यह लेख ख़ास है, इसलिए भी क्यूँकि यह विषय (जातिगत जनगणना) मेरे लिए भी व्यक्तिगत है और बिहार के लिए भी व्यक्तिगत है। मेरे लिए व्यक्तिगत ऐसे कि मैंने अपने जीवन की पहली किताब जातिगत जनगणना पर ही लिखी है और बिहार के लिए व्यक्तिगत ऐसे कि अंततः पटना उच्च न्यायालय ने बिहार में जातिगत जनगणना को हरी झंडी दे दी है। मेरी किताब आपको आमेजन पर मिल जाएगी और बिहार सरकार के जातिगत जनगणनाकर्मी बहुत जल्दी फिर से आपके दरवाज़े पर मिल जाएँगे आपकी जाति पूछने।
जी नहीं सिर्फ़ जाति नहीं वो आपसे आपके आय के श्रोत, कितनी ज़मीन है, कितना बड़ा घर है, कितना गाय है, कितना बकरी, कितना सुअर, रोटी कपड़ा मकान सब के बारे में पूछेंगे वो आपसे। असल में ये सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना है जिसे नीतीश कुमार ने बड़ी चालाकी से जातीय गणना का नाम दे दिया है।
गणना और जनगणना में अंतर:
गणना और जनगणना का शाब्दिक अंतर ये है कि गणना को अंग्रेज़ी में सर्वे बोलते हैं और जनगणना को सेन्सस बोलते हैं। गणना क्यूँ किया जा रहा है उसका मक़सद या उद्देश्य पहले से ही तय होता है जबकि जनगणना क्यूँ किया जा रहा है उसका उद्देश्य पहले से तय नहीं होता है। पटना उच्च न्यायालय ने भी अपने जज्मेंट में बिहार के जातीय गणना के फ़ेवर में यही तर्क दिया है कि बिहार की जातीय गणना का इसका उद्देश्य पहले से ही परिभाषित है इसलिए ये गणना है, जनगणना नहीं, और इसे रोका नहीं जा सकता है।
गणना और जनगणना में दूसरा अंतर ये होता है कि गणना केंद्र सरकार भी कर सकती है और राज्य सरकार भी कर सकती है लेकिन जनगणना सिर्फ़ केन्द्र सरकार ही कर सकती है। संवैधानिक रूप से हिंदुस्तान में जनगणना करवाने का अधिकार सिर्फ़ केंद्र सरकार को है। और इसी आधार पर न्यायालय में बिहार की जातीय जनगणना का विरोध किया जा रहा था क्यूँकि विरोध करने वालों को लग रहा था कि ये जनगणना है, गणना नहीं, सर्वे नहीं सेंसस है।
नीतीश कुमार ने बहुत सोच समझकर इसका नाम जातिगत जनगणना न रखकर जातीय गणना रखा। ये अंतर करना कितना महत्वपूर्ण है इसका अंदाज़ा आप सिर्फ़ इस बात से लगा सकते हैं कि पिछले 7 जून को जब कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री ने कर्नाटक जातिगत जनगणना के ऊपर ट्वीट किया तो उन्होंने जातिगत जनगणना नहीं बल्कि जातीय गणना शब्द का इस्तेमाल किया, हालाँकि उनका ट्वीट कन्नड़ भाषा में था। कन्नड़ भाषा में भी गणना और जनगणना के लिए अलग अलग शब्द है।
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शब्दों का जाल चाहे जो भी हो, लेकिन जातीय गणना यानी की जातीय सर्वे और जातीय जनगणना में कोई ख़ास अंतर नहीं होता है ख़ासकर अगर गणना सैम्पल सर्वे हो तो। ये अंतर हो सकता है, अगर जातीय गणना में सभी लोगों का सर्वे न होकर कुछ लोगों का सैम्पल सर्वे हो। ज़्यादातर सर्वे सैम्पल सर्वे ही होता है। सरकार के जितने भी आयोग हैं वो सब सर्वे ही करते हैं, सैम्पल सर्वे करते हैं। पूरे हिंदुस्तान में सिर्फ़ सेन्सुस या जनगणना ही एक ऐसा गणना है जो सैम्पल सर्वे नहीं है।
ठेठ भाषा में बताऊँ तो सर्वे और सेंसस यानी कि गणना और जनगणना में ये अंतर होता है कि आपको किसी ने बोला कि जीतेगा तो मोदी ही, आप तपाक में बोले बिल्कुल नहीं, सर्वे कर लो। सड़क पर चलते फिरते एक सौ या एक हज़ार लोगों से अपने पूछा कि बताइए भाई साहब कौन प्रधानमंत्री बनेगा। अब फ़र्ज़ कीजिए की सौ में से 60 लोगों ने बोला कि मोदी ही प्रधानमंत्री बनेगा। तो ये सौ लोगों का सैम्पल सर्वे हुआ जिसमें 60 प्रतिशत लोग चाहते हैं कि मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे।
ऐसे ही सड़क पर चलने वाले या किसी चाय की दुकान पर बैठने वाले लोगों की जाति का भी सैम्पल सर्वे कर सकते हैं आप। कौन सी जाती का कितना लोग फ़लाना फ़लाना सड़क पर चलता है या फ़लाना फ़लाना चाय की दुकान पर बैठता है। लेकिन वो सब सैम्पल सर्वे होगा।
ऐसे सैम्पल सर्वे आप भी कर सकते हैं, कई NGO या न्यूज़ चैनल भी करता है, शोध करने वाले छात्र भी करते हैं और राज्य सरकार भी करती है। आप सौ या हज़ार लोगों के सैम्पल का सर्वे कर सकते हैं, कोई शोध छात्र दस हज़ार लोगों का सैम्पल सर्वे कर सकता है, तो कोई NGO या न्यूज़ चैनल एक लाख लोगों का कर सकता है, और राज्य सरकार करोड़ों लोगों का कर सकता है। जिसकी जितनी शक्ति उतना उनके सर्वे के सैम्पल का साइज़ बड़ा होगा।
जातिगत जनगणना:
और जहां तक जातीय सर्वे का सवाल है तो इस देश में एक दो नहीं, या सिर्फ़ दर्जन भर नहीं, बल्कि सैकड़ों जातीय सर्वे हो चुका है। आज़ादी के बाद से ही देश में केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों के द्वारा जितने भी जातिगत समितियाँ बनाई गई थी उन सबने जातीय सर्वे ही किया था। फिर चाहे वो मंडल कमिशन हो या बिहार का महदलित कमिशन हो।
1993 में तो देश की सर्वोच्च न्यायालय ने भी देश के सभी केंद्र और राज्य सरकारों को कड़ा निर्देश दे दिया था कि सभी राज्यों में स्थाई पिछड़ा आयोग का गठन करना पड़ेगा। और ये पिछड़ा आयोग किस डेटा के आधार पर कोई नीति बनाती है? किस आधार पर अपने कार्यक्रम, योजना आदि तय करती है? सारे पिछड़ा आयोग जातीय सर्वे ही करती है और उस सर्वे के आधार पर ही सभी योजनाओं का प्रारूप तैयार होता है और उनका क्रियान्वयन भी होता है। हिंदुस्तान में OBC आरक्षण कैसे लागू हुआ? किस डेटा के आधार पर? जातीय गणना के डेटा के आधार पर, जातीय सर्वे के आधार पर लागू हुआ।
लेकिन नीतीश कुमार के जातीय गणना और देश के अलग अलग पिछड़ा आयोग द्वारा कराए गए जातीय गणना में या सर्वे में अंतर है। और ये अंतर बहुत बड़ा है। देश के अलग अलग पिछड़ा आयोग द्वारा कराया गया जातीय गणना सैम्पल सर्वे है लेकिन नीतीश कुमार का जातीय गणना सैम्पल सर्वे नहीं पूर्ण सर्वे है।
सैम्पल सर्वे और पूर्ण सर्वे में अंतर ऐसे समझिए कि फ़र्ज़ कीजिए कि आपके गाँव में दस हज़ार की आबादी है और उस दस हज़ार की आबादी में से आपने एक हज़ार लोगों को सलेक्ट कर लिया। उनका सर्वे किया, और उसके आधार पर ये बता दिया कि गाँव में इतने प्रतिशत लोग इस जाति के हैं, इतने प्रतिशत लोग के पास इतनी ज़मीन है, इतने प्रतिशत के पास गाड़ी है, इतने के पास इतना आय है, इतने के पास साफ पानी है, इतने के पास सरकारी नौकरी है इतने के पास कोई नौकरी ही नहीं है आदि आदि।
दस हज़ार में से जब एक हज़ार व्यक्तियों का सर्वे होगा तो उसे दस प्रतिशत सैम्पल साइज़ वाला सर्वे या गणना बोलेंगे। लेकिन अगर उसी गाँव का पूर्ण गणना होगा, तो उस गाँव के दस हज़ार में दस हज़ार सभी व्यक्तियों का सर्वे होगा, जिसे 100 प्रतिशत सर्वे वाला गणना बोला जाएगा। यानी की 100 प्रतिशत सर्वे वाला गणना जनगणना ही होता है फिर चाहे उसके लिए आप गणना शब्द का इस्तेमाल करें या जनगणना शब्द का इस्तेमाल करें। नीतीश कुमार ने इन्हीं शब्दों के जाल का फ़ायदा उठाया है।
जातिगत जनगणना क्यूँ?
अब आते हैं इस मुद्दे पर कि बिहार में नीतीश कुमार को जातिगत जनगणना करवाने की ज़रूरत क्या आन पड़ी?
एक तो इसमें कोई शक नहीं है कि बिहार ही क्यूँ पूरे हिंदुस्तान की राजनीति में जाति का सवाल सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और उसमें भी बिहार-यूपी में कुछ ज़्यादा ही है। बिना जाति जाने ना तो कोई पहले मुहर लगाता था और न ही अब कोई बटन दबाता है। और देश में जातिगत जनगणना करवाने की माँग कोई नयी माँग नहीं है। जब से 1990 के दशक में OBC आरक्षण लागू हुआ, उसका विरोध हुआ तब से जातिगत जनगणना की माँग हो रही है और हर साल वो माँग तेज़ी से बढ़ भी रही है।
1990 के दशक से पहले भी जितने पिछड़ा आयोग या पिछड़ी जाति के सवाल पर आयोगों का गठन हुआ था सबने जातिगत डेटा के अभाव की तरफ़ सरकार का ध्यान बढ़ाने का प्रयास किया, जातिगत जनगणना करवाने का सुझाव भी दिया और ये भी कहा कि आयोग के द्वारा करवाए गए छोटे से सैम्पल सर्वे से सही वस्तुस्थिति का पता नहीं चल सकता है और आयोग बड़ा सर्वे करवा नहीं सकती है क्यूँकि आयोग को बड़ा सर्वे करवाने का न तो अधिकार दिया जाता है, न पैसा और न ही उसके पास इतने कर्मचारी होते है की वो अपने दम पर देश की या राज्य की सभी जनसंख्या का पूरा सर्वे कर सके, 100 प्रतिशत वाला।
आज़ादी के बाद से ही सभी पिछड़े आयोगों द्वारा जातीय जनगणना करवाने के सुझाव को केंद्र सरकार हमेशा ठुकराते रही। ये भी ध्यान रखिएगा कि कोई भी आयोग सरकार को सिर्फ़ सुझाव दे सकती है माँग नहीं कर सकती है। देश में पहला पिछड़ा आयोग काका कलेलकर की अध्यक्षता में 29 जनवरी 1953 को ही बना दिया था।
मंडल कमिशन देश का दूसरा पिछड़ा आयोग था। 1993 में तीसरा आयोग बना और उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद सभी राज्यों में स्थाई पिछड़ा आयोग का गठन कर दिया गया। इसी तरह कर्नाटक सरकार ने अपने राज्य में देश का पहला राज्य-स्तरीय पिछड़ा आयोग 1952 में ही बना लिया था, उधर बिहार सरकार ने भी 1971 में मुंगेरीलाल की अध्यक्षता मे बिहार पिछड़ा आयोग का गठन किया।
पिछले साल भी बिहार में अति-पिछड़ों को स्थानीय निकाय चुनावों में आरक्षण देने के मुद्दे पर खूब ड्रामेबाज़ी हुई, पटना उच्च न्यायालय ने रोक लगाई, फिर फ़ौजी तौर पर एक पृथक पिछड़ा आयोग भी बनाया गया, आयोग ने महीने भर के अंदर सर्वे भी कर लिया, रिपोर्ट भी दे दिया और न्यायालय ने आरक्षण के साथ चुनाव का पर्मिशन भी दे दिया। ऐसा ही होता रहा है सभी पिछड़े आयोगों के द्वारा कराया गया फ़र्ज़ी सर्वे।
मुंगेरीलाल कमिशन का भी गठन ऐसे ही हुआ था। बिहार सरकार ने 1968 में पिछड़ी जातियों को पिछड़ा और अति-पिछड़ा सूची में बाँटा, 79 को अति-पिछड़ा की सूची में और 30 को अन्य पिछड़ा की सूची में। कोई आरक्षण विरोधी सरफिरा पटना उच्च न्यायालय चला गया, अपील करने, पटना उच्च न्यायालय ने बिहार सरकार के उस फ़ैसले पर रोक लगा दिया। बिहार सरकार ने मुंगेरीलाल कमिशन बनाया, मुंगेरीलाल कमिशन ने रिपोर्ट सौंपा और फिर बिहार सरकार के पिछड़ा और अति-पिछड़ा वर्ग में बाटने के निर्णय को पटना उच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।
इस तरह से बिहार में पहली बार कर्पूरी ठाकुर की सरकार ने OBC आरक्षण लागू किया था, पिछड़ा और अति-पिछड़ा को अलग अलग करके। पिछड़ा को अति-पिछड़ा से अलग करने के लिए लालू यादव उन्हें हमेशा कपटी कपूरी बोलते रहे। जैसा कि उन्होंने नीतीश कुमार द्वारा दलित और महदलित की अलग अलग सूची बनाने का विरोध किया था।
पिछड़ों के आरक्षण और उनके वर्गीकरण के सवाल पर, उनके सर्वे के सवाल पर ऐसे ड्रामेबाज़ी 1950 के दशक से आज तक चल रही हैं। और सम्भवतः आगे भी चलते रहेगी, जब तक कि भारत सरकार संवैधानिक रूप से पूरे हिंदुस्तान में जातिगत जनगणना नहीं करवा देती है। क्यूँकि अब बिहार में जातीय गणना हो भी जाएगी तो उसके बाद भी जब इस गणना के आधार पर सरकार कोई निर्णय लेगी तो उसके ख़िलाफ़ कोई भी न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा सकता है।
न्यायालय ऐसे लोगों की सुनेगी भी, क्यूँकि बिहार सरकार का जातिगत जनगणना, सर्वे है, सेंसस नहीं और सर्वे के आधार पर बनाई गई किसी भी नीति या योजना को चैलेंज किया जा सकता है। बिहार सरकार या देश के किसी भी अन्य राज्य सरकार के पास संवैधानिक अधिकार ही नहीं है कि वो देश के किसी भी हिस्से में जनगणना करवा सके और बिना जनगणना के, सर्वे के आधार पर किसी भी योजना के डिसिज़न को चैलेंज किया जा सकता है, कभी भी, किसी भी न्यायालय में।
फ़िलहाल आशा कीजिए कि बिहार में ये जातीय गणना, जो कि जातिगत सर्वे है वो न सिर्फ़ पूरा हो जाए बल्कि सार्वजनिक भी हो जाए ताकि बिहार का इतिहास ये गर्व कर सके कि आज़ाद हिंदुस्तान के इतिहास में पहला जातिगत जनगणना सार्वजनिक करने वाला राज्य बिहार ही था क्यूँकि जातिगत जनगणना तो कर्नाटक ने 2015 में कर लिया है लेकिन आज तक सार्वजनिक नहीं कर पायी है। इसके अलावा आंशिक रूप से तो तेलंगाना और छतीसगढ़ ने भी अपने अपने राज्य जातिगत जनगणना करवा लिया है लेकिन पूर्ण रूप से जातिगत जनगणना सार्वजनिक करने वाला राज्य तो बिहार ही होगा।

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