अपनी शुद्धता के लिए प्रसिद्ध कुमाऊँनी लोहा का खान, आधुनिक लौह उद्योग के क्षेत्र में अपना नाम नहीं दर्ज करा पाया। सस्ती मज़दूरों की उपलब्धता के बावजूद विषम भौगोलिक परिस्थितियाँ, बाज़ार का अभाव, यातायात के साधन (रेल) की सुविधा उपलब्ध होने में हुई देरी के कारण उत्तराखंड के धातु खदान चौपट हो गए। माना जाता है कि कूली-बेगार प्रथा के कारण उत्तराखंड के पहाड़ों में सर्वाधिक सस्ते मज़दूर उपलब्ध थे। उन्निसवी सदी में एक कूली को एक दिन की मज़दूरी के बदले मात्र दो आना मज़दूरी दिया जाता था।
कुमाऊँ पर अंग्रेजों का अधिकार वर्ष 1815 में प्रारम्भ हुआ लेकिन वर्ष 1814 में ही हिंदुस्तान के भावी गवर्नर जेनरल सर टॉमस मेटकाफ करोलिना के गवर्नर मैक्स गार्ड्नर को लिखे एक पत्र में कुमाऊँ में पाए जाने वाले लोहे और ताम्बे के अयस्क की शुद्धता और प्रचुरता की तारीफ़ कर चुके थे और ब्रिटिश साम्राज्य व ब्रिटिश नेवी के लिए इसकी महत्वता को उजागर कर चुके थे। आगे चलकर प्रख्यात शिकार जिम कोर्बेट भी पहाड़ों की तलहटी को लोहे की तलहटी की संज्ञा दे चुके थे।
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वर्ष 1815 में कुमाऊँ के कमिशनर को क्षेत्र में पाए जाने वाले लोहा और ताम्बा के अयस्क का सैम्पल कलकत्ता जाँच के लिए भेजने का आदेश दिया गया लेकिन जाँच का रिपोर्ट उम्मीद के अनुरूप नहीं था। वर्ष 1817 में A Laidlaw के नेतृत्व में क्षेत्र में लोहा और ताम्बे की जाँच के लिए धातु विशेषज्ञों की पूरी टीम कुमाऊँ भेजी गई। वर्ष 1856 की एक रिपोर्ट में कुमाऊँ में पाए जाने वाले लौह अयस्कों की शुद्धता की तुलना ब्राज़ील में पाए जाने वाले लोहा अयस्कों से की गई।
“परम्परागत प्राचीन पहाड़ी लोहा”
परम्परागत तौर पर उत्तराखंड के कई क्षेत्रों में ख़ासकर रामगंगा वैली में लोहा और ताम्बे का उत्पादन होता रहा है। प्राचीन काल में उत्तराखंडी लोहा गंगा के मैदान (UP और बिहार) तक निर्यात होता था और इस सम्बंध में कई दंतकथाएँ भी है। इन दंतकथाओं में लौहकार्य को असुर जाति से जोड़ा गया है। उत्तराखंड में पाए जाने वाले कुछ प्राचीन धातु के खान का नाम राई-अगर, काला-अगर आदि हैं जबकि धातुकर्मी को आज भी ‘अगरि’ कहा जाता है।

प्रारम्भिक ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने उत्तराखंड में होने वाले धातु खनन पर कर लगाया और पुराने बंद पड़े धातु-खान को पुनः खोलने का प्रयास किया। वर्ष 1839 में गढ़वाल में 24 और कुमाऊँ में 18 खान हुआ करते थे जिससे सरकार द्वारा औसतन 2100 रुपए कर वसूले जाते थे। हालाँकि आगे चलकर उत्तराखंड में इन धातु खदानों के संख्या तो बढ़ी पर इनसे होने वाली कर की आमदनी लगातार घटती चली गई।
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अंग्रेज़ी कार्यकाल के दौरान लोहे के खान मुख्यतः भाबर, धुनीयकोट, अगुर, चौगरखा और रामगंगा क्षेत्र पाए जाते थे। बुर्रुलगाँव और देवचौरी नामक स्थान को अंग्रेजों द्वारा पहली आधुनिक लौह इस्पात फ़ैक्टरी लगाने के लिए चुना गया। वर्ष 1850 के दशक में उत्तराखंड में लौह उद्धयोग में अपना हाथ आज़माने M/s Daview & Company जैसी कई निजी कम्पनी भी आइ लेकिन लगभग सभी को विफलता हाथ लगी। लगातार विफलता के कारण 1880 का दशक आते आते अंग्रेज़ी सरकार उत्तराखंड में आधुनिक लौह उद्धयोग विकसित करने का सपना त्याग चुके थे।

इस विफलता का प्रमुख कारण था कुमाऊँ के कालाढ़ूँगी, रानीखेत और कुमाऊँ के अन्य अंदरूनी क्षेत्रों में योजना के अनुसार रेल का विस्तार नहीं हो पाना। माल ढुलाई के लिए यातायात के साधन के अभाव में उत्तराखंडी धातुओं के लिए बाज़ार नहीं उपलब्ध हो पाए। इसके अलावा धातु भट्टी के लिए भी ईंधनो का शुरू से ही अभाव रहा जिसके बिना आधुनिक धातु उद्योग का संचालन सम्भव नहीं था।
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