साल 2013 में जब से अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बने है तब से दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने का विवाद बार बार उठ रहा है। कभी दिल्ली पुलिस पर राज्य सरकार के अधिकार के बहाने, कभी MCD और NDMC स्कूलों में शिक्षा व्यवस्था के सहारे और अब 2023 में विपक्षी एकता के बहाने।
इस विषय पर हमारा विडीओ News Hunters के साथ: https://www.youtube.com/watch?v=edR0lIq3YqY
विपक्षी एकता के सवाल को थोड़ी देर के लिए छोड़ दें तो दिल्ली पुलिस, MCD और NDMC के बहाने दिल्ली में राज्य सरकार के अधिकारों पर उठ रहे सवालों का इतिहास कम से कम साल 1911 तक तो ज़रूर जाता है, जब अंग्रेजों ने हिंदुस्तान की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली कर दिया था।
दिल्ली पर पहला विवाद:
उस दौर में विवाद यह था कि क्या पुरानी दिल्ली का प्रशासन नई दिल्ली से अलग रखा जाए? ज़्यादातर अंग्रेजों का मानना था कि चुकी नयी दिल्ली को बहुत सारी रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए पुरानी दिल्ली पर निर्भर रहना पड़ता था इसलिए नयी दिल्ली को पुरानी दिल्ली से अलग नहीं कर सकते है। उस दौर में पुरानी दिल्ली, नयी दिल्ली को सब्ज़ी से लेकर दूध तक और नौकर से लेकर तबेला तक का सप्लाई किया करता था। वहीं से जन्म लेता है पुरानी दिल्ली और नयी दिल्ली का कॉन्सेप्ट।
पुरानी दिल्ली और नयी दिल्ली दोनो का देख-रेख पहले पंजाब सरकार चला रही थी, Punjab Municipal Act 1911 के तहत। लेकिन फ़िरंगी साहबों की विशेष ज़रूरतों के लिए NDMC भी बना दिया गया था, जो सिर्फ़ नयी दिल्ली का देख-रेख करती थी, स्पेशल वाला। इसके पहले दिल्ली में फ़िरंगी सेना की छावनी की देखरेख दिल्ली Cantonment Board करती थी। मतलब अब दिल्ली की देखरेख तीन संस्था कर रही थी। NDMC फ़िरंगी साहबों के नयी दिल्ली का, DCB फ़िरंगी सैनिकों के Cantonment क्षेत्र का जहां आजकल दिल्ली विश्वविद्यालय का साउथ कैम्पस है, और पंजाब सरकार को पुरानी दिल्ली समेत पूरी दिल्ली का कचडा साफ करना होता था।
इसे भी पढ़े: 100 Years of DU in 50 Images: Photo Stories
पुरानी दिल्ली में मुग़लों की राजधानी हुआ करती थी और नयी दिल्ली में अंग्रेजों की राजधानी बनी। और दोनो के ऊपर पहरा देने के लिए DCB यानी कि दिल्ली Cantonment Board। दिल्ली की सुरक्षा हमेशा केंद्र सरकार के हाथ में ही रही, DCB के समय से दिल्ली पुलिस के समय तक।
दिल्ली पर दूसरा विवाद:
दिल्ली के शासन-प्रशासन के ऊपर दूसरा विवाद शुरू हुआ आज़ादी के समय, जब दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। 1952 में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने के बाद दिल्ली सरकार और भारत सरकार के बीच कई झगड़े हुए। भारत सरकार को नयी दिल्ली की देख-रेख के लिए दिल्ली सरकार को ख़ैरात देना पड़ रहा था तो दिल्ली सरकार भारत सरकार पर आरोप लगा रही थी कि आपके लुटियन दिल्ली के नख़रे बहुत हैं, साफ पानी, साफ सड़कें, अच्छे स्कूल, अच्छे हॉस्पिटल, और ऊपर से फूल-पत्ती, हरी हरियाली, पार्क-तालाब, इतना सम्भव नहीं है। और वैसे भी दिल्ली सरकार इतना करती भी कहाँ से? दिल्ली के पास न कोई उद्धोग था न कोई खाद-खाद्यन और ना ही खेती की ज़मीन बची थी। कस झगड़े ने ऐसा मोड़ लिया कि 1956 में दिल्ली से राज्य का दर्जा ही छीन लिया गया।
इन झगड़ों में नुक़सान हमेशा हो जाती है बेचारी दिल्ली की। तब भी नुक़सान हुई थी दिल्ली की ही और आज भी नुक़सान हो रही है दिल्ली की ही। जिस दिल्ली के घर-घर तक यमुना का पानी पहुँचाने के लिए शाहजहाँ ने हापुड़ से नहर खोदकर दिल्ली तक पानी पहुँचाया था उसी दिल्ली में साल 2023 में पानी ने घर-घर को डुबो दिया।
राज्यों का गठन:
दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच झगड़ों के उसी दौर में हिंदुस्तान में राज्यों का गठन भी हो रहा था। दक्षिण भारत में भाषा के आधार पर राज्य बनने के लिए आंदोलन चल रहा था, उत्तर भारत में रजवाड़ों को एक करने के लिए झगड़े हो रहे थे और दिल्ली में MCD के ऊपर लड़ाई हो रहे थे। Indian State Reorganisation Committee का गठन हुआ, अलग अलग आधार पर राज्य बने, तमिलनाडु में तमिल भाषा, गुजरात में गुजराती, और महाराष्ट्र में मराठी भाषा के आदर पर राज्य बने। उधर बंगाल, ओड़िसा को तो अंग्रेज पहले ही बनाके जा चुके थे। बाक़ी का उत्तर भारत पूरा हिंदी-हिंदी था। लेकिन इसका ये मतलब नहीं था कि उत्तर भारत में भाषा के आधार पर राज्य बनाने की माँग नहीं हो रही थी। मिथिला भाषा वाले मिथलंचल माँग रहे थे, भोजपुरी वाले भोजपुर, और ब्रज वाले ब्रज-प्रदेश माँग रहे थे।
ब्रज भाषा वाले भरतपुर राजा और अलवर राजा के क्षेत्र के साथ साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के कुछ क्षेत्रों के साथ दिल्ली को मिलाकर अलग ग्रेटर दिल्ली या ब्रज प्रदेश या हरेंन दिल्ली के नाम से अलग राज्य की माँग कर रहे थे, जो कि उन्हें कभी नहीं मिला। ब्रज प्रदेश की माँग को स्टेट Reorgansiation कमिशन ने ठुकरा दिया, जैसे शंकरराव देव समिति ने 1949 में ठुकरा दिया था। वैसे दिल्ली NCR धीरे धीरे उसी ब्रज प्रदेश पर अतिक्रमण किए जा रही है। पंजाब वाले भी दिल्ली को पंजाब में मिलाने की माँग कर रहे थे लेकिन वो होना नहीं था क्यूँकि पंजाब के तो वैसे ही टुकड़े-टुकड़े होने बाक़ी थे, हरियाणा और हिमांचल बनने बाक़ी थे।
1956 के बाद दिल्ली, राज्य नहीं रहा, न यहाँ का कोई मुख्यमंत्री रहा, न विधायक और न ही विधानसभा। अब दिल्ली भारत सरकार चला रही थी, नेहरू सरकार। दिल्ली सरकार की जगह म्यूनिसिपल कॉर्परेशन ओफ़ दिल्ली, यानी MCD बनाया गया, 1956 में। NDMC और DCB पहले से ही थी, जो पहले से ही भारत सरकार के अंडर में काम कर रही थी। दिल्ली सरकार ने MCD के गठन का विरोध किया था, क्यूँकि इससे दिल्ली सरकार को अधिकार के साथ साथ उनको मिलने वाला फंड भी अब MCD और दिल्ली सरकार में बटने वाला था। MCD के अलावा दिल्ली में पहले से ही NDMC, और DCB, के अलावा कुछ और स्वतंत्र ट्रस्ट इतने हो गए थे दिल्ली के शासन प्रशासन को चलाने के लिए इनके बीच अक्सर आपसी झगड़े होते रहते थे, कभी अधिकारों के लिए, और कभी फंड के लिए भी। इन सबसे तंग आकर अंततः दिल्ली को पूरी तरह केंद्र सरकार के हाथ में दे दिया गया।
वैसे भी जब हिंदुस्तान की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली ट्रान्स्फ़र किया गया था तब भी यही तर्क दिया गया था कि भारत की राजधानी बिल्कुल अलग होनी चाहिए, बिल्कुल स्वतंत्र, सभी राज्यों से स्वतंत्र। लेकिन कलकत्ता बंगाल सरकार के अधीन थी। भारत की राजधानी को बिल्कुल स्वतंत्र करने के लिए राजधानी को दिल्ली लाया गया और अब दिल्ली का बँटवारा किया जा रहा था। दिल्ली सरकार और भारत सरकार के बीच में। MCD, NDMC और DCB के बीच में। इसलिए अब फ़ैसला लिया गया कि दिल्ली को फिर से बिल्कुल स्वतंत्र कर दिया जाय भारत सरकार के अधीन।
दिल्ली पर क़ब्ज़ा करने के लिए नेहरू सरकार ने कुछ अच्छे तर्क भी दिए थे। मसलन फ़्रांस की राजधानी पेरिस पर भी फ़्रांस की केंद्र सरकार का अधिक अधिकार होता था। ऐसे ही इंग्लंड में भी लंदन का यही हाल था तो फिर दिल्ली का वो हाल क्यूँ नहीं हो? वैसे भी राजधानी में नेता के अलावा सभी देश के प्रतिनिधियों का आवास से लेकर ऑफ़िस तक होता है, तो भारत का दुनियाँ में भोकाल बनाने के लिए दिल्ली का भोकाल बनाना ज़रूरी भी था। और भारत का भोकाल तो उस समय खुद नेहरू ही थे, तो दिल्ली तो नेहरू के हाथों में ही होना चाहिए थी।
नयी दिल्ली पर अब दिल्ली के आधुनिक शहंशाहों का राज शुरू हो गया था, भारत के शहंशाहों का, कनाट प्लेस में मार्केटिंग होती थी, लुटियन दिल्ली में बहस और थककर दिल्ली रीज़ में शैर-सपाटे। अब दिल्ली वो तानाशाह चला रहा था जिसे खुद डर था कि कहीं वो तानाशाह न बन जाए। ये तानाशाह, लोगों को आगाह भी करता था, कि कहीं दिल्ली तानाशाह के हाथ में ना चला जाए। और अब 21 वीं सदी में दिल्ली को ये दौर देखना पड़ रहा है कि जब संसद भवन के सामने दण्डवत होकर हवन करने वाला और गली-गली में झाड़ू लगाने का नाटक करने वाला दो-दो तानाशाह लोगों को लोकतंत्र का पाठ पढ़ा रहा है। और ये दोनो तानाशाह आपस में दिल्ली के लिए कुत्ते-बिल्ली की तरह लड़ रहे हैं, मतलब लोकतंत्र के लिए, इनके शब्दों में। दिल्ली के लिए नहीं, दिल्ली पर राज करने के लिए। लोकतांत्रिक राज करने के लिए। दिल्ली तो मस्त डूबी पड़ी है, बाढ़ के पानी में भी और सस्ता व सत्ता के नशे में भी। एक बोतल पर एक बोतल फ़्री देने, और किचन से लेकर बाथरूम तक टंकी वाला फ़्री पानी देने के बाद दिल्ली अब दिल्लीवासियों को बेडरूम और ड्रॉइंग रूम तक फ़्री पानी पहुँचा रही है। नहाना है नहाओ, तैरना है तैरो, और डूब मरना है तो डूब मारो, वैसे भी सड़क से लेकर गाड़ी तक तो डूब ही चुकी है।
फ़िलहाल वापस चलते हैं 1991 में, जब दिल्ली को फिर से राज्य का दर्जा के साथ साथ मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक वापस मिल गए थे।। लेकिन 1991 से पहले दिल्ली जल चुकी थी। जिस दिल्ली ने देश के विभाजन के समय पाकिस्तान से आए हिंदुओं को पनाह दिया था और ब्रज से आए मुसलमानों को जामिया नगर और बटला हाउस में बस्ती दिया था उसी दिल्ली में सिखों का क़त्लेआम हो चुका था, दिल्ली के एक और शहंशाह की मौत के बाद। वैसे इतिहास में दिल्ली में क़त्लेआम अक्सर शहंशाह की मौत से पहले होता था। आक्रमणकारी दिल्ली घुसते थे, क़त्लेआम करते हुए, शहंशाह को भागने का मौक़ा मिलता था तो भाग जाता था नहीं तो मारा जाता था। लेकिन 1984 में पहले दिल्ली का शहंशाह मारा गया और उसके बाद दिल्ली मारा गया।
इस मरी हुई दिल्ली को एक की जगह दो से तीन शहंशाहों ने आपस में बाटने का फ़ैसला लिया। ऐसे नहीं, 1987 में पहले समिति बनाने का नाटक किया गया, फिर समिति ने रिपोर्ट सौंपा और फिर वो सब कुछ किया गया जिसकी शुरुआत देश में आर्थिक उदारीकारण के साथ पहले ही शुरू हो चुकी थी। मनमोहन सिंह वाली उदारीकारण, देसी कोंपनियों के साथ साथ, विदेशी कोंपनियाँ आएगी, सरकार के अधिकार को कम किया जाएगा, सरकारी संस्थाओं को बेचा जाएगा, स्वतंत्रता के नाम सरकार से लेकर संस्कार तक सब अपनी अपनी ज़िम्मेदारी से पीछे हटेंगे।
इसलिए दिल्ली को फिर से मुख्यमंत्री दे दिया गया, विधायक दे दिया गया और साथ में लेफ़्टिनेंट गवर्नर भी दिया गया। दिल्ली के लोगों को न तो ये बताया गया था कि 1956 में उनसे मुख्यमंत्री, विधायक या लेफ़्टिनेंट गवर्नर छिना क्यूँ गया था? और न ही ये बताया गया कि 1991 में वापस क्यूँ दे दिया गया। वैसे भी दिल्ली में दिल्ली वालों से शहंशाह ने पूछा भी कब था कि दिल्ली पर कौन राज करेगा। मुग़ल दौर में भाई-भाई को काट देता था और जो बच जाता था, दिल्ली उसे अपना लेती थी, युद्ध में जो जीत जाता था दिल्ली उसे अपना लेती थी। आज भी तो दिल्ली सबको अपनाए हुए है इक्सेप्ट बिहारियों को। यहाँ आज भी बिहारियों को बिहारी और बंगालियों को बंगाली ही बोला जाता है। बंगालियों को तुम क्या बंगाली बोलोगे, वो तो जहां भी जाते हैं खुद को भी बंगाली ही बोलते हैं, बंगाली कॉलोनी बासा लेते हैं, और बंगाली मार्केट भी बासा लेते हैं। मतलब कम्प्लीट इंडिपेंडेंस, बंग देश नहीं मिले तो भंग प्रदेश।
लेकिन इस बार एक गुजराती और एक हरियाणवी ने दिल्ली में बंग-भंग मचाए हुए है। दोनो को दिल्ली चाहिए, पूरी की पूरी चाहिए। दिल्ली की सड़कों पर निर्भया कांड हो या दामिनी, दिल्ली पुलिस के कंधे पर बंदूक़ रखके दिल्ली सरकार और भारत सरकार दोनो एक दूसरे के ऊपर बस फ़ायरिंग करते रहती हैं। दिल्ली बाढ़ में डूबे तो हरियाणा का पानी ज़िम्मेदार और प्रदूषण से मरे तो पंजाब का पराली ज़िम्मेदार।
जब से मोदी सरकार 2014 में सत्ता में आयी है दिल्ली के केजरीवाल सरकार उनके आँखों की किरकिरी बनी हुई है। मोदी सरकार 2015 से ही दिल्ली सरकार के अधिकारों को कम करने का हर सम्भव प्रयास कर रही है। अगस्त 2016 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक वर्डिक्ट दिया, फ़रमान सुनाया कि दिल्ली का लेफ़्टिनेंट गवर्नर दिल्ली के शासन-प्रशासन में कोई भी फ़ैसला ले सकता है, किसी भी अधिकारी का कहीं भी ट्रान्स्फ़र कर सकता है वो भी बिना दिल्ली सरकार से पूछे हुए। दिल्ली का लेफ़्टिनेंट गवर्नर किसी चुनाव से नहीं चुना जाता है, बल्कि केंद्र सरकार ऐसे ही, अपने मन से ही, किसी को भी चुन देती है, किसी को भी दिल्ली का लेफ़्टिनेंट गवर्नर बना देती है, नॉजीब जंग क्यूँ बनाया? ऐवें ही। तजेंद्र खन्ना दो बार क्यूँ बनाया? ऐवें ही, विनय कुमार सक्सेना क्यूँ बनाया? ऐवें ही। दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ 2017 में दिल्ली सरकार देश की सर्वोच्च न्यायालय गई, 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले को रद्द कर दिया, और बोला कि दिल्ली का लेफ़्टिनेंट गवर्नर बिना दिल्ली सरकार के इजाज़त के दिल्ली के शासन प्रशासन के लिए कोई फ़ैसला नही कर सकती है। ये मोदी सरकार की हार थी, लेकिन मोदी सरकार भी पीछे क्यूँ रहती? पर सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को रेजेक्ट भी तो नहीं कर सकती थी ना।
अब मोदी सरकार संसद में क़ानून बदलके दिल्ली को हथियाने का प्रयास कर रही है। लोक सभा में NDA का बहुमत है लेकिन राज्य सभा में NDA का बहुमत नहीं है। पर देश में क़ानून बदलने के लिए तो लोकसभा और राज्यसभा दोनो जगह क़ानून को पास होना होगा। उधर केजरीवाल जी इस क़ानून को पास होने से रोकने के लिए परिक्रमा शुरू कर चुके हैं, उन सभी पार्टियों के आगे पीछे नाच रहे हैं जो मोदी को इस नए क़ानून को पास करने से रोक सकती है। मोदी सरकार के इस क़ानूनी संसोधन ने ऐसा जादू का छड़ी घुमाया है कि जिस केजरीवाल की राजनीति ही कांग्रेस को गाली देने से शुरू हुई थी, वही केजरीवाल अब दस साल के भीतर कांग्रेस के सामने घुटने टेक रहा है, INDIA में शामिल हो गया है, सिर्फ़ इस लालच में कि उसकी दिल्ली सरकार के अधिकारों को कम करने वाला क़ानून राज्य सभा में पास न हो, INDIA मोदी सरकार के ख़िलाफ़ राज्य सभा में उस क़ानून संसोधन के विपक्ष में वोट करे।

Hunt The Haunted के Facebook पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें (लिंक)