आजकल नीतीश कुमार की मीडिया वालों से शिकायत बढ़ती जा रही है। नीतीश कुमार बार बार सार्वजनिक तौर पर यह बोल रहे हैं कि केंद्र सरकार मीडिया वालों पर प्रतिबंध लगा दिया है, सिर्फ़ केंद्र सरकार और भाजपा की खबरें छपती है और उनकी खबरें छपती ही नहीं है। एक मौक़े पर तो यहाँ तक बोल दिए कि अगर केंद्र में उनकी, मतलब इंडिया गठबंधन की सरकार बनेगी तो उनके राज में सब मीडिया वाले फ़्री रहेंगे पूरी तरह स्वतंत्र रहेंगे। लेकिन नीतीश कुमार वो दौर क्यूँ भूल जाते हैं जब उनकी बिहार वाली सरकार को, नीतीश सरकार को लोग Editor In Chief of Bihar बोलने लगे थे?”
जब 2010 में दैनिक जागरण की एक सरकार विरोध खबर के बाद दैनिक जागरण का सरकारी विज्ञापन नगण्य कर दिया गया था, जब, 2016 में टेलीग्राफ़ अख़बार को अपना पटना कार्यालय बंद करना पड़ा था, जब 2013 में प्रेस काउन्सिल ओफ़ इंडिया जैसी प्रतिष्ठित संस्था के एक रिपोर्ट में बिहार में मीडिया पर सरकार के बढ़ते दवाव का ज़िक्र किया गया था और इन सबसे बड़ी बात जब 2003-04 में बिहार सरकार का विज्ञापन बजट 4 करोड़ 12 लाख 49 हज़ार 579 रुपए से बढ़कर साल 2018-19 में नीतीश सरकार के कार्यकाल के दौरान 133 करोड़ 53 लाख 18 हज़ार 694 हो गयी थी।
यानी कि नीतीश सरकार का विज्ञापन बजट उनके पंद्रह सालों के कार्यकाल दौरान 32 गुना से भी अधिक बढ़ गया था। पिछले साल यानी 2022-23 के दौरान भी IPRD का कुल बजट 237.81 करोड़ तक पहुँच गया है। आज न्यूज़ हंटर्ज़ पर नीतीश कुमार के Editor in Chief of Bihar से मीडिया शिकायतकर्ता तक के सफ़र का शिकार किया जाएगा।
नीतीश बनाम लालू :
साल 1999-00 में बिहार सरकार का विज्ञापन बजट 4 करोड़ 97 लाख 62 हज़ार 860 रुपए था जो अगले पाँच सालों के दौरान लालू राज में साल 2003-04 में घटकर 4 करोड़ 12 लाख 49 हज़ार 579 हो गया था । लेकिन जैसे ही नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने बिहार सरकार का विज्ञापन पर खर्च दिन दुगना रात चौगुना बढ़ने लगा। साल 2005 के अंत में सत्ता में आने वाली नीतीश सरकार का साल 2008-09 में विज्ञापन पर कुल खर्च 25 करोड़ 25 लाख 23 हज़ार 312 हो गया था।
यानी कि तीन सालों के भीतर लगभग छह गुना से भी अधिक की वृद्धि। और साल 2018-19 आते आते बिहार सरकार का विज्ञापन पर खर्च 133 करोड़ 53 लाख 18 हज़ार 694 हो गया हो गया। यानी कि बिहार सरकार का विज्ञापन पर खर्च नीतीश कुमार के कार्यकाल के दौरान 15 सालों में 32 गुना बढ़ गई। वहीं दूसरी तरफ़ जिस केंद्र सरकार पर नीतीश कुमार आए दिन रोज़ आरोप लगा रहे हैं कि मोदी सरकार ने मीडिया पर पूरा क़ब्ज़ा कर लिया है उस मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान विज्ञापन पर होने वाला खर्च पिछले 9 सालों के दौरान दो गुना भी नहीं बढ़ा है।
नीतीश बनाम मोदी:
साल 2014-15 में मोदी सरकार ने विज्ञापन पर कुल 898 करोड़ 51 लाख रुपए खर्च किए थे जो 2018-19 में बढ़कर मात्र 1179 करोड़ 15 लाख ही हुआ यानी कि दो गुना की भी वृद्धि नहीं। हलकीं कुछ रिपोर्ट में दो गुना की वृद्धि का दावा किया गया है लेकिन दो गुना से अधिक का दावा किसी ने नहीं किया है जो कि नीतीश सरकार के कार्यकाल में हुई 32 गुना की वृद्धि के सामने कुछ भी नहीं है।
आज मोदी सरकार द्वारा मीडिया पर बढ़ते क़ब्ज़े की कई कहानियाँ बन रही है और सोशल मीडिया पर वायरल भी हो रही है लेकिन एक समय था जब नीतीश सरकार द्वारा विज्ञापन पर खर्चे की असमान छूती बढ़ोतरी ने कई क़िस्से भी बनाए थे और कई हक़ीक़त भी। साल था 2010, कर्पूरी ठाकुर के जन्म दिवस पर दैनिक जागरण ने कर्पूरी ठाकुर के ऊपर अंग्रेज़ी में एक लेख लिखा। लेख के लेखक ने गलती सिर्फ़ इतना किया कि पूरा लेख कर्पूरी ठाकुर के विकिपीडिया पेज से कॉपी पेस्ट कर दिया बिना कोई फ़ैक्ट चेक किए।
विकिपीडिया पे आप भी, किसी के भी बारे में भी कुछ भी लिख सकते हैं। लेख में कर्पूरी ठाकुर के ऊपर एक नेपाली महिला द्वारा यौन शोषण करने का आरोप लगा दिया गया और कर्पूरी ठाकुर को चोरों-बदमाशों और गुंडाओं का समर्थक बता दिया गया। उस समय नीतीश सरकार में सूचना और जनसम्पर्क मंत्री थे कर्पूरी ठाकुर जी के बेटे राम नाथ ठाकुर। मंत्री जी का डंडा चला और दैनिक जागरण को सरकारी विज्ञापन देना नगण्य कर दिया गया। दैनिक जागरण ने भी नीतीश सरकार से बदला लिया और बिहार में शराब उत्पादन और बिक्री में हो रही धांधली पर 500 करोड़ का एक घोटाला उजागर कर दिया और वो भी अपने अख़बार फ़्रंट पेज पर।
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अब नीतीश कुमार भी मामले में दख़ल दे दिए। उस समय तो दैनिक जागरण और नीतीश सरकार में सुलह हो गई लेकिन 2015 का चुनाव जितने के बाद नीतीश सरकार ने दैनिक जागरण के उस पत्रकार का जिसने नीतीश सरकार के उस शराब घोटाले का पर्दाफ़ाश किया था उसका ट्रान्स्फ़र पहले लखनऊ और फिर बाद में दिल्ली करवा दिया। नीतीश कुमार किसी को नहीं भूलते हैं ये कहावत भी पटना के राजनीतिक गलियारे में बहुत फ़ेमस है।
नीतीश सरकार का बिहार की मीडिया पर शिकंजा सिर्फ़ इस एक घटना तक सीमित नहीं था। जिस टेलीग्राफ़ अख़बार ने साल 2010 में बड़ी उम्मीद के साथ पटना में अपना कार्यालय खोला, उसी टेलीग्राफ़ को छह साल के भीतर साल 2016 में अपना पटना कार्यालय बंद करना पड़ा क्यूँकि बिहार सरकार टेलीग्राफ़ को सरकारी विज्ञापन देना बहुत कम कर दिया था, क्यूँ? क्यूँकि टेलीग्राफ़ अख़बार का थोड़ा वामपंथी और समाजवादी झुकाव है और अख़बार नीतीश सरकार की कुछ नीतियों की आलोचना करती थी।
इसी तरह जिस प्रसिद्ध टाटा इन्स्टिटूट ओफ़ सोशल साइयन्स ने बदलते बिहार की बदलती तस्वीर की चमक से प्रभावित होकर पटना में अपना क्षेत्रीय कार्यालय साल 2016 में खोला उसी टाटा इन्स्टिटूट ओफ़ सोशल साइयन्स को अपना पटना कार्यालय छह साल के भीतर साल 2022 में बंद करना पड़ा। ऐसा इसलिए हुआ क्यूँकि मुज़फ़्फ़रपुर बालिका गृह कांड में नीतीश सरकार का भांडा फोड़ने वाला टाटा इन्स्टिटूट ओफ़ सोशल साइयन्स ही था। इसलिए ये बिलकुल मत सोचिए कि नीतीश सरकार का बिहार की मीडिया पर शिकंजा सिर्फ़ एक घटना तक सीमित था बल्कि ऐसे कई और घटना भी है जिसका ज़िक्र इस छोटे से विडीओ में नहीं किया जा सकता है।
साल 2010 के चुनाव में जीत के बाद से ही नीतीश सरकार को विज्ञापन की भी सरकार बोला जाने लगा था जिसके कई प्रमाण हैं। उदाहरण के लिए साल 2013 में प्रेस काउन्सिल ओफ़ इंडिया की Pressure on Media in Bihar नामक शीर्षक से 20 पेज की एक रिपोर्ट छपी, इस रिपोर्ट में यह साफ साफ लिखा हुआ है कि बिहार में मीडिया, बिहार सरकार का ‘Undeclared Mouthpiece’ जैसी हो गयी है जो आपातकाल कि तरह है। ध्यान रखिएगा जब ये रिपोर्ट आयी थी उस समय बिहार में NDA की सरकार थी और केंद्र में UPA की सरकार थी।
इस रिपोर्ट को झूठा और मनगढ़ंत बोलने वालों में वर्तमान के राजसभा सदस्य और तत्कालीन प्रभात खबर के एडिटर इन चीफ़ हरिवंश नारायण सिंह भी शामिल थे जिहोने उस रिपोर्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए लिखा था कि ये बिहार के पत्रकारीता का मज़ाक़ उड़ाया गया है। PCI के रिपोर्ट पर उस समय बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने सफ़ाई दी थी कि वो रिपोर्ट का फ़ाइनल कॉपी नहीं था, बल्कि वो सिर्फ़ ड्राफ़्ट था। लेकिन क्या ड्राफ़्ट में भी बिहार में प्रेस स्वतंत्रता के बारे में ऐसी बात लिखा जाना बिहार सरकार के लिए शर्मनाक नहीं था?
बाद में अरिजिनल रिपोर्ट भी छपी और उस अरिजिनल रिपोर्ट में भी वही बात छपी जो ड्राफ़्ट में थी लेकिन उस खबर को बिहार सरकार ने दबा दिया। अपना बचाव करते हुए बिहार सरकार के सूचना जनसम्पर्क मंत्रालय ने रिपोर्ट बनाने वालों पर यह भी आरोप लगाया कि रिपोर्ट में बिहार सरकार के पक्ष को न सुना गया और न ही रिपोर्ट में शामिल किया गया था।
आज भी मीडिया स्वतंत्रता रैंकिंग या भुखमरी की रैंकिंग में भारत के गिरते रैंकिंग पर मोदी सरकार के नेता यही सफ़ाई देते हैं, कि रिपोर्ट में ही गड़बडी है, इनलोगों को रिपोर्ट ही नहीं बनाना आता है। लेकिन बिहार के बारे में एक रिपोर्ट में नहीं, बल्कि कई रेपोर्टों में नीतीश सरकार द्वारा मीडिया पर कसे गए शिकंजे का ज़िक्र किया गया है।
एक अन्य रिपोर्ट में बिहार में प्रेस स्वतंत्रता और बिहार Advertisement Policy 2008 के बारे में ये कहा गया कि ये बिहार Advertisement Policy 2008 जगन्नाथ मिश्र की ‘बिहार प्रेस बिल’ 1982 की याद दिलाती है। उस दौर में इस बिल के ख़िलाफ़ कई पार्टियों के नेता और सभी अख़बारों के एडिटर एक साथ आए थे विरोध करने के लिए लेकिन नीतीश कुमार के दौर में बिहार Advertisement Policy 2008 या 2016 के ख़िलाफ़ कोई चू शब्द नहीं बोल पाया।
साल 2007-08 तक बिहार सरकार सिर्फ़ प्रिंट मीडिया में विज्ञापन देती थी लेकिन 2008-09 से नीतीश सरकार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी विज्ञापन देने लगी थी। साल 2008 और फिर साल 2016 में बिहार सरकार ने नई बिहार Advertisement Policy लाई जिसके तहत सरकार का पूरा विज्ञापन व्यवस्था को सूचना जनसम्पर्क मंत्रालय के हाथों में केंद्रित कर दिया जबकि नीतीश कुमार ने हमेशा यह मंत्रालय उसी व्यक्ति को दिया, जो नीतीश कुमार के व्यक्तिगत रूप से क़रीब हों और उसके साथ साथ इस मंत्रालय के सचिव भी हमेशा वही रहे जो मुख्यमंत्री के भी निजी सचिव रहते थे।
इस बिहार Advertisement Policy के आने से पहले बिहार सरकार का अलग अलग मंत्रालय अपने अपने मंत्रालय और विभाग का विज्ञापन मंत्रालय के स्तर से मैनिज करता था लेकिन इस बिहार Advertisement Policy के तहत अब सभी विभाग और सभी मंत्रालय का विज्ञापन का सारा काम IPRD करने लगा है।
मतलब पूरा बिहार का पूरा विज्ञापन एक मंत्रालय के हाथों में, और वो मंत्रालय नीतीश कुमार के करीबी नेता के हाथ में, और वो करीबी नेता नीतीश कुमार के हाथ में, मतलब कि बिहार सरकार का पूरा विज्ञापन व्यवस्था नीतीश कुमार के हाथ में चला गया। लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान विज्ञापन की व्यवस्था बदली है। अब प्रिंट मीडिया में विज्ञापन से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विज्ञापन।
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विज्ञापन के इस बदलते ट्रेंड को मोदी सरकार और भाजपा ने तो पकड़ लिया और अख़बारों से अधिक विज्ञापन न्यूज़ चैनल को देने लगी लेकिन नीतीश कुमार अभी भी सबसे ज़्यादा विज्ञापन अख़बार को ही दे रही है। उदाहरण के लिए साल 2018-19 के दौरान केंद्र सरकार द्वारा किए गए कुल खर्च का लगभग 45 प्रतिशत हिस्सा TV चैनल को दिया गया और 35 प्रतिशत अख़बारों को और लगभग बीस प्रतिशत सड़कों पर लगने वाले बैनर पोस्टर के ऊपर खर्च किया गया।
लेकिन कांग्रेस सरकार के दौरान साल 2012-13 के दौरान लगभग 60 प्रतिशत से भी अधिक विज्ञापन पर खर्चा अख़बारों को दिया जाता था और TV चंनलों को मात्र 30 प्रतिशत दिया जाता था और बैनर-पोस्टर पर दस प्रतिशत भी खर्च नहीं किया जाता था। दूसरी तरफ़ बिहार में नीतीश सरकार ने साल 2009-10 के दौरान विज्ञापन पर किए कुल खर्चे का आठ प्रतिशत हिस्सा भी TV चैनल के ऊपर खर्च नहीं किया था जबकि लगभग 80% विज्ञापन खर्च सिर्फ़ अख़बारों पर किया गया था बिहार सरकार के द्वारा।

लेकिन पिछले कुछ वर्षों से प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया सोशल मीडिया के सहारे विज्ञापन को मैनिज करना, और सोशल मीडिया को मैनिज करने में मोदी सरकार और भाजपा से आगे आज तक कोई नहीं निकल पाया है। इतनी बड़ी संख्या में रोज़ बढ़ते यूटूब पोर्टल या सोशल मीडिया इंफलुएँचेर को मैनिज करना सरकार के किसी भी मंत्रालय या मंत्री या पूरी सरकार के भी बस की बात नहीं है, क्यूँकि सरकारी विज्ञापन नीति के अंतर्गत न तो यूटूबर आते हैं और न ही सोशल मीडिया Influencer आते हैं.
इन दोनो को कंट्रोल पार्टी के स्तर पर ही किया जा सकता है और जिस पार्टी का संगठन जितना मज़बूत होगा उस पार्टी का सोशल मीडिया और यूटूब पर प्रभाव उतना अधिक होगा, जिस पार्टी का कैडर जितना बड़ा और ऐक्टिव होगा वो पार्टी सोशल मीडिया को मैनिज करने में उतना ही अधिक सक्षम होगा।
यहीं पर आकर नीतीश कुमार मात खा गए। नीतीश कुमार की पार्टी न कैडर आधारित पार्टी है, न विचारधारा आधारित पार्टी है और न ही एक जाति, या धर्म या क्षेत्रीय पहचान आधारित पार्टी है। उसके ऊपर से नीतीश कुमार अभी तक प्रोफ़ेससोनल इलेक्शन मैनज्मेंट को भी अधिक तरजीह नहीं दी है जिसका ख़ामियाज़ा पार्टी, यह देख रही है कि JDU One man पार्टी बच गई है जिसके आगे भी नीतीश कुमार हैं और पीछे भी नीतीश कुमार ही हैं।
हालाँकि बिहार सरकार ने भी प्रयास किया है कि सोशल मीडिया को बल, धमकी और डर के सहारे कंट्रोल किया जाए लेकिन अभी तक नीतीश सरकार इस मामले में असफल रही है। 21 जनवरी 2021 को बिहार पुलिस ने एक अधिसूचना जारी किया था जिसमें धमकी भरे अन्दाज़ में सोशल मीडिया पर ऐक्टिव लोगों को धमकी दी थी कि अगर कोई भी सोशल मीडिया पर सरकार, मंत्री या नेता के बारे में कोई भी ग़लत जानकारी शेयर करेगा तो उसके ख़िलाफ़ भी कार्यवाही की जा सकती है। कार्यवाही तो हमारे ख़िलाफ़ भी की जा सकती है इस तरह की खबरों के पीछे की खबर को आप तक पहुँचाने के लिए लेकिन उसकी हमें फ़िक्र नहीं है।

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