उत्तराखंड के आधुनिक इतिहास में पहाड़ों पर भार-वाहकों का इतिहास रोचक है। अंग्रेजों के दौर में 1920 के दशक तक कूली शब्द से सम्बोधित किए जाने वाले ये भार-वाहकों को आगे चलकर पोर्टर, शेरपा, डोटियाल, नेपाली, बहादुर आदि नामों से भी सम्बोधित किया जाने लगा। आज इन्हीं में से कुछ को ट्रेकिंग गाइड बोलकर सम्बोधित किया जाता है पर कुछ को आज भी बहादुर, नेपाली और डोटियाल ही कहकर सम्बोधित किया जाता है। इस बदलते नाम के पीछे इतिहास की रोचक कहानियाँ छुपी हुई है।
“पहाड़ों का बहादुर का मतलब भार-वाहकों से है”
अगर आप पहाड़ों पर भ्रमण (पर्यटन) के लिए निकले हैं तो आपका सामना भार-वाहकों से होना तय है। पहाड़ के लगभग सभी शहर-क़स्बे के बस स्टेशन से लेकर, गली, सड़क, चौराहे कहीं पर भी आपको ये बहादुर (भार-वाहकों) पल्ला या शिराना (सामान बांधने की रस्सी) सर में लटकाए या कमर में बांधे आपका सामान ढ़ोने के लिए तैयार खड़े मिल जाएँगे। गाँव में कृषि मज़दूरी कर रहे इन्हीं लोगों को डोटियाल या नेपाली कहकर सम्बोधित किया जाता है। पिछले तीन-चार दशकों से उत्तराखंड के पहाड़ों से मैदानों (दिल्ली-देहरादून) की तरफ़ जितना पलायन हुआ है उतना ही नेपाली मज़दूरों का पहाड़ों में आगमन हुआ है। माना जाता है कि आजकल पहाड़ी कृषि बहुत हद तक नेपाली मज़दूरों पर ही आश्रित है।

पिछले कुछ दशकों से पहाड़ आए पर्यटकों का बोझ ढ़ोने का दायित्व बहुत हद तक घोड़े-खच्चरों की तरफ़ भी स्थानांतरित हुआ है। पर घोड़े खच्चरों का महत्वता ज़्यादातर तीर्थ स्थलों या पर्वतारोहण में ट्रेकिंग तक ही सीमित है। आज इन घोड़े-खच्चरों के मालिक ज़्यादातर ब्राह्मण या राजपूत जाति के होते हैं। बाज़ार की भाषा में आजकल इन्हें ट्रेकिंग गाइड या प्रफ़ेशनल ट्रेकर कहते हैं न कि कूली या डोटियाल। जो गरीब भार-वाहक अपना घोड़ा-खच्चर नहीं ख़रीद पाते हैं वो आज भी इन तीर्थ मार्गों में अपनी पीठ पर यात्रियों को डोलियों में ढ़ोते हैं।

इसे भी पढ़े: कब, क्यूँ और कैसे हुआ नीती घाटी में पर्यटन का पतन
पर वर्ष 1921 में हुए सफल कूली-बेगार आंदोलन से पहले के दौर में भी इन भार-वाहकों (कूली बेगार) की संख्या ज़्यादातर तथाकथित निम्न जाति (दलित समुदाय) से सम्बंध रखते थे। ये कूली बेगार होते थे, जिन्हें कोई तनख़्वाह नहीं मिलती थी। बेगारी का बोझ तो हमेशा इतिहास ने दलितों, महिलाओं और शोषित समाज पर ही थोपा है। प्रत्येक ग्राम प्रधान की ये ज़िम्मेदारी होती थी कि जब कोई गोरे साहब उनके क्षेत्र या गाँव से होकर गुजरते थे तो उनकी सेवा के लिए मुफ़्त कूली का इंतज़ाम करे। आज भी उत्तराखंड में भार-वाहकों का कार्य करने वाले नेपाली डोटियाल को हीन दृष्टि से ही देखा जाता है।

पर इतिहास में नैन सिंह रावत जैसे स्थानीय प्रफ़ेशनल ट्रेकर हुए जो गोरे पर्वतारोहियों का समान नहीं ढ़ोते थे बल्कि उनके सहयोगी के रूप में उन्हें रास्ता दिखाने और यात्रा के दौरान स्थानीय लोगों से संवाद में गोरे (यूरोपिए) पर्वतारोहियों की मदद करते थे। इन स्थानीय पर्वतारोही सहायकों को सम्मान की नज़र से देखा जाता था, तनख़्वाह मिलती थी, और इनमे से लगभग सभी उच्च जाति के लोग होते थे। शायद यही कारण है कि नैन सिंह को इतिहास ‘पंडित नैन सिंह रावत’ के नाम से जानती है।

“पर्वतारोहण में शेरपा समुदाय का कोई जोड़ नहीं”
1930 दशक आते आते पर्वतारोहण के दौरान कूलियों की संख्या घटने लगी क्यूँकि वर्ष 1921 में कूली-बेगारी ग़ैर-क़ानूनी हो चुकी थी। जिन कूलियों को अब पर्वतारोहण के दौरान काम पर रखा जाता था उन्हें पैसे देने पड़ते थे। अब पर्वतारोही के यात्रा वृतांतों में इन्हें कूली नहीं बल्कि Porter (भरवाहक) लिखकर सम्बोधित किया जाता था। अब पर्वतारोहण के दौरान मदद के लिए नेपाल और उत्तर-पूर्व से शेरपा समुदाय के लोगों को भी लाया जाने लगे थे। पर्वतारोही के रूप में शेरपा समुदाय के लोगों की ख्याति और रोमांचक कहानियाँ इतनी रोमांचक है कि उसके लिए एक पृथक लेख की ज़रूरत है।

Hunt The Haunted के WhatsApp Group से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें (Link)
Hunt The Haunted के Facebook पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें (लिंक)