को बसाया गया। कुछ अन्य ज़मीनों को 99 वर्ष की लीज़ पर निजी पूँजीपतियों और सहकारी समितीयों को भी वितरित किया गया जबकि छोटे किसानों को भूमि का छोटा पाट्टा तीन वर्ष की लीज़ पर दिया गया।
उत्तराखंड के अलावा उत्तर प्रदेश के बरेली क्षेत्र में भी भारी संख्या में पाकिस्तानी और बांग्लादेशी शरणार्थियों को ज़मीन आवंटित किया गया। हालाँकि उत्तराखंड से लेकर उत्तर प्रदेश और पंजाब तक सैनिकों को वितरित किए गए इस भूमि वितरण प्रक्रिया में बड़े स्तर पर हेरफेर किया गया। सैनिकों को आवंटित ज़्यादातर ज़मीनों पर सेना के बड़े अधिकारियों के अलावा पूँजीपति और स्थानीय ज़मींदारों और नेताओं ने क़ब्ज़ा कर लिया था। उदाहरण के लिए मेजर जनरल चिमनी ने चार हज़ार एकड़, कर्नल लाल सिंह ने तीन हज़ार एकड़ और मार्शल अर्जुन सिंह ने एक हज़ार एकड़ ज़मीन पर क़ब्ज़ा किया था।
प्रथम विश्व युद्ध में सैनिक:
हिंदुस्तानी ब्रिटिश सैनिकों को युद्ध में पराक्रम दिखाने के लिए पुरस्कार के रूप में ज़मीन देने का सर्वप्रथम प्रयास प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश संसद में 22 जुलाई 1915 को Lord Sydenham ने उठाया। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि भारतीय सैनिकों का वो तबका जो कृषक समाज से नहीं आता है उन्हें युद्ध के बाद ज़मीन की जगह अन्य किसी तरह की प्रशासनिक नौकरी दिया जाय। इस प्रश्न के जवाब में ब्रिटिश संसद में हिंदुस्तान मामले के अंडर सेक्रेटेरी Lord Islington ने बताया कि इस सम्बंध में भारत में स्थानीय ब्रिटिश सरकार के प्रांतीय अफ़सरों से जवाब तलब किया गया।
जवाब में भारत में सत्ता चला रहे ब्रिटिश अफ़सरों ने बताया कि चुकी भारतीय सेना में ज़्यादातर लोग उत्तर भारत से आते हैं इसलिए उन्हें दक्षिण भारत में ज़मीन देना उचित नहीं होगा और उत्तर भारत में कृषि के लिए उपयुक्त कृषि ज़मीन बहुत कम है। दूसरी तरफ़ चुकी ज़्यादातर सैनिक कम पढ़े लिखे होते थे इसलिए उनमें से बहुत कम को प्रशासनिक विभाग में नौकरी दिया जा सकता था। इस सम्बंध में पंजाब की प्रांतीय सरकार ने इस सुझाव पर सर्वाधिक अमल किया था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद बड़ी संख्या में भारतीय ब्रिटिश सेना के जवानों को भूमि वितरण किया गया।
19वीं सदी:
ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय सेना को युद्ध में पराक्रम दिखाने के लिए पुरस्कार के रूप में ज़मीन देने की प्रथा 19वीं सदी से चलती आ रही थी। चुकी ब्रिटिश सेना में ज़्यादातर सैनिक कृषक समाज से थे इसलिए पुरस्कार के रूप में ज़मीन मिलने से कृषक समाज सेना में भर्ती होने के लिए अधिक प्रेरित हुआ। पश्चिमी पंजाब में ब्रिटिश सरकार ने वृहद् स्तर पर बंजर ज़मीनों पर नहर बनवाए जिसे केनाल कॉलोनी भी बोला गया। इस केनाल कॉलोनी के ज़्यादातर ज़मीनों पर भारतीय सैनिकों को बसाया गया।
सेना के जवानों को आवंटित ज़मीनों की सुरक्षा के लिए पंजाब सरकार ने Punjab Alienation Of Land Act 1900 पारित कर यह क़ानून बनाया कि कोई भी बाहरी तत्व सेना की कृषि ज़मीन नहीं ख़रीद सकती है। 19वीं सदी के दौरान भारतीय ब्रिटिश सेना को ज़मीन इसलिए भी दिया जाता था क्यूँकि उन्हें घोड़ा रखना होता था और घोड़ा के पालन पोषण के लिए ज़मीन का होना ज़रूरी था।

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