HomeHimalayasपहाड़ में महामारी: इतिहास के पन्नो से

पहाड़ में महामारी: इतिहास के पन्नो से

आज से सौ-डेढ़ सौ वर्ष पहले, बिना सड़क, और बिना स्वास्थ्य सुविधाओं के कैसे पहाड़ में लोग किसी भी महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ते थे।

पहाड़ों में महामारी की पहली दर्ज घटना 1823 की है जब केदारनाथ का कपाट खुलते ही रावल और मुख्य पुजारी महामारी की भेंट चढ़ गए थे। पहाड़ों में किसी भी प्रकार के महामारी को ‘महमारी’ ही कहते थे जिसके कई प्रकार थे जैसे गोला रोग, फूटकिया, और संजर।

“ऐसी ही महामारी की एक भयावह चित्र है अल्मोडा के पास गोरी नदी पर बसे आलम गाँव की जहां हाल ही में अस्कोट से आकर बसे एक परिवार के सात सदस्यों में से पाँच की मृत्यु हो गई।”

“महामारी प्रबंधन के लिए वर्ष 1850 में बदरी-केदार तीर्थयात्रा का पहला अस्पताल सर्वप्रथम श्रीनगर चट्टी में खोला गया”

घटना वर्ष 1877 की है। ग्राम प्रधान के भाई को बुख़ार हुआ और तीसरे दिन उसकी मृत्यु। दो हफ़्ते के अंदर मृतक की पत्नी, एक भाई के साथ बच्चों की भी मृत्यु हो गई। महामारी को फैलने से रोकने के लिए सभी मृतकों को जलाने के बजाय दफ़नाया गया। गाँव में फैली इस महमारी के लिए दोष दिया गया अस्कोट से आए एक प्रवासी परिवार को। हफ़्ते भर के भीतर प्रवासी की भी मृत्यु हुई, और उसकी पत्नी को तो दफ़नाया भी नहीं जा सका जबकि उसके एक बच्चे के मृत शरीर को घर से भेड़िया उठाकर ले गया।

महामारी

पहाड़ों में जब महामारी आती थी तो लोग घरों को छोड़कर गाँव के बाहर घास के बनी झोपड़ी या गुफाओं में जाकर रहते थे। माता पिता की मृत्यु के बाद अस्कोट से आए प्रवासी के बच्चे भी गाँव के बाहर चले गए। पर खाते क्या?

उक्त परिवार के 14 वर्षीय बड़े बेटे को दुबारा अपने घर आना पड़ा, अनाज लाने के लिए, जिसके कारण एक के बाद एक दो भाई महामारी के भेंट चढ़ गए। अब बची नौ वर्ष की लड़की जिसका नाम धनुली था, और उसके दो भाई जिनकी उम्र पाँच और डेढ़ वर्ष थी। डेढ़ वर्ष के भाई को उसने अपने हाथों से लकड़ी के सहारे कब्र खोदकर दफ़नाया जबकि दो अन्य भाइयों के मृत शरीर को जंगली जानवर उठा कर ले गए। गाँव के किसी व्यक्ति ने उनका साथ नहीं दिया।

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फिर अंग्रेज आएँ, लड़की और उसके भाई का इलाज हुआ, उन्हें उसके दादाजी तक पहुँचाया गया और जिसे सरकार और प्रशासन ने अपनी असीम सरलता के रूप में प्रोजेक्ट किया। सरकार द्वारा महामारी फैलने के कई कारण गिनाए गए। इन करणो में चूहों द्वारा संक्रमित मड़वा से लेकर नदी से चलने वाले मांडवा पिसाई की पनचक्की तक को ज़िम्मेदार माना गया। सरकार और सत्ता ने किसी भी मौत की ज़िम्मेदारी नहीं ली।

महामारी के बाद अंग्रेजों ने क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवा बेहतर करने का प्रयास किया। गढ़वाल में स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध न होने के कारण 1840 में बदरी-केदार तीर्थ पर आने वाले डॉ0 प्ले फेयर ने तीर्थयात्रियों की दयनीय दशा के सम्बंध में ब्रिटिश सरकार को एक प्रतिवेदन भेजा। फलस्वरूप गढ़वाल असिटेंट कमिश्नर बैटन ने यहाँ चेचक का टीका लगाने वाले वैक्सिनेटरों के द्वारा तीर्थयात्रियों में औषधियों का वितरण करना आरम्भ किया।

तत्पश्चात 1850 में बदरी-केदार तीर्थयात्रा का पहला अस्पताल सर्वर्प्रथम श्रीनगर चट्टी में खोला गया। और बाद में कई स्थानो, ख़ासकर तीर्थयात्रा मार्ग पर कंडी, श्रीनगर, उखिमठ, बद्रीनाथ, चमोली, जोशिमठ और कर्णप्रयाग में हॉस्पिटल व पौड़ी, बनघाट, कोटद्वार और बीरोंखाल में डिस्पेन्सरीज़ खोले गए। बीसवीं सदी के प्रारम्भ तक चालित डिस्पेन्सरी कैम्प का भी प्रबंध किया गया जिसे आज की भाषा में मूविंग हॉस्पिटल भी कह सकते हैं।

स्त्रोत: निम्नलिखित…

  1. “Mahamari Or The Plague in British Garhwal & Kumaun”, a report written by G. Hutcheson in the year 1898.
  2. “British Garhwal: A Gazetteer, Vol 36, District Gazetteers of the United Province of Agra and Oudh”, written by H. G. Walton.

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Sweety Tindde
Sweety Tinddehttp://huntthehaunted.com
Sweety Tindde works with Azim Premji Foundation as a 'Resource Person' in Srinagar Garhwal.
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