पिछले कुछ वर्षों से हिंदुस्तान में हर दूसरे दिन किसी न किसी शहर या स्थान का नाम या तो बदला जा रहा है या बदलने का सुझाव दिया जा रहा है। यह ख़ासकर उन स्थानों के साथ हो रहा है जिसका नाम किसी मुस्लिम बादशाह, सुल्तान, या मुस्लिम की ऐतिहासिक पहचान के साथ जुड़ा हुआ है। जगह का नाम बदलना हिंदुस्तान की राजनीति की नई पहचान बनती जा रही है। लेकिन इस राजनीतिक पहचान की पाकिस्तान, बांग्लादेश समेत विश्व के अन्य देशों से जुड़ी कहानियाँ राजनीति, धर्मांधता और पहचान की राजनीति का एक रोचक पक्ष प्रस्तुत करती है। यह कुछ सूची है पाकिस्तान व बांग्लादेश के प्रसिद्ध शहरों या स्थानों की जिसका नाम आज़ादी के बाद बदला गया है।
पाकिस्तान:
पाकिस्तान में प्रमुख स्थलों का नाम बदलने का प्रथम दौर वर्ष 1947 के बाद शुरू हुआ जब ज़्यादातर उन स्थलों के नाम बदले गए जिनका नाम ब्रिटिश सरकार द्वारा बदला या रखा गया था। जब वर्ष 1958 में जनरल अयुब खान ने देश में सैनिक शासन शुरू किया तो नाम बदलने का यह प्रचलन और भी तेज हो गया। दूसरा दौर 1970 के दशक में आया जब वर्ष 1977 में जनरल जिया उल हक़ ने पाकिस्तान में तानाशाह शासन स्थापित किया। तीसरा दौर काफ़ी छोटा था जब वर्ष 1992 में हिंदुस्तान में बाबरी मस्जिद के विध्वंश के बाद पाकिस्तान के कई स्थलों के नाम भी बदले गए और कई मंदिरों को नुक़सान पहुँचाया गया।
पाकिस्तान में सिर्फ़ हिंदू पहचान के साथ जुड़े स्थानो के नाम नहीं बदले गए बल्कि इस्लाम के ही एक अन्य पंथ ‘अहमदिया’ को पहले तो वर्ष 1974 जिया उल हक़ ने ग़ैर-इस्लामिक घोषित किया और वर्ष 1999 में उनकी पहचान से जुड़े शहर रबवाह का नाम बदलकर चेनाब नगर रख दिया। सरकार द्वारा नाम बदलने के दशकों बाद भी लोग आम बोल चाल में उन स्थलों का नाम पुराने नाम से पहचान करते रहे। वर्ष 2017 में पाकिस्तान सरकार ने इस एवज़ में एक क़ानून भी बनाने की तैयारी किया जिसके तहत अगर कोई व्यक्ति गलती से भी किसी बदले हुए शहर या जगह का पुराना नाम लेता है तो उसे सजा होगी।

अब जब एक तरफ़ वर्ष 2019 में हिंदुस्तान की सरकार ने बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर बनाने का फ़ैसला ले लिया है वहीं हिंदुस्तान की बाबरी मस्जिद गिराए जाने की प्रतिक्रिया में पाकिस्तान में 1992 में तोड़े गए जैन मंदिर और नीला गुम्बद मंदिर को पाकिस्तान सर्वोच्च न्यायालय ने दिसम्बर 2021 में फिर से बनवाने के लिए आदेश दिया है। हलंकि नीला गुम्बद मंदिर में वर्ष 1993 से ही सुचारु रूप से पूजा-अर्चना प्रारंभ हो चुका था।
बांग्लादेश:
बांग्लादेश में स्थानो—स्थलों के नामकरण की राजनीति को मुख्यतः चार दौर में बाटा जा सकता है। पहला दौर तब शुरू हुआ जब वर्ष 1947 में बांग्लादेश, पूर्वी पाकिस्तान के रूप स्वतंत्र हुआ। इस दौर में जिस तरह से पश्चमी पाकिस्तान में ग़ैर-इस्लामिक पहचान से जुड़े स्थलों का नाम बदला गया उसी तरह पूर्वी पाकिस्तान अर्थात् बांग्लादेश में भी किया गया। दूसरा दौर तब आया जब वर्ष 1971 में बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग स्वतंत्र देश बना।
इस दूसरे दौर में कई स्थलों के नाम जिनकी पहचान पश्च्मी पाकिस्तान से अधिक थी उनका बंगलाकरण किया गया। बांग्लादेश में तो कई मुस्लिम पहचान वाले जगहों का नाम वर्ष 1971 के बाद बदलकर धर्म निष्पक्ष या बंगला भाषा से सम्बंधित नाम रख दिया गया। उदाहरण के तौर पर शमशेरनगर का नाम बदलकर फेनी रख दिया वहीं जिस अयुब नगर को पाकिस्तान के तानाशाह अयुब खान पूर्वी पाकिस्तान की राजधानी बना रहे थे उसका नाम बदलकर शेर-ए-बंगला नगर रख दिया गया।

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वर्ष 1971 में स्वतंत्र बांग्लादेश बनने के बाद तो नसीराबाद का नाम बदलकर मयमेंसिंघ कर दिया गया। मुजीबनगर में पहली आज़ाद बांग्लादेश सरकार बनी थी जिसने आगे चलकर हिंदुस्तान की मदद से पूरे पूर्वी पाकिस्तान को अलग राष्ट्र बना लिया। इस निष्कासित सरकार का नाम ही रख दिया गया था मूजीबनगर सरकार।
बांग्लादेश में नाम बदलने की प्रथा का तीसरा दौर तब आया जब Hussain Muhammad Ershad (1983-90) ने बांग्लादेश में तानाशाह शासन स्थापित किया और उन्होंने अपने नाम पर कई नए स्थलों का निर्माण किया। बांग्लादेश में नाम बदलने का चौथा दौर अब वर्तमान में चल रहा है।
इस चौथे दौर में Hussain Muhammad Ershad द्वारा बनवाए गए नामों को बदलने के साथ-साथ शेख़ हसीना और ख़ालिदा शेख़ के नेतृत्व में बांग्लादेश की दोनो प्रमुख राजनीतिक पार्टी की सरकार अपने-अपने संस्थापक नेताओं के नाम पर कई विशेष स्थलों का नाम बदल रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान बांग्लादेश की दो मुख्य राजनीतिक गठबंधन सरकार बदलने पर प्रसिद्ध स्थानों का नाम बदल देती है। इस नाम बदलने का आधार दोनो पार्टी अपने अपने भूतपूर्व नेताओं को सम्मान देना बनाते हैं। जिया हवाई अड्डा और जिया उद्यान का बार बार नाम बदलना इसका उदाहरण है।
वैश्विक परिदृश्य:
पर इन सबके बीच बांग्लादेश में हिंदुस्तान या पाकिस्तान की तरह धर्म, संस्कृति या इतिहास को आधार नहीं बनाया जा रहा है। धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को आधार बनाकर जगहों का नाम बदलने का प्रचलन अक्सर तब होता है जब उक्त देश में तानाशाह शासन स्थापित होता है जो जनता का ध्यान अपने तानाशाही नीतियों से भटकाने के लिए संस्कृति और धर्म को आधार बनाते हैं।
इसी तरह का प्रयास अतिवादी साम्यवादी रुस में भी अपनाया गया था जब वर्ष 1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद रुस की ऐतिहासिक शहर सेंट पीटर्स्बर्ग का नाम बदलकर लेनिनग्राड रख दिया गया था। बाद में जब वर्ष 1991 में सोवियत रुस का पतन हुआ तो लेनिनग्राड का नाम फिर से बदलकर सेंट पीटर्स्बर्ग कर दिया गया।
रुस में प्रमुख स्थलों के नाम बदलने की प्रक्रिया इतिहास में सर्वाधिक हुई है जहाँ 1917 में रुस की क्रांति के बाद से ही लगातार स्थलों के नाम बदले गए हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रुस ने जिन जिन क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा किया वहाँ भारी संख्या में स्थलों के नाम बदले। इसी तरह जब 1970 के दशक के दौरान रुस और चीन के बीच दूरियाँ बढ़ने लगी तो रुस ने अपने सुदूर पूर्व के क्षेत्रों में कई स्थलों के नाम बदले।

विश्व के सर्वाधिक विनाशकरी तानाशाह हिट्लर के कार्यकाल के दौरान तो अकेले हिट्लर के नाम पर सौ से अधिक शहरों और गलियों के नाम बादल दिए गए थे जिसे हिट्लर की मौत के बाद फिर से बदला गया।
वैसे तो हिंदुस्तान में भी आज़ादी के बाद कई शहरों, गलियों, चौराहों का नाम बदला गया है लेकिन दरअसल इनका नाम नहीं बदला गया है बल्कि शब्दों की स्पेलिंग बदली गई है। उदाहरण के तौर पर बम्बई मुंबई बन गई, कलकत्ता कोलकाता बन गई पर कोई नया नाम नहीं दिया गया। दुनियाँ के ज़्यादातर देशों में नाम बदलने की प्रक्रिया में सिर्फ़ इतना ही बदलाव किया जाता है ताकि स्थानिये भाषा में इनका उच्चारण सुलभ व सुगम ढंग से किया जाए। बांग्लादेश समेत विश्व के अधिकतर देशों में भी इसी तरह के बदलाव देखे गए हैं।
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