चमोली ज़िले के गोपेश्वर शहर के मध्य में स्थित गोपीनाथ मंदिर के प्रांगण में लगभग पाँच मीटर ऊँची एक त्रिशूल है जिसके बारे में कई किद्वंतियाँ और ऐतिहासिक कहानियाँ प्रसिद्ध है। इस त्रिशूल के बारे में ऐसे धरना है कि इसे तर्जनी अंगुली से छूने से यह हिलने लगती है जबकि पूरा ज़ोर देकर हिलाने का प्रयास हमेशा विफल होता है। इसी तरह का एक और त्रिशूल उत्तरकाशी के बाडाहाट और एक नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में भी स्थित है। 12वीं सदी के दौरान इन तीनों स्थानों पर नेपाली मल्ल वंश का शासन था।
त्रिशूल में फड़सा:
भगवान शिव के त्रिशूल के किसी भी ऐतिहासिक प्राचीन चित्र या भित्तचित्र या मूर्ति में त्रिशूल पर फरसा बंधा हुआ नहीं मिलता है। लेकिन गोपेश्वर स्थित गोपीनाथ मंदिर के त्रिशूल पर फरसा बंधा हुआ है। ज़्यादातर ऐतिहासिक वर्णनों में भगवान शिव के त्रिशूल के साथ डमरू बंधे होने की चर्चा मिलती है लेकिन फरसा का ज़िक्र कहीं नहीं दिखता है। आज भी तुंगनाथ, रुद्रनाथ और केदारनाथ समेत किसी भी मंदिर में भगवान शिव के त्रिशूल पर फड़सा नहीं है। गोपीनाथ मंदिर के प्रांगण में आज भी भगवान शिव की कई प्राचीन मूर्तियाँ रखी हुई है जिसमें किसी भी मूर्ति में भगवान शिव के त्रिशूल के साथ फड़सा नहीं है।
सवाल उठता है कि फिर गोपीनाथ मंदिर के त्रिशूल पर फड़सा कैसे आया। यह फड़सा कम से कम वर्ष 1971 तक यहाँ नहीं था। वर्ष 1971 के चमोली ज़िले के गज़ेटियर में इस त्रिशूल का एक चित्र है जो 1960 के दशक के दौरान लिया गया था। इस चित्र में त्रिसुल पर न तो कोई फड़सा था और न ही डमरू था जबकि उसके पैर में एक बर्तन-नुमा एक अभिलेख दिखता था जो आज अपने स्थान पर स्थित नहीं है।
त्रिशूल का इतिहास:
9वीं सदी के अंतिम वर्षों में जब कट्यूरि शासन की राजधानी जोशीमठ स्थान्तरित हुई तो उसी दौरान गोपेश्वर में गोपीनाथ मंदिर की स्थापना हुई। 12वीं सदी के अंतिम वर्षों के दौरान जब नेपाल के मल्ल वंश ने केदार-खंड क्षेत्र पर अपना अधिकार किया तो गोपीनाथ मंदिर में एक त्रिशूल स्थापित किया। नीचे बर्तन-नुमा एक अभिलेख पर नेपाली राजा अनेक मल्ला द्वारा वर्ष 1191 में इस क्षेत्र पर विजय का वर्णन है। इसी तरह का एक अन्य त्रिशूल उत्तरकाशी के बाडाहाट में भी स्थित है जो मल्ल वंश की राजधानी हुआ करती थी। एक तीसरा त्रिसुल नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में स्थित है जिसका भार लगभग एक मण हुआ करता था। (स्त्रोत)
इन तीन में से दो त्रिशूल (उत्तरकाशी के बाडाहाट और गोपेश्वर का गोपीनाथ) की स्थापना नेपाली के बुद्ध अनुयायी राजा अनेक मल्ला ने 12वीं सदी के दौरान स्थापित किया था। लेकिन गढ़वाल में मल्ल वंश का शासन बहुत जल्दी ख़त्म हो गया। इसके बाद इस क्षेत्र में जैन और वैष्णव सम्प्रदाय का प्रभाव अधिक बढ़ गया था। इस दौरान गढ़वाल छोटे-छोटे राजा-रजवाड़ों में विखंडित हो गया जिसे आगे चलकर गढ़वाल के पाल वंश ने एकीकृत किया।
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गोपीनाथ मंदिर:
गोपीनाथ मंदिर पंच-केदारों में से एक रुद्रनाथ मंदिर का हिस्सा है। भगवान रुद्रनाथ की डोली सर्दी के मौसम के दौरान रुद्रनाथ मंदिर से लाकर इसी गोपीनाथ मंदिर में रखी जाती है। 9-10वीं सदी के दौरान निर्मित इस मंदिर के क्रियान्वयन के लिए मल्ला नागपुर क्षेत्र के गुँथ गाँवों से भूमिकर मिलता था। केदारनाथ और बद्रीनाथ मंदिर की तरह इस मंदिर का भी मुख्य पुजारी दक्षिण भारत से होते थे। गोपीनाथ मंदिर का मुख्य पुजारी मैसूर शहर के बिरसैब सम्प्रदाय से होते थे जिन्हें जँगम गोसाईं बोला जाता था। हालाँकि आज इस मंदिर के मुख्य पुजारी स्थानीय पहाड़ी है और इनका केदारनाथ या बद्रीनाथ के पुजारियों से कोई प्रत्यक्ष सम्बंध नहीं है। (स्त्रोत)
ऐतिहासिक दस्तावेज़ों और भारतीय पुरातत्व विभाग के अनुसार इस मंदिर का आख़री बार मरम्मत 19वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों के दौरान हुआ था। तब से आज तक इस मंदिर के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं किया गया है। वर्ष 1920 में भारतीय पुरातत्व विभाग ने इसे राष्ट्रीय ऐतिहासिक धरोहर घोषित कर दिया था। हिंदुस्तान में किसी भी राष्ट्रीय ऐतिहासिक धरोहर के साथ किसी भी प्रकार का छेड़छाड़ करना क़ानूनन अपराध है। लेकिन इसके बावजूद गोपीनाथ मंदिर के प्रांगण में स्थित इस ऐतिहासिक धरोहर के साथ छेड़छाड़ करने वाले के उपर कोई कार्यवाही क्यूँ नहीं किया गया?
त्रिशूल और पौराणिक कहानियाँ:
एक मान्यता के अनुसार गोपीनाथ मंदिर में स्थित इस त्रिशूल को भगवान शिव ने कठोर तपस्या के बाद भगवान परशुराम को दिया था। भगवान शिव ने परशुराम को इसके अलावा कई अन्य हथियार भी दिए थे। भगवान परशुराम ने यह त्रिशूल इसी मंदिर में छोड़ दिया और सिर्फ़ फड़सा से क्षत्रिय वंश का नाश कर दिया था। एक अन्य मान्यता के अनुसार गोपीनाथ मंदिर का यह वही त्रिसुल है जिससे भगवान शिव ने भगवान कामदेव को भस्म किया था।

बाडाहाट का काशी विश्वनाथ मंदिर:
वर्तमान उत्तरकाशी ज़िले के बाडाहाट में स्थित काशी विश्वनाथ मंदिर के प्रांगण में 24 फ़िट ऊँचा एक त्रिशूल है जो गोपीनाथ मंदिर के त्रिशूल की तरह अष्टधातु से बना हुआ है और इसके बारे में भी यह मान्यता है कि इसको तर्जनी अंगुली से छूने मात्र से इसमें कम्पन होने लगता है।
इस मंदिर में अध्याशक्ति माता की पूजा की जाती है। मान्यता है कि जब माँ दुर्गा ने महिषासुर का वध किया था तब उन्होंने महिषासुर का वध करने के बाद पानी त्रिशूल धरती की ओर फेंक दिया था और वह इस मंदिर में आकर गिरा था। गोपीनाथ मंदिर के विपरीत इस मंदिर के माँ पार्वती की पूजा होती है।

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