कीड़ा जड़ी मुख्यतः चीन, तिब्बत, नेपाल, भूटान और हिंदुस्तान के सिक्किम और उत्तराखंड में मिलता है। यह हिमालय के 3650 से 5200 मीटर की ऊँचाई पर पाया जाता है। तिब्बत, और सिक्किम में इसे यर्सा गुंबा, चीन में डोंग चोंग क्सिया चाओं और नेपाल व हिंदुस्तान में कीड़ा जड़ी बोलते हैं। क्षेत्र के बाहर इसे हिमालयी वायऐग्रा भी कहते हैं। अत्यधिक दोहन के कारण में चीन के तिब्बत पठार में ये अब विलुप्त होती प्रजाति घोषित की जा चुकी है।
पहाड़ के इतिहास में इस कीड़ा जड़ी का कोई वर्णन नहीं है। प्रारम्भ में तिब्बती चरवाहों ने गौर किया कि घास चरने के दौरान कीड़ा जड़ी खाने पर उनके जानवर काफ़ी मज़बूत और तंदुरुस्त हो जाते थे। चीन और तिब्बत में इसका खोज और उपयोग बहुत पहले से चल रहा था।

इसे भी पढ़े: Photo Stories 4: भांग-गांजा-चरस को बचाने की लड़ाई (1893-94)
नंदा देवी बाइओस्फ़ीर रिज़र्व के इंसानो के लिए वर्ष 1983 में बंद किए जाने के बाद उसके आस पास रहने वाले लोग जो वहाँ गाइड का काम करते थे वो बेरोज़गार हो गए। कीड़ा जड़ी की खोज उनके लिए नया वरदान साबित हुआ। उत्तराखंड में वर्ष 1996-97 में पिथौरागढ़ के अस्कोट क्षेत्र, और 2001 में चमोली गढ़वाल के नीती-माणा क्षेत्र में पहली बार यह जड़ी मिला। आज उत्तराखंड के मुख्यतः दो ज़िलों (पिथौरागढ़ और चमोली) में यह जड़ी पाया जाता है। पिथौरागढ़ के चिपलकोट, उलटपरा, ब्रह्मकोट, नज़री और नंगनीधूरा-मुंसियारी क्षेत्र और चमोली के घाट, देवाल, नीती और माना वैली में यह जड़ी पाया जाता है।

ऐसे बनती है कीड़ा जड़ी :
कीड़ा जड़ी की बनने की प्रक्रिया बहुत ही रोमांचकारी है। ठंढे और ऊँचे पहाड़ पर मिलने वाले एक विशेष प्रकार का कट्टेरपिल्लर वर्षा (चौमास) के दौरान फफूँदी से संक्रमित हो जाता है और धीरे धीरे कट्टेरपिल्लर का पूरा शरीर संक्रमित हो जाता है और कट्टेरपिल्लर की मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के बाद पूरा शर्दी के मौसम के दौरान वो मारा हुआ कट्टेरपिल्लर बर्फ़ के नीचे दबा रहता है। गर्मी शुरू होने पर (अप्रिल-मई) पर बर्फ़ पिघलती है और इस जड़ी का ऊपरी भाग घास के बीच ज़मीन या बर्फ़ में दबी दिखने लगता है।
अप्रिल और मई के महीने में स्थानिये लोग समूह में इन ऊँचे व ठंढे स्थानो पर जाकर कीड़ा जड़ी खोदकर लाते हैं। इस जड़ी को ढूँढने में जितना देर होगा वो उतना नरम होने लगता है और रंग काला पड़ने लगता है जिससे उसकी क़ीमत और महत्व दोनो कम हो जाती है। ढूँढने के दौरान इस जड़ी को सावधानिपूर्वक निकालना पड़ता है क्यूँकि टूटे हुए जड़ी की क़ीमत सबूत कीड़ा जड़ी से कम होती है।

इसे भी पढ़े: क्या है पहाड़ी कहावतों में छुपे मंडुवा (Finger Millets) से सम्बंधित इतिहास के राज?
कीड़ा जड़ी ढूँढने के क्रम में लोग मिट्टी खोदते हैं जिससे पतली मिट्टी की परत जो पत्थरों पर अरसों से बनती है वो ख़राब हो जाती है। अगर आपको एक स्थान पर इसकी एक जड़ी मिल जाती है तो पूरी सम्भावना होती है कि उस स्थान के आस पास और भी कीड़ा जड़ी मिलेगी। लोगों का मानना है कि कीड़ा जड़ी खोदने के लिए लोहे के औज़ार इस्तेमाल करने से कीड़ा जड़ी को नुक़सान होता है।
घर लाकर कीड़ा जड़ी पर जमी मिट्टी को सावधानी पूर्वक ब्रश से साफ़ की जाती है और धूप में सुखाया जाता है। मानसून के दौरान नामी के कारण यह जड़ी मूड जाती है और ख़राब हो जाती है। इसलिए एक एक जड़ी को पहले काग़ज़ में लपेटा जाता है और फिर उसे कपड़े में लपेटकर बक्से में बहुत सावधानिपूर्वक रखना पड़ता है।
ख़तरों का खेल:
कीड़ा जड़ी ढूँढना इतना भी आसान नहीं होता है। पिघलते बर्फीले ज़मीन पर रेंगते हुए घने घासों के बीच छुपी इस जड़ी को ढूँढने के लिए एकाग्रता चाहिए। पिघलते बर्फ़ में चलकर पैर काले पड़ जाते हैं, अंगुलियाँ ठिठुर जाती है, और अगर पिघलते बर्फ़ की चिकनी ढलान से पैर फिसला तो मौत भी अक्सर हो जाती है। कीड़ा जड़ी अधिकतर तीखी ढलान वाले क्षेत्रों में ही पाई जाती है। ऐसे कई मामले आते हैं जिसमें इस जड़ी को ढूँढने को निकले परिवार के सदस्य लौटकर कभी वापस नहीं आते हैं। ऐसे मृतकों के परिवार को गुमशुदा की रिपोर्ट लिखवाने के पाँच वर्ष बाद मृत्यु प्रमाण पत्र मिलता है।
ऐसे बिकती है कीड़ा जड़ी :
कीड़ा जड़ी जब बिकने के लिए तैयार हो जाता है तो क्षेत्र का एक ठेकेदार उन्हें ख़रीद लेता है जो बाहर से आने वाले पर पहाड़ी ठेकेदार को बेच देता है। पहाड़ी ठेकेदार जड़ी को नेपाली ठेकेदार के हाथ जाकर बेचता है और नेपाल से होते हुए यह जड़ी अवैध रूप से चीन के बाज़ार तक पहुँच जाता है।
इसे भी पढ़े: ढाक के तीन पात: बुरांश (Buransh) बनाम पलाश
हालाँकि उत्तराखंड सरकार का वन विभाग भी अधिकारिक रूप से कीड़ा जड़ी का ख़रीद करती है लेकिन लोग सरकार को यह जड़ी नहीं बेचते हैं क्यूँकि सरकार बहुत कम क़ीमत देती है। खुले भारतीय बाज़ार में आज से दस वर्ष पूर्व इस जड़ी की क़ीमत लगभग 4-5 लाख रुपए प्रति किलोग्राम थी जबकि वन विभाग मात्रा 50 हज़ार रुपए प्रति किलोग्राम के दर से ख़रीदना चाहती थी। अमेरिकी बाज़ार में इस जड़ी की क़ीमत लगभग पच्चीस हज़ार डॉलर (17-18 लाख रुपए) प्रति किलोग्राम थी।

क्या करें इस कीड़ा जड़ी का :
कीड़ा जड़ी बहु उपयोगी है। चीन में इसका उपयोग औषधि के रूप में कालांतर से ही होता रहा है। उत्तर सिक्किम के लचूँग और लचेन क्षेत्र में प्रचलित दन्त कथाओं के अनुसार इस जड़ी से 21 तरह की बीमारियों का इलाज होता है। इसमें कैन्सर, मधुमेह, गले, फेफड़े की बीमारी आदि शामिल है। आजकल खिलाड़ी इसका इस्तेमाल खेल में अपना प्रदर्शन बेहतर करने के लिए करते हैं।
पारम्परिक तौर पर इसे दूध या गरम पानी के साथ खाया जाता है जबकि भोटिया समाज के लोग इसे स्थानिये भोटिया दारू छँग के साथ भी पिटे हैं। इस जड़ी को एक कप दूध/पानी/छँग में रात को डुबोकर रख दिया जाता है और सुबह और शाम को पिया जाता है।

- चित्रों के लिए साभार:
- Note on a Cordyceps from Tibet by H.Chaudhuri J.Ramsbottom
- मोटाना विश्वविद्यालय में Laura Bess Caplins द्वारा लिखी गई PhD थीसस (POLITICAL ECOLOGY OF CORDYCEPS IN THE GARHWAL HIMALAYA OF NORTHERN INDIA)

Hunt The Haunted के Facebook पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें (लिंक)
Thank you for your sharing. I am worried that I lack creative ideas. It is your article that makes me full of hope. Thank you. But, I have a question, can you help me?