क्या आपको यक़ीन होगा कि इसी बिहार में छठ पर्व से सम्बंधित एक प्रसिद्ध मंदिर का सम्बंध विदेशी आक्रमण के साथ जोड़ा जाता था? क्या आप यक़ीन कर पाएँगे कि बोध गया के महाबोधि मंदिर में छठ पूजा को लेकर हिंदू और बुद्ध अनुयायियों के बीच झगड़े हुए थे? अगर मैं कहूँ कि सौ साल पहले भी बिहार का दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक मेला बिहार के एक प्रसिद्ध जगह पर छठ पूजा के दौरान लगता था तो आप क्या विश्वास कर पाएँगे?
वैसे तो दावा किया जाता है कि छठ पूजा का इतिहास गुप्त काल तक जाता है लेकिन अगर छठ पूजा को सूर्य पूजा से अलग करके देखेंगे तो छठ पूजा के इतिहास का प्रामाणिक साक्ष्य कम से कम दो ढाई सौ साल पुराना तो ज़रूर है। लेकिन पिछले दो ढाई दशकों के दौरान इस महापर्व के प्रारूप और पहलुओं में कई बदलाव देखने को मिले है।
पहला पहलू:
तक़रीबन एक सौ साल पहले तक पटना ज़िला में औंगारी का छठ मेला पटना ज़िला का दूसरा सबसे बड़ा मेला हुआ करता था जिसमें तक़रीबन तीस हज़ार श्रधालुओं की भिड़ जमा हुआ करती थी। पटना ज़िले का सबसे बड़ा मेला राजगीर का मलेमास मेला हुआ करता था जिसमें तक़रीबन पचास हज़ार लोगों की भिड़ जमा होती थी उस समय, सौ साल पहल। उस दौर में आज का नालंदा और पटना ज़िला एक ही हुआ करता था। साल 1972 में नालंदा ज़िले को पटना से अलग कर दिया गया था। अब राजगीर और औंगारी दोनो नालंदा ज़िले में पड़ता है।
दूसरा पहलू:
औंगारी में छठ मेला सिर्फ़ कातिक महीने में लगता था, चैत महीने में नहीं। दूसरी तरफ़ नालंदा ज़िले के ही बड़गाँव में कतकी और चैती दोनो छठ पूजा के दौरान यहाँ पर मेला लगा करता था जिसमें आज से सौ साल पहले तक़रीबन दस-दस हज़ार श्रधालुओं का भिड़ जमा हुआ करता था। यानी कि औंगारी में छठ पूजा की भिड़ बड़गाँव की भिड़ का तीन गुना हुआ करता था। आज भी औंगारी और बड़गाँव का छठ पूजा बिहार का सबसे पुराना छठ पूजा स्थान माना जाता है। आज औरंगाबाद का देव में स्थित सूर्य मंदिर का छठ पूजा मेला प्रसिद्ध है लेकिन सौ साल पहले इस मेले में मात्र 4 से 5 हज़ार लोगों की ही भिड़ जमा होती थी।
तीसरा पहलू:
अगर हम औंगारी के छठ पूजा मेला की तुलना राजगीर के मलेमास मेला से कर रहे हैं तो हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मलेमास मेला तीन सालों में एक बार होता है और यह मेला लगातार एक महीने तक चलता है जबकि छठ पूजा मात्र तीन दिनों तक चलता है और हर साल दो बार होता है। एक बार कार्तिक मतलब नवम्बर महीने में और एक बार अप्रैल मतलब चैत महीने में।
यानी कि मेले के अवधि को ध्यान रखकर गणना करेंगे तो आज से सौ साल पहले दक्षिण बिहार का सबसे बड़ा मेला औंगारी का मेला ही हुआ करता था। साल 1811-12 में आज से दो सौ सालों से भी अधिक पहले औंगारी गाँव में आए ब्रिटिश यात्री फ़्रांसिस बुकानन ने भी औंगारी के घाट के बारे में वर्णन किया है।
और यही वर्णन है छठ पूजा का चौथा विचित्र पहलू:
बुकानन औंगारी के छठ घाट का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि यह घाट तक़रीबन 150 वर्ग यार्ड क्षेत्र में फैला हुआ था और इसमें एक भी खर-पतवार नहीं था। यहाँ के सूर्या मंदिर के बारे में बुकानन लिखते हैं कि यह मंदिर बहुत पुराना है लेकिन मंदिर का रख-रखाव अच्छे ढंग से होता है। मंदिर के भीतर दो मूर्तियाँ थी जो बुकानन के अनुसार एक सूर्यदेव की थी जो बोध-गया में स्थित सूर्य मंदिर के मूर्ति कि तरह थी और दूसरी भगवान विष्णु की थी जो देखने में गिरियक के मंदिर में भगवान वासुदेव की मूर्ति की तरह लगती थी।
मंदिर के चारों तरफ़ और भी कई भगवान की मूर्तियाँ थी जिसमें से घाट के पश्चिमी भाग पर तीन बड़ी-बड़ी मूर्ति थी जिसमें से एक गौरी-शंकर, एक गणेश और एक भगवान बुद्ध की मूर्ति थी। पास में ही दो मिट्टी का कच्चा मंदिर भी बना हुआ था।
पाँचवाँ पहलू:
मंदिर के द्वार के बारे में बुकानन कहते हैं कि पहले मंदिर के द्वार का मुहँ पूर्व दिशा की ओर था लेकिन अब यानी की 1811 में मंदिर का द्वार पश्चिम दिशा में चला गया हैं। मंदिर का द्वार पूर्व से पश्चिम दिशा में चले जाने के बारे में औंगारी के लोगों ने बुकानन को एक कहानी भी सुनाई थी। इस कहानी के अनुसार जब विदेशी हमलावर इस गाँव में मंदिर पर हमला करने आए और मंदिर की तरफ़ बढ़े तो पूर्व दिशा में खुलने वाला मंदिर का दरवाज़ा अपने आप पूरी पत्थर से बंद हो गया जिसके बाद विदेशी आक्रमणकारी बिना मंदिर लूटे वापस चले गए थे।
विदेशियों के वापस चले जाने के बाद गाँव वालों ने देखा कि मंदिर का नया दरवाज़ा पश्चिम दिशा में खुल गया था। हालाँकि आजकल औंगारी के लोग यह मानते हैं कि मंदिर का दरवाज़ा पूर्व में न होकर पश्चिम में इसलिए है क्यूँकि छठ पर्व में डूबते सूर्य की भी पूजा की जाती है।

छठा पहलू:
गया के महाबोधि मंदिर में मुच्छलिंडा सरोवर के ऊपर विवाद है और इस विवाद का छठ पूजा के साथ गहरा सम्बंध है। कुछ दशक पहले तक मुच्छलिंडा सरोवर में स्थानीय लोग छठ पूजा मनाते थे लेकिन जब इस मुच्छलिंडा सरोवर पर विवाद हुआ और बुद्ध धर्म के लोगों ने यहाँ छठ पूजा करने का विरोध किया तो अब स्थानीय लोग छठ पूजा मुच्छलिंडा सरोवर के बजाय वहीं पास में निरंजन नदी के घाट पर करना शुरू कर दिए। आज भी स्थानीय हिंदू निरंजन नदी के घाट ही छठ पूजा करते थे।
बुद्ध धर्म के अनुसार जब बोध गया में महात्मा बुद्ध ने ज्ञान की प्राप्ति के लिए ध्यान लगाना शुरू किया था तो उसके पाँच हफ़्ते के बाद छह दिनों तक हर तरफ़ पूरा अंधेरा छा गया था, भयंकर तूफ़ान आया और लगातार बारिश होती रही थी जिसके कारण महात्मा बुद्ध के आसपास चारों तरफ़ पानी भर गया था। भगवान बुद्ध उस पानी में डूबने वाले थे लेकिन तभी साँपों के देवता मुच्छलिंडा धरती पर आए और सर्प रूप लेकर भगवान बुद्ध की उस तूफ़ान से रक्षा किए थे।
साँपों के देवता मुच्छलिंडा के नाम पर ही इस तालाब का नाम मुच्छलिंडा सरोवर रखा गया। साल 1975 के आस पास बर्मा के कुछ बौध यात्रियों के आर्थिक मदद से बुद्ध टेम्पल मैनज्मेंट कमिटी ने इस तालाब के बीचोबीच भगवान बुद्ध की एक मूर्ति भी स्थापित किया।
जब साल 1878 में कनिंहैम ने महाबोद्धि मंदिर की खोज की थी और वहाँ खुदाई शुरू करवाई थी तब इस मुच्छलिंडा सरोवर का नाम बुद्ध पोखर रखा गया था जिसे बाद में बुद्ध गंगा और अब उसका नाम मुच्छलिंडा सरोवर रख दिया गया है। हालाँकि UNESCO और कनिंहैम दोनों के अनुसार असली मुच्छलिंडा सरोवर महाबोद्धि मंदिर से लगभग तीन किलोमीटर की दूर पर स्थित होना चाहिए लेकिन वर्तमान का मुच्छलिंडा सरोवर महाबोद्धि मंदिर से मुश्किल से दो सौ मीटर की दूरी पर स्थित है।
चीनी यात्री फहियाँ ने भी अपनी यात्रा वृतांत में यही लिखा था कि मुच्छलिंडा सरोवर महाबोद्धि पेड़ से एक कोस की दूरी पर स्थित है। लेकिन इसके बवाजदू UNESCO ने नक़ली मुच्छलिंडा सरोवर को विश्व धरोहर में शामिल कर लिया जिसका नतीजा यह हुआ कि असली मुच्छलिंडा सरोवर आज लगभग पूरी तरह सूखने के कगार पर पहुँच चुका है जिसे आजकल उरेल तालाब बोलते हैं।
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साल 2010 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस असली मुच्छलिंडा सरोवर को देखने उरेल आए थे और उस समय इस गाँव के लिए पक्की सड़क का भी घोषणा किया था ताकि तीर्थयात्री इस असली मुच्छलिंडा सरोवर को देखने आसानी से आ सके लेकिन बिहार सरकार ने इस क्षेत्र में कोई पहल नहीं किया कि उरेल के असली मुच्छलिंडा सरोवर को असली मुच्छलिंडा सरोवर का सम्मान दिया जाए न कि महाबोधि मंदिर के प्रांगण में स्थित हिंदू पोखर को मुच्छलिंडा सरोवर माना जाता रहे।
महाबोधि मंदिर मैनज्मेंट कमिटी ने साल 1974 में महाबोधि मंदिर से तीन किमी दूर स्थित असली मुच्छलिंडा सरोवर की जगह मंदिर के प्रांगण में ही स्थित बुद्ध गंगा को असली मुच्छलिंडा सरोवर घोषित कर दिया जिसे बाद में वर्ल्ड हेरिटिज कमिटी ने भी मान लिया था।
हालाँकि फ़रवरी 2011 में जब वर्ल्ड हेरिटिज कमिटी के सदस्यों ने उरेल में स्थित असली मुच्छलिंडा सरोवर का दौरा किया तो उन्हें असली मुच्छलिंडा सरोवर की सच्चाई का पता चला जिसपर उन्होंने इसपर खेद भी व्यक्त किया और असली मुच्छलिंडा सरोवर के लिए जल्दी ही विशेष साइट मैनज्मेंट प्लान बनाने का वादा भी किया था, लेकिन आज तक कुछ नहीं हुआ है।
जहां पर आज महाबोधि मंदिर के ठीक सामने नक़ली वाला मुच्छलिंडा सरोवर है वहाँ पर साल 1974 तक एक हिंदू सूर्या मंदिर भी हुआ करता था। गया में पिंडदान करने के बाद हिंदू मुच्छलिंडा सरोवर भी जाते थे। कुछ दशक पहले तक तो लोग मुच्छलिंडा सरोवर में छठ पूजा भी करते थे और सरोवर के बग़ल में स्थित उसी सूर्य मंदिर में पूजा भी करते थे।
लेकिन साल 1974-75 में जब महाबोद्धि मंदिर के प्रांगण का सौंदर्यकारण हुआ तो उस हिंदू सूर्य मंदिर को तोड़ दिया गया और उसे तोड़कर मुच्छलिंडा सरोवर का क्षेत्र बड़ा कर दिया गया और सरोवर के बीचोंबीच भगवान बुद्ध की एक मूर्ति लगा दी गई जिसमें भगवान बुद्ध के ऊपर नाग देवता खड़े हैं। धीरे धीरे मुच्छलिंडा सरोवर में छठ पूजा का भी विरोध हुआ और स्थानीय लोग छठ पूजा मनाने के लिए पास ही स्थित निरंजन नदी के तट पर जाने लगे।
सातवाँ पहलू:
छठ पूजा के इतिहास को टटोलता प्रमाण कुछ और वर्ष भी पीछे जाता है। बुकानन खुद अपनी किताब में लिखते हैं कि कि औंगारी का मंदिर सदियों पुराना है। साल 1795 में पटना के प्रसिद्ध चित्रकार सेवक राम द्वारा बनाई गई छठ पूजा की दो पेंटिंग भी ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में बिहार के छठ महापर्व के गौरवशाली इतिहास का हवाला दे रहा है।
इन दोनो पेंटिंग में जिस तरह से छठ पूजा घाट पर हाथी-घोड़ों को दिखाया गया है और जिस तरह से घाट पर नाव में सेठों-अमीरों को नाव पर बैठकर छठ महापर्व का दर्शन करते हुए दिखाया गया है उससे साफ ज़ाहिर होता है कि छठ महापर्व को न सिर्फ़ भव्य हुआ करता था बल्कि छठ महापर्व को उस दौर में राजकीय सम्मान हासिल था।
आठवाँ पहलू:
आज भले ही छठ महापर्व का फलों और पकमान से भरा डाला अरग के लिए परिवार का पुरुष सदस्य ही घर से छठ-घाट तक पहुँचाता हो लेकिन आज से दो साल पहले ये डाला भी महिलाएँ ही उठाया करती थी। दो सौ साल पहले छठ महापर्व पूरी तरह सम्पूर्ण रूप से महिलाओं का पर्व था।
लेकिन पिछले कुछ दशकों से अब धीरे धीरे छठ महापर्व में पुरुषों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। सभी तरह के सोशल मीडिया पर छठ का गुणगान करते हुए, परदेश में छठ को मिस करते हुए, छठ पर कविता पाठ करते हुए सब जगह ज़्यादातर पुरुष ही मिल रहे हैं लेकिन एक समय था जब छठ महापर्व में पुरुष सिर्फ़ दर्शक हुआ करते थे, श्रोता हुआ करते थे।
नौवाँ पहलू:
जिन छठ गीतों को लोग आज मोबाइल से लेकर DJ तक बजा रहे हैं, क्या कभी आपने सोचा है कि उन छठ गीतों का इतिहास कितना पुराना है? आपको लगता होगा कि छठ गीतों का इतिहास शारदा सिन्हा से ही शुरू होता है लेकिन शारदा सिन्हा ने उन छठ गीतों का सिर्फ़ रिकॉर्डिंग किया है कुछ वाद्य यंत्रों के साथ। लेकिन शारदा सिन्हा ने जिन गीतों को गाया है वो गीत बिहार की संस्कृति में सैकड़ों सालों से रचा बसा था।
दिवाली के बाद से ही बिहार की औरतें छठ गीत गाना शुरू कर देती थी जो सुबह कि दूसरी अगर तक चलता था। ये औरतें छठ गीतों को एक ख़ास तरह के धुन और एक ख़ास तरह के लय में गाती थी और शारदा सिन्हा ने अपने शुरुआती गीत उसी धुन और उसी लय में गाया है। अब कुछ नए गीत आ रहे हैं जो नए धुन और नए तरह के लय में गाए जा रहे है। पुराने धुनों की सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि पुराने धुनों को समग्र गीत का धुन बोला जा सकता है, जिसे दो या दो से अधिक लोग एक साथ गाते हैं, अकेले नहीं। छठ कभी भी अकेले का त्योहार नहीं था।
दसवाँ पहलू:
बिहार के अलग अलग हिस्सों में छठ मनाने के तरीक़ा अलग अलग है। उदाहरण के लिए इस महापर्व के पहले उपवास के दिन का प्रसाद कहीं अरवा चावल के साथ चना का दाल और आँटा का पिठा होता है तो कहीं रोटी के साथ गुड़-रावा का रसिया बनाया जाता है। लेकिन इन सभी अंतरों के बावजूद कुछ ऐसी चीज़ें है तो सभी तरह के छठ को एक बनाकर रखता है। लेकिन पिछले दो दशकों के दौरान इस महापर्व के प्रारूप में कई बदलाव हुए हैं।
उदाहरण के लिए आज से दो दशक पहले छठ का प्रसाद हमेशा मिट्टी के बर्तन में ही बनता था और उस प्रसाद को बनाने के लिए नदी से पानी कांसे के बर्तन में ही लाया जाता था। छठ का पर्व करने वाला व्यक्ति डूबते और उगते सूर्य को अरग सिर्फ़ एक सफ़ेद धोती पहनकर देते थे और उस धोती के अलावा शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं होता था लेकिन आज तो अलग अलग डिज़ाइन के रंग बिरंगे कपड़ों में छठ का अरग दिया जाता है। लेकिन सभी बदलावों के बावजूद आज भी छठ की याद को याद करना मात्र भी किसी भी बिहारी के आँख को नम करने के लिए काफ़ी है।

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