बिहार में दुर्गा पूजा और ख़ासकर दुर्गा पंडाल का प्रचलन बहुत ज़्यादा पुराना नहीं है। दुर्गा पूजा के नाम पर बिहार में पहले सिर्फ़ रामायण लीला और रावण बध हुआ करता था। और दुर्गा माँ का पूजा, बड़े बड़े लोगों के घरों की चारदीवारों तक ही सीमित हुआ करता था। फिर लगभग दो-ढाई सौ साल पहले 18वीं सदी के दौरान बंगाली कायस्थ समाज के लोग ब्रिटिश व्यापारियों के एजेंट के रूप में पटना और बिहार के अलग अलग हिस्सों में बसने लगे।
बंगाली व्यापारी पहले भी बिहार के अलग अलग हिस्सों में और ख़ासकर पटना में बंगाली चावल लाते थे और उसे पश्चिम भारत से आए व्यापारियों को बेच देते थे और बदले में बिहार से तेल, अफ़ीम आदि लेकर बंगाल जाते थे लेकिन मुग़ल काल के ये बंगाली व्यापारी पटना में मुश्किल से एक दो महीने के लिए रुकते थे, फसल कटने के बाद। एक बार चैत में और एक बार कातिक में।
लेकिन ब्रिटिश काल के दौरान अब बंगाली व्यापारी पटना में स्थाई तौर पर बसने लगे थे। बाद में बड़ी संख्या में बंगाली कर्मचारी भी पटना जमालपुर आदि जगहों पर बसने लगे। इन बंगालियों ने बिहार में पंडाल वाला दुर्गा पूजा शुरू किया था। पटना में दुर्गा पूजा पंडाल बनने लगा, ढाक बजने लगा और विसर्जन भी होने लगा। लेकिन ये सब दुर्गा पूजा बंगाली का, बंगाली के द्वारा और बंगाली के लिए हुआ करता था।
बिहारी दुर्गा पूजा तो पहले बिहार के ज़मींदार शुरू किए वो भी मंदिर में और बाद में बिहारी दुर्गा पूजा समितियाँ भी बनने लगी। हालाँकि इसी के साथ साथ बिहार का बिहारी पहचान वाला दुर्गा पूजा और रामलीला पिछले कुछ दशकों से धीरे धीरे ग़ायब होने लगा है। मतलब बंगाली दुर्गा पूजा ने बिहार के रामायण लीला की परम्परा को धीरे धीरे धीरे निगल लिया है। कभी लाल बाबू का कूचा का रामलीला पूरे पटना में फ़ेमस हुआ करता था और आज ग़ायब है।
आपको तो सम्भवतः यह भी पता नहीं होगा कि पटना का सबसे पुराना बिहारी दुर्गा पूजा समिति कौन सा है? आज न्यूज़ हंटर्ज़ पर हमारी बपौती में बिहार में दुर्गा पूजा की पूरी कहानी इतिहास के पन्नों से।
पटना में बंगाली :
पटना का सबसे पुराना दुर्गा पूजा, बंगाल से आकर पटना बस रहे बंगाली व्यापारी परिवारों में से एक सहा परिवार ने लगभग ढाई सौ साल पहले शुरू किया था जो आज भी बड़ी देवी के नाम से प्रसिद्ध है। पटना का दूसरा सबसे पुराना दुर्गा पूजा छोटी देवी भी बंगालियों ने ही शुरू किया था। आज भी इनका पंडाल निर्माता से लेकर मूर्ति निर्माता और प्रसाद से लेकर पंडित और यहाँ तक कि ढाक यानी कि ढोल बजाने वाले भी सभी बंगाल से आते हैं। ढाक बजाने वाले मुर्शिदाबाद से आते हैं और मूर्ति व पंडाल बनाने वाले कृष्णा नगर से आते हैं।
आज भी पटना Murufganj का बड़ी देवी दुर्गा पूजा सबसे पुराना दुर्गा पूजा है जो लगभग 275 साल पुराना है। शुरू में यह पूजा बंगाली साह परिवार का व्यक्तिगत पूजा तक सीमित था जिसमें शहर के अन्य बंगाली हिस्सा लेते थे। और आज भी ये दुर्गा पूजा समिति बंगालियों के द्वारा ही संचालित किया जाता है।

साल 1818 में अवणिकांत सहा ने बड़ी देवी जी पूजा प्रबंधक समिति का गठन किया जो पूजा का सामूहिक आयोजन करने लगा। हालाँकि अभी भी सहा परिवार इस पूजा समिति के प्रमुख सदस्य थे और प्रमुख फंडर भी। लेकिन साल 1953 से इस पूजा के आयोजन के लिए स्थानीय व्यापारीयों ने चंदा करना शुरू कर दिया क्यूँकि साह परिवार आर्थिक रूप से अब उतने सामर्थ्य नहीं रहे थे कि अकेले पूजा का सारा खर्च उठा सकते थे। और आज सिख और यहाँ तक कि मुस्लिम धर्म के मानने वाले लोग भी इस पूजा समिति के सदस्य हैं।
पटना का दूसरा सबसे पुराना दुर्गा पूजा और सबसे पुराना सामूहिक दुर्गा पूजा महराजगंज का माँ छोटी देवी का है जो लगभग 170 साल पुराना है और जिसे रामचंद्र महतो ने शुरू किया था। बड़ी देवी पटना सिटी के पूर्वी दरवाज़ा पर है और छोटी देवी पटना के पश्चिमी दरवाज़े पर विराजमान हैं। यहाँ भी यानी कि माँ छोटी देवी का मूर्ति बनाने वाला कलाकार बंगाल के कृष्णा नगर से ही आता है, जहां से बड़ी देवी का मूर्ति और पंडाल बनाने वाला कलाकार आता है। मतलब ये भी बंगाली ही है।
बिहारी दुर्गा पूजा:
अभी भी पटना का स्थानीय दुर्गा पूजा का आयोजन पटना के स्थानीय लोगों के द्वारा शुरू नहीं किया जा सका था। दुर्गा आश्रम का श्री दुर्गा पूजा समिति पटना का सबसे पुराना स्थानीय दुर्गा पूजा समिति है, यानी कि पटना का सबसे पुराना बिहारी दुर्गा पूजा समिति है जो आज तक दुर्गा पूजा का आयोजन कर रहा है। इस समिति का गठन साल 1861 में हुआ था। यानी की दुर्गा आश्रम गाली का दुर्गा पूजा 162 वर्ष पुराना हो गया है। हालाँकि कुछ लोगों का ये भी मानना है कि यह 150 वर्ष ही पुराना है।
चाहे 150 साल पुराना हो या 162 साल पुराना, शेखपुरा के दुर्गा आश्रम गाली में स्थित श्री दुर्गा पूजा समिति पटना का सबसे अधिक पुराना बिहारी दुर्गा पूजा समिति है। बड़ी देवी और छोटी देवी दुर्गा पूजा के विपरीत यहाँ का पंडाल या मूर्ति बनाने वाले कलाकार बंगाल से नहीं बल्कि झारखंड से आते हैं और वो भी मुस्लिम है।
मुस्लिम मूर्ति निर्माता मोहम्मद शम्सुद्दीन शेखपुरा का दुर्गा माता की मूर्ति कम से कम साल 2004 से बना रहे थे। इस साल भी बोरिंग रोड चौराहे का पंडाल मोहम्मद इमतेयाज ने बनाया है और पटना के ज़्यादातर पंडाल और मूर्ति निर्माता झारखंड से ही आते हैं। हालाँकि वो बात अलग है कि ये झारखंडी मूर्ति और पंडाल निर्माता बंगाल से ही मूर्ति और पंडाल बनाना सीखे हैं। इस साल गांधी मैदान में दहन होने वाले रावण को भी एक मुसलमान मोहम्मद अहमद ही बना रहे हैं।
दुर्गा पूजा और ज़मींदार:
पटना के बाहर बिहार के अन्य भागों में बिहारी दुर्गा पूजा का आयोजन शुरुआती दौर में ज़मींदार के घरों में आयोजित होता था या फिर ज़मींदार द्वारा बनवाए गए मंदिरों में दुर्गा पूजा का आयोजन होता था। ज़मींदारों के महलों और मंदिरों में होने वाले इन दुर्गा पूजा में आमंत्रण पत्र छपवाए जाते थे, और क्षेत्र के प्रमुख लोगों और मुख्यतः ब्रिटिश अधिकारियों को इन आमंत्रण पत्रों के द्वारा पूजा में आमंत्रित करते थे। दुर्गा पूजा और सरस्वती पूजा के दौरान ये आमंत्रण पत्र कुछ दशक पहले तक छपते रहे हैं जिसे शहर या उक्त गाँव के प्रतिष्ठित लोगों को दिया जाता था।
इस दुर्गा पूजा आमंत्रण के बहाने ज़मींदार ब्रिटिश ऑफ़िसर को रिझाने का प्रयास करते थे ताकि उनका क़र्ज़ माफ़ कर दिया जाए, या फिर उनकी ज़मींदारी बड़ा दिया जाए। दरअसल अंग्रेज कलकत्ता के दुर्गा पूजा आयोजन से बहुत प्रभावित थे और इस दौरान बंगाल के ज़मींदारों और व्यापारियों के यहाँ अपनी छुट्टियाँ मनाने जाते थे। उस दौर में बिहार में भी माँ दुर्गा जी का पंडाल नहीं बनाया जाता था बल्कि ज़मींदार के महल से लेकर ज़मींदार के मंदिर तक सीमित रहता था।
बाद में 19वीं सदी के दौरान जब एक तरफ़ बिहार समेत पूरे देश के ज़मींदारों का पतन हो रहा था और दूसरी तरफ़ ब्रिटिश अधिकारी छुट्टियाँ मनाने के लिए दार्जिलिङ जाने लगे तो दुर्गा पूजा का केंद्र ज़मींदार के महलों से उठकर व्यापारियों के पंडालों में पहुँच गया। ब्रिटिश व्यापरीकरण के इस दौर में माँ दुर्गा जी का पूजा ज़मींदार के महल से निकलकर आम लोगों के बीच पहुँच गया जिसका आयोजन पंडालों में होने लगा, सड़कों पर होने लगा, मैदानों में होने लगा, सामूहिक रूप से होने लगा और पूजा समितियों का गठन होने लगा।

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लेकिन ऐसा नहीं है कि पटना में बंगालियों के आने से पहले माँ दुर्गा जी के किसी भी अवतार का पूजा नहीं होती थी। लेकिन ये भी सच है कि जिस स्वरूप में आज पटना में दुर्गा महोत्सव मनाया जाता है वो स्वरूप बंगालियों की ही देन है। बंगालियों से पहले पटना में कई प्रसिद्ध दुर्गा अवतार के मंदिर हुआ करते थे और उनका पूजा पाठ मंदिरों तक ही सीमित हुआ करता था। उदाहरण के लिए अगमकुआं का सितला माता, महराजगंज का बड़ी पाटन देवी मंदिर, पटना सिटी का छोटी पाटन देवी मंदिर, और उसी के पास माँ काली का मंदिर।
इन मंदिरों में पूजा मंदिर के प्रांगण तक सीमित हुआ करती थी। न कोई पंडाल बनता था और न ही कोई मेला लगता था और न ही माता का विसर्जन होता था। लेकिन बंगालियों द्वारा पटना में दुर्गा पूजा शुरू करने के बाद माँ दुर्गा के विसर्जन की भी प्रथा शुरू हो गई, पंडाल बनाने की भी और मेला की भी।
पटना शहर में माँ दुर्गा के विसर्जन कार्यक्रम के केंद्र में माँ बड़ी देवी होती है। विसर्जन के दिन बड़ी देवी और छोटी देवी बेलवारगंज में SDO कोर्ट के पास मिलती है, जिसे मिलन समारोह या खोयछा मिलन समारोह भी बोला जाता हैं। छोटी देवी की मूर्ति पहले पहुँचती है और बड़ी देवी का लगभग दो से ढाई घंटे इंतेज़ार करती है। बड़ी देवी के पहुँचने के बाद आगे-आगे बड़ी देवी चलती है और पीछे-पीछे छोटी देवी और उनके पीछे शहर के अन्य दुर्गा पंडाल की देवियाँ। इसके बाद बड़ी पाटन देवी मंदिर के मुख्य द्वार पर दोनो की आरती होती है और फिर वहाँ से सभी मूर्तियाँ विसर्जन के लिए गंगा घाट की तरफ़ चल देती है।
ज़्यादातर पटना वासियों को लगता है कि बंगाली अखाड़ा पटना का सबसे पुराना सामूहिक दुर्गा पूजा है लेकिन ऐसा नहीं है। बंगाली अखाड़ा दुर्गा पूजा आज सर्वाधिक सम्पन्न ज़रूर है लेकिन सर्वाधिक पुराना नहीं। लंगर टोली के बंगाली अखाड़ा का सूर्योदयन पूजा आयोजन समिति का जन्म साल 1893 में हुआ था और पिछले 130 सालों से पटना में दुर्गा पूजा का आयोजन कर रहा है हालाँकि पहले इसका आयोजन लंगर टोली में ही साउ लेन पर व्यापारी शरद कुमार के घर पर होता था। बाद में साल 1896 में विनोद बिहारी मजूमदार ने बंगाली अखाड़ा का ज़मीन पूजा समीटि को दे दिया और फिर वहीं पूजा मनाया जाने लगा।
जबकि जैसा हमने पहले भी बताया कि पटना में सामूहिक दुर्गा पूजा का इतिहास दो सौ सालों से भी अधिक पुराना है। इसके अलावा दलहत्ता दुर्गा पूजा भी 150 सालों से अधिक पुराना है। इसी तरह अदालतगंज दुर्गा पूजा समिति (बंगाली) 1922 से पूजा कर रहा है। और ये सब पटना के बंगालियों के द्वारा आयोजित किया जाता है और वो भी बंगाली रीति रिवाजों से, बंगाली कलाकार यहाँ मूर्ति से लेकर पंडाल तक बनाते हैं और यहाँ तक ढोल जिसे बंगाली में ढाक भी बोलते है वो ढक वादक बंगाल से लाए जाते हैं।
बंगालियों ने सिर्फ़ पटना में ही नहीं बिहार के अन्य हिस्सों में भी बंगाली दुर्गा पूजा फैलाया और ख़ासकर बिहार के उन हिस्सों में फैलाया जहां बंगाली आकर बसे थे। उदाहरण के लिए मुंगेर के जमालपुर में भी रेल्वे फ़ैक्टरी के कारण बड़ी संख्या में बंगाली आकर बसे थे और बिहार का दूसरा बड़ी देवी दुर्गा पूजा इसी मुंगेर में होता है। एक पटना की बड़ी देवी और एक मुंगेर का बड़ी देवी दुर्गा पूजा।
हालाँकि पटना के विपरीत मुंगेर के बड़ी देवी दुर्गा पूजा का गठन बंगालियों ने नहीं बल्कि दरभंगा महराज ने साल 1841 में करवाया था और मुंगेर की बड़ी देवी का मंदिर पंडाल में नहीं बल्कि शाही मंदिर में सजता है। ऐसा ही एक माँ बड़ी देवी पूजा गोड्डा में भी होता है और ढूँढेंगे तो बिहार के और भी कुछ जगहों पर ज़रूर मिल जाएगा।

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