गढ़वाल के तारीफ़ों के पुल बांधने वालों में एक से एक प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। नेहरू ने गढ़वाल को पूरे हिमालय का सर्वाधिक खूबसूरत क्षेत्र और श्रीनगर शहर को हिंदुस्तान का स्वीटज़रलैंड कहा है। कई पर्वतों पर अपना झंडा गाड़ने वाले लॉंग्स्टैफ़ ने गढ़वाल को पूरे एशिया में स्थित सभी उच्च स्थानो पर बसे स्थानों में से सर्वाधिक खूबसूरत माना। गढ़वाल की शान नंदा देवी पर्वतमाला को लॉंग्स्टैफ़ विश्व का सर्वाधिक खूबसूरत और कठिन चढ़ाई वाली पर्वत चोटी मानते थे। नंदा देवी पर्वत शिखर की ख़ूबसूरती की तुलना तो नेहरू ने औरत के स्तन से कर दिया था।
गढ़वाल और अध्यात्म:
गढ़वाल यूँ ही नहीं इतने लोगों का चहेता और प्यारा है। हिंदुस्तान में सर्वाधिक पवित्र स्थल इसी क्षेत्र में है। पंच केदार, पंच प्रयाग, पंच बद्री, विष्णु से लेकर महादेव और नंदा देवी से लेकर गंगा-यमुना सभी देव और देवियाँ इसी क्षेत्र में निवास करती है। ख़ूबसूरती के नज़रिए से देखें तो बुग्यालों और ट्रेकिंग का गढ़ है गढ़वाल। यहाँ जैसी आसमान को छूती चोटियाँ आपको शायद ही उत्तराखंड के किसी और हिस्से में दिखेगी। और शायद यहीं कारण था कि राजा रजवाड़े अपना क़िला बनाने के लिए इसी क्षेत्र को चुनते थे। इतिहास से ही गढ़वाल को 52 किलों का क्षेत्र भी माना जाता रहा है।
प्रारम्भिक वैदिक काल में जब आर्य भारत में आए और वर्तमान उत्तराखंड के पहाड़ों तक पहुँचे तो उन्होंने अलकनंदा और मंदाकिनी नदी के बीच के भूभाग का नाम देवभूमि रखा जिसे अंग्रेजों के जमाने में पहाड़ी नागपुर भी कहा जाता था और आज भी नागपुर पट्टी इसी क्षेत्र का हिस्सा है। महाभारत में मेरु, कैलाश, गंधा मदन और कौरवों, शिव व विष्णु के स्थान को स्वर्ग लिखा।

वैदिक काल ख़त्म होते होते इस क्षेत्र को त्रितसुस लिखकर सम्बोधित किया गया क्यूँकि यहाँ त्रितसुस समाज का राज था। वैदिक काल के बाद जब भारी संख्या में यहाँ ऋषि-मुनि और सन्यासी अध्यात्म और योग के लिए आने लगे तो इस क्षेत्र का नाम ब्रह्मऋषि देश रख दिया गया जिसका वर्णन मनुस्मृति के 11वें खंड के 19वें भाग में है।
जब कुरुक्षेत्र में महाभारत हो रहा था तब इस प्रदेश का नाम पांचाल देश का हिस्सा था। महाभारत के बाद इस क्षेत्र में किरतस और टाँगनस समाज का शासन शुरू हुआ जो मुख्यतः जमुना और शारदा नदी के बीच स्थित थे और प्रदेश को टाँगनोई प्रदेश कहा गया जिसकी चर्चा युरोपीय दार्शनिक टोलमि भी करते हैं।
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जब आठवीं सदी में दक्षिण से शंकराचार्य गढ़वाल के पहाड़ों में आए तो उन्होंने क्षेत्र को दो हिस्सों में बाँटा केदार खण्ड (केदारेश्वर) और बदरिका शर्मा। तेरहवीं सदी में जब इस क्षेत्र पर कनक पाल और अजय पाल का शासन शुरू हुआ तो उन्होंने इसका नाम गढ़-पाल देश रखा यही गढ़-पाल देश आगे चलकर गढ़वाल बन गया और आज तक अपनी पहचान बनाए हुए है।
जब अंग्रेज इस क्षेत्र में आए तो उन्होंने भी उत्तराखंड को तीन स्वतंत्र क्षेत्रों में बाँट दिया: गढ़वाल और कुमाऊँ। बीसवीं सदी के अंत तक दोनो क्षेत्रों की पहचान पहाड़ था। अंग्रेजों के काल में गढ़वाल और कुमाऊँ कमिशनरी बहुत हद तक स्वायत्त थे। गढ़वाल कमिशनरी का केंद्र पौड़ी शहर था जबकि कुमाऊँ का अलमोडा। आज़ादी के बाद उत्तर प्रदेश से अलग होकर पृथक उत्तराखंड राज्य बनने तक अलमोडा पहाड़ की सांस्कृतिक राजधानी रही और पौड़ी राजनीतिक राजधानी। आश्चर्य नहीं है कि पृथक उत्तराखंड राज्य में निर्वाचित अब तक 8 मुख्यमंत्रियों में से चार सिर्फ़ पौड़ी ज़िले से हैं।
लेकिन अफ़सोस आज उत्तराखंड कि पहचान देहरादून, हल्द्वानी, और हरिद्वार जैसे मैदान बनते जा रहे हैं। लोग तेज़ी इस इन शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। पहाड़ में भूतिया गाँव की संख्या लगातार बढ़ रही है और इसमें भी गढ़वाल कुमाऊँ से आगे है। लेकिन आज भी जब गढ़वाल की पहचान के साथ छेड़छाड़ करने का कोई राजनीतिक प्रयास किया जाता है तो लोगों की प्रतिक्रिया तीव्र होती है। हाल ही में जब गढ़वाल और कुमाऊँ के कुछ ज़िलों को अलग करके गैरसैन प्रमंडल बनाने का प्रयास किया गया तो उसकी तीखी आलोचना हुई।

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