वर्ष 1971 में बांग्लादेश की आज़ादी से पहले तक पाकिस्तान सरकार द्वारा पूर्वी पाकिस्तान के नागरिकों पर बढ़ते अत्याचार से परेशान होकर बड़ी संख्या में बांग्लादेशी ने वर्ष 1956 से 1971 के दौरान भारत के विभिन्न हिस्सों में आकर शरण लिया था। ज़्यादातर बांग्लादेशी शरणार्थी पूर्वी आसाम, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश के बरेली और उत्तराखंड के ऊधम सिंह नगर ज़िले में आकर बसे थे। उस समय मार्च 1971 तक भारत आ चुके उन प्रत्येक बांग्लादेशी शरणार्थी के परिवार को भारत सरकार ने छह एकड़ भूमि आवंटित किया था। हालाँकि शरणार्थियों का उस भूमि पर मालिकाना अधिकार नहीं था लेकिन उन्हें अघोषित समय के लिए उस भूमि का सिर्फ़ इस्तेमाल करने का पूर्ण अधिकार दिया गया था।
वर्ष 2012 के उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में ऊधम सिंह नगर ज़िले के सितारगंज विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुए विजय बहुगुणा ने उत्तराखंड का मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद उत्तराखंड में शरणार्थी के रूप में रह रहे बांग्लादेशीयों को भूमि के पट्टे पर मालिकाना अधिकार देने की घोषणा की थी। रूद्रपुर ब्लॉक को छोड़कर उत्तराखंड के अन्य क्षेत्रों में बसे सभी बांग्लादेशी शरणार्थियों को भूमि पर मालिकाना अधिकार विजय बहुगुणा के कार्यकाल में ही दे दिया गया था।
देहरादून में बांग्लादेशी शरणार्थी:
उत्तराखंड में ऊधम सिंह नगर के अलावा कुछ शरणार्थी हरिद्वार और देहरादून के आरकेडिया ग्रांट क्षेत्र में भी बसे थे। आरकेडिया ग्रांट क्षेत्र में शरणार्थियों के बसावट के लिए सरकार की तरफ़ से जो ज़मीन आवंटित की गई थी उसमें से 11 हजार 700 वर्ग गज भूमि जिला सहायता और पुनर्वास कार्यालय (डीआरआरओ) के पास शेष बच गई थी। बची हुई ज़मीन पर अगले एक दशक तक कई लोगों ने शरणार्थी होने का फ़र्ज़ी काग़ज़ बनाकर ग़ैर-क़ानूनी ढंग से क़ब्ज़ा कर लिया जिसकी क़ीमत तक़रीबन 23 करोड़ रुपए बताई जा रही है।
सितम्बर 2021 में उत्तराखंड के नव निर्वाचित मुख्यमंत्री पुस्कर सिंह धामी ने इस मामले में जाँच बिठाई लेकिन आख़री निर्णय आज तक नहीं हो पाया है। माना जाता है कि क़ब्ज़ा करने वाले शरणार्थी नहीं बल्कि उत्तराखंड के स्थानीय निवासी हैं इसलिए शरणार्थियों और उत्तराखंड के स्थानीय निवासियों के गुट में इस विषय पर अक्सर झगड़े होते रहते हैं जिसके कारण सरकार और प्रशासन अंतिम निर्णय नहीं दे पा रही है।
शरणार्थी अधिकार के झगड़ें जारी है:
ज़मीन के अलावा शरणार्थियों को पश्चिम बंगाल सरकार ने बहुत जल्दी उन्हें वो सभी सुविधाएँ देने लगी जो किसी भी भारतीय नागरिक को वहाँ मिलता था लेकिन उत्तराखंड में अभी तक ऐसा नहीं हुआ है। उदाहरण के लिए मतुआ जाति को बंगाल में अनुसूचित जाति में शामिल कर लिया गया लेकिन उत्तराखंड में उन्हें अनुसूचित जाति में शामिल नहीं किया गया है जिसके कारण उन्हें पश्चिम बंगाल, आसाम या उत्तर प्रदेश में रहने वाले मतुआ जाति के लोगों की तरह उत्तराखंड में आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है। वर्ष 2021 तक उनके जाति प्रमाणपत्र पर ‘पूर्वी पाकिस्तान शरणार्थी’ लिखा जाता था।
अगस्त 2021 में उत्तराखंड की धामी सरकार ने यह फ़ैसला लिया (Indian Express) कि ऐसे बांग्लादेश से आकर बसे शरणार्थियों के जाति प्रमाणपत्र पर ‘पूर्वी पाकिस्तान शरणार्थी’ नहीं लिखा जाएगा। यह सुझाव सितारगंज के भाजपा विधायक सौरभ बहुगुणा वर्ष 2019 में ही दे चुके थे। 2 मार्च 2023 को कैबिनेट निर्णय में धामी सरकार ने फ़ैसला लिया कि रूद्रपुर में आकर बसे बांग्लादेशी शरणार्थियों को भूमि के पट्टे पर मालिकाना हक़ दिया जाएगा। हालाँकि इस सम्बंध में स्थानीय उत्तराखंडी फ़ैसले के विरोध में कई बार न्यायालय में जा चुके हैं लेकिन सरकार के निर्णय पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है।
इसे भी पढ़े: जनसंख्या-जिहाद और पंडित-पलायन के बावजूद जम्मू-कश्मीर की जनसंख्या में बदलाव क्यूँ नहीं हुआ ?
क्षेत्र के भूमिहीन स्थानीय उत्तराखंडी बांग्लादेशी शरणार्थियों को भूमि पर मालिकाना हक़ देने का विरोध कर रहे हैं। स्थानीय भूमिहीन उत्तराखंडियों का दलील है कि अगर उत्तराखंड का स्थाई निवासी होने के बावजूद उनके पास कोई मालिकाना ज़मीन नहीं है तो फिर शरणार्थियों को सरकार ज़मीन पर मालिकाना क़ब्ज़ा कैसे दे सकती है। उनका सवाल है कि क्या उत्तराखंड सरकार के लिए उत्तराखंड के स्थानीय निवासी से अधिक महत्वपूर्ण बांग्लादेश से आए शरणार्थी हो गए हैं?
बांग्लादेशी शरणार्थीयों का प्रदेश की राजनीति में दबदबा:
उत्तराखंड की राजनीति में बांग्लादेश से आए शरणार्थियों का वर्चस्व किस कदर बढ़ चुका है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि ऊधम सिंह नहर ज़िले में कई जन-प्रतिनिधि बांग्लादेशी शरणार्थी हैं। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने सितारगंज विधानसभा क्षेत्र से एक बांग्लादेश की शरणार्थी मालती बिस्वास को अपना उम्मीदवार बनाया था। अकेले सितारगंज विधानसभा के कुल एक लाख सात हज़ार मतदाताओं में से 32000 बंगाली मतदाता थे। मालती बिस्वास इसके पहले ज़िला पंचायत सदस्य रह चुकी थी।
इसके पहले वर्ष 2002 और 2007 के चुनाव में गदरपुर विधानसभा क्षेत्र से एक बांग्लादेशी शरणार्थी उम्मीदवार प्रेमानंद महाजन BSP के टिकट पर दो बार विजयी हो चुके थे। बंगालियों का प्रभाव इन दो विधानसभा के अलावा रूद्रपुर, किछा और खटिमा में भी है। अकेले ऊधम सिंह नगर ज़िले में लगभग एक लाख से अधिक बंगाली मतदाता हैं। आज पूरे उत्तराखंड में लगभग 9 लाख जनसंख्या बांग्लादेशी शरणार्थियों का है जिसमें से सभी को आज तक मतदान का अधिकार नहीं मिला है। मार्च 1971 के बाद बांग्लादेश से आकर इस क्षेत्र में बसे लोगों को क़ानूनी तौर पर न तो कोई ज़मीन का पाट्टा दिया गया है और न ही उन्हें शरणार्थी का ओहदा।
मुद्दे का साम्प्रदायिक रंग:
उत्तराखंड में बांग्लादेशी शरणार्थी के मुद्दे को हिंदुत्ववादी संगठन साम्प्रदायिक रंग देने का हर सम्भव प्रयास कर रहे हैं। बांग्लादेश से हिंदुस्तान के विभिन्न क्षेत्रों में आकर बसे शरणार्थियों में हिंदू और मुस्लिम दोनो धर्म के लोग थे। RSS की मुखपत्र पाँचजन्य और ऑर्गनायज़र एक तरफ़ उत्तराखंड में हिंदू बांग्लादेशी शरणार्थियों को सभी नागरिक अधिकार देने की माँग कर रही है तो दूसरी तरफ़ मुस्लिम बांग्लादेशी शरणार्थियों को घुसपैठिया बोलती है।
शरणार्थियों के प्रति इसी दोहरे मापदंड से प्रभावित होकर भारत सरकार CAA-NRC क़ानून लाना चाहती है ताकि हिंदू शरणार्थियों को भारत के पूर्ण नागरिक का अधिकार मिल सके और मुस्लिम शरणार्थी को घुसपैठिया घोषित कर उनसे सभी नागरिक अधिकार छिनकर शरणार्थी कैम्प में डाल दिया जाए।

Hunt The Haunted के Facebook पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें (लिंक)
[…] इसे भी पढ़े: कब और कैसे लाखों बांग्लादेशी आकर बस गए… […]
[…] इसे भी पढ़े: कब और कैसे लाखों बांग्लादेशी आकर बस गए… […]