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इंडिया टुडे के पत्रकार पुष्य मित्र ने चंपारन मटन (मीट) पर एक बेहतरीन लेख लिखा है। चंपारन मीट में दिलचस्पी रखने वाले सभी लोगों को ये लेख पढ़ना चाहिए। लेकिन लेख में चंपारन मीट से सम्बंधित बहुत सारे पक्ष और ख़ासकर ऐतिहासिक पक्ष में बहुत सारी कमियाँ है। उदाहरण के लिए भले ही आज लोग चंपारन मीट का इतिहास दो दशक से अधिक पुराना नहीं देख पाते होंगे लेकिन 1950 और 1960 के दशक के दौरान लिखे गए चंपारन और मुज़फ़्फ़ापुर गज़ेटियर में मटन यानी कि मीट बनाने की ऐसी ही एक विधि का वर्णन है जिस विधि से आजकल चंपारन का प्रसिद्ध मटन बनाया जाता है। मिट्टी के बर्तन में कम तेल-मशालें और बिना पानी के पूरी तरह बंद बर्तन में भोजन बनाने की ये विधि। चंपारन मटन बनाने की विधि, हांडी मटन बनाने की विधि, या फिर अहुना मटन बनाने की ये विधि। लेकिन आप यह जानकर चौकिएगा कि आज से 6 दशक पहले चंपारन के आसपास इस विधि से सिर्फ़ मीट नहीं बल्कि मछली और यहाँ तक कि सब्ज़ी भी बनाई जाती थी। लेकिन धीरे धीरे यह विधि सिर्फ़ मटन तक सीमित हो गई। ऐसी ही एक विधि और भी थी जो सिर्फ़ अमीरों के बीच ही प्रसिद्ध थी, गरीब तबका इस दूसरी विधि से भोजन नहीं बनाता था। इस दूसरी विधि में मटन में तेल या मशाला बिल्कुल भी नहीं डाला जाता था।
चंपारन मीट चंपारन का है या चंपारन ने इसे सिर्फ़ प्रचारित किया? क्या चंपारन मीट को GI टैग नहीं मिलना चाहिए? लेकिन किस आधार पर ये GI टैग मिलेगा चंपारन मटन को? क्या है इतिहास चंपारन मटन का? क्या चंपारन मटन पर GI टैग का दावा करने वाला चंपारन अकेला होगा या अन्य क्षेत्र के लोग भी इस GI टैग के लिए सामने आएँगे? बाक़ी तर्कों का तो नहीं पता लेकिन पिछले एक सौ सालों के दौरान बकरी-बकरों की जितनी संख्या चंपारन में बढ़ी है उतनी किसी दूसरे ज़िले में नहीं बढ़ी है। जिस चंपारन में साल 1900 में कुल बकरों की संख्या 158144 थी उसी चंपारन में साले 2012 में बकरों की संख्या बढ़कर 11,10,958 हो गई। यानी लगभग आठ गुना की वृद्धि। आज कहानी इसी चंपारन मटन की, इसी चंपारन वाले बकरों की और इसी चंपारन मीट वाले फ़िल्म के बीच जुगलबंदी की।
पहले पुष्य मित्र के इंडिया टुडे वाले लेख का एक सारांश बता देते हैं आपको। यह लेख चंपारन मीट के इतिहास को साल 2002 तक खोदता है और बड़े तसल्ली से खोदता है। साल 2002 में घोड़ासहन गाँव का पप्पू सराफ मटन बनाने की यह विधि नेपाल के कटहडिया से सिख के आया और अपने गाँव यानी की घोड़ासहन गाँव में इस मटन का एक ढाबा खोल दिया। उस समय पप्पू सराफ ने मटन बनाने के इस विधि का कोई नाम नहीं दिया था। कटहडिया में मिट्टी का हांडी जिसमें मटन बनता था वो 200-300 ग्राम का था पप्पू सराफ ने इसे एक किलो का कर दिया। लेकिन पप्पू सराफ का यह ढाबा चला नहीं। एक साल के भीतर बंद हो गया। साल 2004 में पप्पू सराफ अपने दोस्त के साथ साझेदारी में मोतिहारी शहर में नया ढाबा खोला इस उम्मीद के साथ कि क्या पता मोतिहारी में शहरी लोगों के बीच उन्हें बड़ा बाज़ार मिल सके इस मटन का। इस ढाबा का नाम रखा गया, तृप्ति अहुना मीट हाउस।
अहुना एक भोजपुरी शब्द है जिसका मतलब होता है मिट्टी का बर्तन। यानी की मिट्टी के बर्तन में बनने वाला मीट। हालाँकि कुछ लोगों का मानना है कि अहुना का मतलब घोल-मेल करना या उल्टा बर्तन रखना भी होता है।लेकिन पप्पू सराफ को यहाँ भी असफलता ही मिली और तृप्ति अहुना मीट हाउस एक साल के भीतर बंद हो गया। लेकिन मोतिहारी में पहले से ही मीट के कई ढाबों और ख़ासकर जायसवाल ढाबे ने तृप्ति अहुना मीट हाउस के रसोईयों को अपने यहाँ नौकरी दे दी। पप्पू सराफ भी ऐसे ही एक जायसवाल ढाबा में रसोईया की नौकरी करने लगा। जायसवाल ढाबा ने अपने ढाबे में पहले से परोसे जा रहे कई तरह के मीट के साथ साथ अहुना मीट को भी परोसने लगा। अहुना मीट लोगों को पसंद आया, और ख़ासकर बहार से आने वाले यात्रियों को अधिक पसंद आया। धीरे धीरे यह अहुना मीट पूरे क्षेत्र में लगभग सभी मीट ढाबों पर बनने लगा लेकिन किसी ढाबा का नाम अहुना मीट के नाम से नहीं पड़ा। आज भी मोतिहारी के आसपास किसी मीट ढाबा का नाम अहुना या हांडी के नाम पर विरले ही मिलता है। ज़्यादातर का नाम जायसवाल मीट ढाबा या बंगाली दादा का बेशर्म मीट, जैसे नाम ही होते हैं, लेकिन किसी के नाम में आपको जल्दी हांडी या अहुना शब्द विरले ही मिलेगा और चंपारन शब्द का इस्तेमाल तो बिल्कुल नहीं मिलेगा।
अहुना मटन ब्रांड बन गया लेकिन पप्पू सराफ आज भी रसोईया ही हैं। आजकल पप्पू सराफ झुमरी तिलैया में एक चंपारन मीट हाउस पर रसोईया की नौकरी करते हैं। ढाबा खोलने के लिए, बिज़नेस करने के लिए सिर्फ़ अच्छा खाना बनाने की कला काफ़ी नहीं होती है और भी बहुत कुछ चाहिए होता है जो पप्पू सराफ के पास सम्भवतः नहीं था। 2005 के बाद चंपारन मीट की कहानी सीधे पहुँचती है 2014 में जब पटना में गोपाल कुशवाहा चंपारन मीट हाउस के नाम से पहला ढाबा खोलते है। इससे एक साल पहले यानी कि साल 2013 में केटरर का काम कर रहे गोपाल कुशवाहा को पटना क्लब में एक शादी के लिए मिट्टी के बर्तन वाला मटन बनाने का ठेका मिला। कुशवाहा जी खुद घोड़ासहन गए, पप्पू सराफ से मिले, और पटना की उस शादी में सबको चंपारन का अहुना मटन खिलाया। सबको पसंद आया तो कुशवाहा जी ने पटना में चंपारन मीट हाउस खोल दिया। धीरे धीरे पटना में ही और भी कई चंपारन मीट हाउस खुल गए। और आज तो चंपारन मटन आस्कर तक पहुँच गया है।
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चंपारन मटन के नाम से जो शॉर्ट फ़िल्म आस्कर तक पहुँची है उसके नाम पर विवाद हो सकता है लेकिन उस फ़िल्म की कहानी चंपारन मटन के उसी सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने के इर्द-गिर्द घूमती है जिसकी झलक आपको PC राय चौधरी द्वारा साल 1958 और 1960 में लिखे गए चंपारन के आस पास के ज़िलों के गज़ेटियर में भी मिलता है। 1960 के दशक तक पूर्वी चंपारन और पश्चिमी चंपारन एक ही ज़िला था और सीतामढ़ी और मधुबनी मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले का हिस्सा था इसलिए आपको चंपारन और मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले का गज़ेटियर पढ़ना होगा। इससे पहले साल 1907 में भी इन दोनो ज़िलों का गज़ेटियर लिखा गया था लेकिन 1907 वाले गज़ेटियर में मीट बनाने की ऐसी किसी विधि का कोई ज़िक्र नहीं किया गया था जो आज के चंपारन मीट से मिलता जुलता हो। 1907 वाले गज़ेटियर में मीट बनाने की इस विधि का ज़िक्र इसलिए भी नहीं किया गया है क्यूँकि उस गज़ेटियर में क्षेत्र के किसी भी डिश को बनाने की विधि के बारे में कोई ज़िक्र नहीं किया गया है। लेकिन उस 1907 वाले गज़ेटियर में भी इतना ज़रूर लिखा हुआ है कि पूरे चंपारन ज़िले में लोग बकरी बड़ी संख्या में पालते थे। 1958 और 1960 में लिखे गए दोनो गज़ेटियर में यह भी साफ साफ लिखा हुआ है कि इस क्षेत्र में मीट बनाने की एक नहीं बल्कि दो बहुत ही फ़ेमस विधि हुआ करती थी जिसका इस्तेमाल ज़्यादातर माध्यम और उच्च वर्ग के लोग करते थे, सम्पन्न वर्ग के लोग करते हैं।
इस विधि के अनुसार, एक बर्तन में सब्ज़ी या मटन या मछली में थोड़ा सा घी, थोड़ा सा सरसों का तेल और थोड़ा हाइड्रोजनीकृत तेल (जमा हुआ तेल) के साथ कुछ खड़े मसाले बर्तन में डालकर बर्तन पूरी तरह बंद कर दिया जाता था और उसे मध्यम आग पर पकने के लिए लम्बे समय तक छोड़ दिया जाता है। इन दोनो गज़ेटियर में ये नहीं बताया गया है कि बर्तन मिट्टी का होता है या किसी अन्य धातु का भी, या फिर बर्तन को आटें से बंद किया जाता है या किसी अन्य चीज़ से लेकिन इस चंपारन गजेगियर में यह ज़रूर बताया गया है कि इस विधि से खाना पकाने का प्रचलन सिर्फ़ सम्पन्न मध्य या उच्च वर्ग के लोगों में हुआ करता था। चंपारन के अमीरों के बीच भोजन बनाने की एक और विधि बहुत प्रसिद्ध थी। इस दूसरी विधि से आज भी चंपारन के आसपास लोग मटन तो बनते हैं लेकिन चंपारन के बाहर इस विधि का प्रचलन कुछ ख़ास नहीं हुआ है। ये विधि सर्वाधिक आमिर लोगों के बीच प्रसिद्ध था जो मोटापे, शुगर और ब्लड प्रेसर जैसी बीमारियों से तो परेशान थे, लेकिन टेस्टी खाना भी नहीं छोड़ना चाहते थे।
इस विधि में भी सिर्फ़ मटन नहीं बल्कि मछली और सब्ज़ी भी बना करता था। इस विधि में भी मीट बनता तो था पूरी तरह बंद हांडी में ही लेकिन उसमें मशाल या तेल बिल्कुल नहीं डाला जाता था। सिर्फ़ नामक और पानी से बनता था यह मटन। सम्भवतः इसी विधि के आधार पर आजकल चंपारन में मटन बनाने की नून-पानी या वॉटर-फ़्राई विधि प्रचलित हो रही है। हालाँकि आजकल का नून-पानी या वॉटर-फ़्राई विधि पहले वाली विधि से थोड़ा अब बदल गया है। अब नून-पानी या वॉटर-फ़्राई विधि मटन हांडी में नहीं बल्कि कढ़ाई में बनता है। मोतिहारी के पूजा मटन हाउस का दावा है कि नून-पानी या वॉटर-फ़्राई विधि को सबसे पहले उन्होंने डिवेलप किया था। लेकिन चंपारन ज़िला गज़ेटियर तो कुछ और कहता है। चंपारन की धरती पर इस तरह मटन या मछली या सब्ज़ी बनाने की कला बहुत पहले से थी जो समय के साथ लोग सम्भवतः भूल गए होंगे। लेकिन ऐसा कैसे हुआ कि लोग इस तरह की नायब विधि को लोग भूल गए? क्या पता ये विधि कभी कोई भूला ही नहीं था, अब बस चंपारन के बाहर प्रचारित हो गया है, और जो प्रचारित किया उसका नाम हो गया।
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दरअसल देश की आज़ादी के पहले से ही चंपारन, सीतामढ़ी, मधुबनी आदि क्षेत्रों में मटन की खपत लगातार बढ़ रही थी। बिहार में साल 2012 में 1 करोड़ 21 लाख 5 हज़ार बकरी और 23 लाख भेड़ था जबकी साल 1982 में बकरियों की संख्या 1 करोड़ 22 लाख 21 हज़ार 83 और भेड़ों की की 13,22,441 थी। यानी कि बिहार में बकरियों और भेड़ों कि संख्या पिछले कुछ दशक के दौरान घटी है और चंपारन में बढ़ी है। पूर्वी चंपारन और पश्चिमी चंपारन में समग्र रूप साल 2012 में कुल भेड़ों की संख्या 1900 थी और बकरियों की संख्या 11,10,958 थी जो कि साल 1956 में मात्र 4,73,682, और साल 1900 में मात्र 158144 थी। एक तरफ़ बिहार में बकरियों की घटती संख्या और दूसरी तरफ़ चंपारन में बकरियों की संख्या में दो गुना से अधिक की वृद्धि ये समझाने के लिए काफ़ी है कि चंपारन में पिछले कुछ दशकों से मटन का क्रेज़ कितना बढ़ा है। इसी चंपारन में मनुष्यों की जनसंख्या साल 1901 में 18 लाख थी जो साल 1951 में बढ़कर 25 लाख और 2011 में लगभग 62 लाख हो गई है। यानी की 1901 से 2011 के बीच चंपारन की जनसंख्या लगभग तीन गुना बढ़ी और इसी दौरान चंपारन में बकरों की संख्या आठ गुना बढ़ी। मतलब साफ़ है कि चंपारन में बकरियों की संख्या उस दौर में लगातार बढ़ रही थी क्यूँकि वहाँ मटन की खपत बढ़ रही थी। चंपारन में मटन के खपत में हो रही वृद्धि के और भी कई प्रमाण है।
भारत नेपाल सीमा पर मटन का कितना महत्व था इसका अंदाज़ा आप सिर्फ़ इस बात से लगा सकते हैं कि यहाँ नीलगाय को नीलगाय नहीं बल्कि जंगली बकरी बोला जाता था। कम से कम 1907 के चंपारन ज़िला गज़ेटियर में तो ऐसा ही लिखा हुआ है। 1960 का दशक आते आते क्षेत्र में बकरियों की संख्या इतनी अधिक बढ़ गई थी कि चंपारन के शहरी क्षेत्रों में बकरी का दूध भी बिकने लगा था। चंपारन का मटन तो साल 2014 में पटना ही पहुँच था लेकिन चंपारन के बकरों का खाल 1950 के दशक के दौरान ही अमरीका और ब्रिटेन पहुँच चुका था। ब्रिटेन के लंदन और अमरीका के बोस्टन के चमड़ा बाज़ार में चंपारन के बकरों की खाल को सबसे ज़्यादा दाम मिलता था। चंपारन के बकरों के इन चमड़ों को अमरीकी और ब्रिटिश बाज़ार में व्यापारी बेतिया चमड़ा के नाम से पुकारते थे क्यूँकि बेतिया के महराज चंपारन बकरों के इस व्यापार में अहम भूमिका निभाते थे।
देश की आज़ादी से पहले ही मटन खाना चंपारन के आस पास के क्षेत्रों में स्टैटुस सिम्बल बन चुका था और धीरे धीरे पड़ोस के ज़िलों में भी फैल रहा था। क्षेत्र में इस बढ़ती मांसाहारी प्रवृति के ख़िलाफ़ आवाज़ भी उठी, अलग अलग तरह के शाकाहारी आंदोलन हुए, लेकिन ये शाकाहारी आंदोलन दरभंगा जैसे ज़िलों तक ही सीमित रही और उसमें भी यह शाकाहारी आंदोलन ज़्यादातर निम्न जाती के लोगों के बीच ही अधिक प्रचलित हुआ। निम्न जाति के लोगों का किचन जब इस मटन का भार नहीं सम्भाल पाया तो वो शाकाहारी आंदोलन से जुड़ गए। 1960 के अपने दरभंगा ज़िला गज़ेटियर में PC चौधरी राय जी लिखते हैं कि पिछले साठ सालों से यानी कि साल 1900 के आसपास से इस क्षेत्र में आर्य समाजियों ने शाकाहारी आंदोलन चलाने का प्रयास किया जो ज़्यादातर केवट, धानुक, चमार, दुसाध, और मुसहर जैसी निम्न जातियों के बीच ही पॉप्युलर हो पाया था।
गांधी जी का अहिंसा आंदोलन को भी इससे जोड़ने का प्रयास किया गया और यह भी प्रचारित किया गया था कि 1934 का जो भूकम्प आया था वो भगवान का श्राप था क्यूँकि क्षेत्र के लोग बहुत ज़्यादा मांस खाने लगे थे, अधर्मी हो गए थे, हिंसक हो गए थे। इन मांसाहार विरोधी आंदोलनों और भूकम्पों का क्षेत्र में बकरों की संख्या पर प्रभाव भी पड़ा। उदाहरण के लिए चंपारन में जो बकरों कि संख्या साल 1900 से ही लगातार बढ़ रही थी वो साल 1930 से लेकर 1945 के दौरान घट गई। साल 1930 में चंपारन में कुल बकरों की संख्या 5,17,618 थी जो साल 1945 में घटकर 2,45,916 हो गई। लेकिन 1945 के बाद एक बार फिर से चंपारन में बकरों की संख्या बढ़ने लगी जो आज तक रुकने का नाम नहीं ले रही है।
तात्कालिक तौर पर कुछ सालों के लिए महात्मा गांधी या शाकाहारी आंदोलन या भूकम्प का असर रहा लेकिन चंपारन के लोग और ख़ासकर उच्च जाती के लोग तो किसी भी क़ीमत पर मटन छोड़ने को तैयार नहीं हुए। पड़ोसी ज़िले दरभंगा और मुज़फ़्फ़रपुर ज़िलों में भी जब मटन पर आफ़त पड़ी तो लोग मछली को ज़्यादा पसंद करने लगे। आज भी मिथिला की पहचान मछली से और चंपारन की पहचान मीट से है। पहचान पहचान होती है वो नहीं छूटती है, फिर चाहे महात्मा गांधी आएँ या फिर भूकम्प आए, न तो दरभंगा ने मछली छोड़ा और न चंपारन ने मटन। लेकिन पहचान की लड़ाई में हारता है हमेशा गरीब और उसकी ग़रीबी ही, और यही हुआ चंपारन, और चंपारन मीट के साथ। जब मीट छोड़ने और शाकाहारी बनने की बात आइ तो इसके वाहक बने क्षेत्र के दलित, पिछड़े और गरीब। आस्कर के लिए चयनित चंपारन मटन फ़िल्म, चंपारन मटन और ग़रीबों की ग़रीबी के बीच के इस लड़ाई और ताने बाने को बखूबी सामने लाता है।
यह लघु फ़िल्म कहानी है एक गरीब दम्पति कि जो अपने घर में भी मटन बनाना चाहता है लेकिन अपनी ग़रीबी के कारण नहीं बना पता है। अपने घर में चंपारन मटन बनाने के लिए इस नव-विवाहित दम्पति को लम्बा मसक्कत करना पड़ता है। और फ़िल्म इसी मसक्कत की कहानी है। चंपारन मटन फ़िल्म को ख्याति के बाद इसकी पूरी सम्भावना है कि भोजन बनाने की इस विशेष चंपारन विधि की पहचान सिर्फ़ मटन तक सीमित हो जाएगी लेकिन इतिहास तो यही कहता है कि पुराने दौर में इस विधि से सब्ज़ी भी बनायी जाती थी और मछली भी बनाई जाती थी। चुकी यह विधि से बनाया गया खाना ज़्यादातर सम्पन्न वर्ग में प्रचलित था और खाना बनाने की इन विधियों में कम से कम तेल और मशालों का इस्तेमाल होता था इसलिए इसकी पूरी सम्भावना है कि भोजन बनाने की यह विधि स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर डिवेलप किया गया होगा।
वैसे मटन कितना भी बिना तेल मशाला के बनाया जाए, एक सीमा के बाद आपको शुगर, हाई फ़्लड प्रेसर जैसी बीमारियों की गोली खाने को मजबूर ही कर देगा। इसलिए थोड़ा कम खाइए, और चंपारन वाला खा रहे हैं तो थोड़ा ज़्यादा खा लीजिए। वैसे खाने से पहले पता कर लीजिए, की जो खा रहे हैं वो असली चंपारन मीट है या नक़ली, क्यूँकि आजकल चंपारन मीट के नाम पर लोग किसी भी तरह का हांडी मटन बेच दे रहे हैं और रपेट के तेल मशाला का इस्तेमाल कर रहे हैं इसलिए जब भी चंपारन मीट खाने जाइए तो पहले पता कर लीजिए कि तेल मशाला कम डाल रहे हैं ढाबा वाले या आपको चंपारन मटन के नाम पर कोई भी हांडी मटन खिला दे रहे हैं।
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