भारत-चीन सीमा विवाद का इतिहास 1920 के दशक में ढूँढा जा सकता है। वर्ष 1923 में टेहरी के राजा ने अंग्रेजों से शिकायत किया कि तिब्बत (चीन) उनके यानी टेहरी राज्य के निलंग क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने की कोशिस कर रहा है। वर्ष 1926 में अंग्रेज़ी सरकार ने अपने ऑफ़िसर ऐक्टॉन को तिब्बत सरकार से बात करने और विवाद की जाँच करने को भेजा। जाँच के बाद ऐक्टॉन ने टेहरी राजा के पक्ष में अपना फ़ैसला सुनाया पर अंग्रेज़ी सरकार ने बीच का रास्ता अपनाया जिसके तहत निलंग गाँव को टेहरी राज्य को दिया गया और जढंग गाँव तिब्बत को दिया गया।
तिब्बत सरकार फ़ैसले से नाखुश थी। दूसरी तरफ़ टेहरी भी फ़ैसले से खुश नहीं था और ‘ट्सांग चोक ला’ तक अपने राज्य का दावा कर रहा था। अगर तिब्बत सरकार के दावों को माना जाता तो गंगोत्री और गौमुख तिब्बत के क़ब्ज़े में चला जाता। तिब्बत सरकार का मानना था कि ऐक्टॉन द्वारा वर्ष 1926 में क्षेत्र का दौरा करने से पहले गुमगुम नाला के पास बने पुल पर एक स्तम्भ बना हुआ था जो दोनो राज्य की सीमा क्षेत्र का प्रतीक था।
“बद्रीनाथ क्षेत्र पर स्वायत्ता के बदले हिंदुस्तान का बड़ा हिस्सा चीन (तिब्बत) को देने को तैयार थे टेहरी के राजा”
तिब्बत सरकार ने दो किताबें भी दिखाई जिसमें तिब्बत सरकार द्वारा निलंग और जढंग गाँव से 74 रुपए वार्षिक कर वसूलने का ज़िक्र था। इसके अलावा वर्ष 1924 में फादर वेसेल की किताब ‘अर्ली जेज़ूयट ट्रैव्लरस इन सेंट्रल एशिया’ छपी जिसमें उन्होंने बताया कि वर्ष 1630 तक गुमगुम नाला तक के कई पहाड़ी राजाओं पर तिब्बत का अधिकार था।
दूसरी तरफ़ इन दो गाँव से 24 रुपए वार्षिक कर वसूलने का साक्ष्य टेहरी राज के पास भी था। टेहरी राज का ये भी दावा था कि तिब्बत के राजा कर वसूलने का जो दस्तावेज प्रस्तुत कर रहा था वो उक्त क्षेत्र से होकर गुजरने वाले व्यापार पर लगने वाला कर था। टेहरी के अधिकारी निलंग और जढंग के स्थानीय लोगों को डराकर ये बोलने को बोल रहे थे कि ट्सांग चोक ला (जेलूखागा) पर राज हमेशा टेहरी का था।
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स्थानीय लोग टेहरी के अधिकारियों की बात मान रहे थे क्यूँकि शर्दियों में आठ महीने उन्हें अपने भेड़-बकरी के साथ उत्तरकाशी के पास पलायन करके प्रवास करना पड़ता था जबकि निलंग और जढंग में वो मात्र चार महीने रहते थे। उनका खान-पान बोल-चाल, और भेष-भूषा भी गढ़वाली संस्कृति से अधिक और तिब्बती संस्कृति से कम मिलती थी। विवाद ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा था। दोनो तरफ़ से एक के बाद एक साक्ष्य दिए जा रहे थे।
अंततः वर्ष 1932 में फ़्रेड्रिक विल्यम्सॉन (1891–1935) जो हिमालयन क्लब के संस्थापक सदस्य थे, उनको ब्रिटिश और तिब्बत दोनो की सरकार ने मध्यस्था करने का आग्रह किया। फ़्रेड्रिक विल्यम्सॉन ने गरटोक होते हुए विवादित क्षेत्र का दौरा किया जिसमें तिब्बत के प्रतिनिधि तो आए पर टेहरी के प्रतिनिधि नहीं आए। दोनो तरफ़ के सभी पुराने दावों और साक्ष्यों का अध्ययन किया गया।

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हालाँकि उन्होंने ये भी स्वीकार किया कि उनके जाँच के दौरन कई स्थानीय लोगों ने गुमगुम नाला पर खम्भा होने की बात को स्वीकारा पर खम्भा दोनो राज्यों की सीमा थी इसका कोई प्रमाण नहीं मिला था। इसके अलावा टेहरी राज्य द्वारा स्थानीय लोगों को डराने धमकाने की भी बात उभरकर आइ। अंततः फ़्रेड्रिक विल्यम्सॉन ने टेहरी के राजा के दावे को ख़ारिज कर दिया और निलंग गाँव को ही तिब्बत (चीन) और टेहरी की सीमा प्रस्तावित की। टेहरी ये फ़ैसला मानने को तैयार था पर बदले में ब्रिटिश सरकार से बद्रीनाथ क्षेत्र पर अधिक अधिकार की माँग कर रहे थे।
आख़री फ़ैसला ना तो टेहरी के राजा को स्वीकार हुआ और न ही तिब्बत (चीन) को। इसी बीच 1933 में दलाई लामा की मृत्यु हो गई और 1935 में फ़्रेड्रिक विल्यम्सॉन की मृत्यु हो गई और उसी के बाद तिब्बत का ब्रिटिश सरकार के साथ सिक्किम की सीमा पर विवाद शुरू हो गया जिसके कारण तिब्बत-टेहरी सीमा विवाद बिना सुलझे रह गया और आज़ादी के बाद तक यही स्थिति रही! आज भी भारत-चीन सीमा विवाद दोनो देश के सम्बन्धों को प्रभावित करती है।
१) लाल सीमा: टेहरी राज्य द्वारा किया गया सीमा का दावा २) पिला सीमा: तिब्बत (चीन) द्वारा किया गया सीमा का दावा३) टूटा हरा सीमा: तिब्बत (चीन) और टेहरी के बीच का 1936 में वास्तविक सीमा ४) टूटा लाल सीमा: ब्रिटिश सरकार द्वारा सुझाया सीमा

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