HomeHimalayasपहाड़ के भूतों-पिशाचों के कितने रंग?

पहाड़ के भूतों-पिशाचों के कितने रंग?

पहाड़ों में पाए जाने वाले भूतों (प्रेतात्माओं) में से सर्वाधिक प्रचलित को भूत ही कहा जाता है। भूत वो लोग बनते थे जिनकी मृत्यु किसी हिंसक हत्या, दंगा या डूबने से होती थी और जिनका दाह-संस्कार नहीं हो पता था। ऐसे भूत सिर्फ़ अपने परिवार के लोगों को ही परेशान करते थे ताकि उनका दाह-संस्कार किया जा सके। 

आज पहाड़ों में कुछ लोग ‘मसान’ शब्द सभी तरह के प्रेतात्माओं के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं लेकिन ‘मसान’ सिर्फ़ उन भूतों या प्रेतात्माओं को ही बोला जाता है जिनकी मृत्यु के समय उम्र बहुत कम हुआ करता था और उन्हें जलाने के बजाय दफ़न किया जाता था। ये गाँव में अक्सर भालू और अन्य जंगली जानवरों के रूप में विचरण करते रहते थे। 

तीसरे तरह के भूतों को ‘टोला’ कहा जाता था जिनकी मृत्यु वयस्क उम्र में होती थी लेकिन वे अविवाहित पुरुष हुआ करते थे। प्रेतात्माओं की अन्य प्रजातियाँ ‘टोला’ को पसंद नहीं करते और यही कारण था कि ऐसे भूत अक्सर एकांत और खंडर हो चुके स्थानों पर अधिक पाए जाते थे। 

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‘ऐरी’ उन भूतों या प्रेतात्माओं को कहा जाता था जिनकी मृत्यु शिकार के दौरान होती थी और ये अक्सर उसी जंगल में ही विचरण करते हुए पाए जाते थे जहाँ उनकी मृत्यु हुई थी। इस तरह के भूत अक्सर अपने कुत्तों पर आते थे और उन्हें अपनी तरफ़ बुलाते थे। इस तरह की प्रेतात्मा कुछ ख़ास तरह की आपदा के प्रति हमें अक्सर आगाह किया करते थे। 

अचेरी भूत अविवाहित महिला की होती थी जो पहाड़ के शिखर पर रहते थे और नीचे तभी उतरते थे जब शाम को उन्हें किसी को पकड़ना होता था। दिन में ये सिर्फ़ उन महिलाओं को पकड़ते थे जो लाल रंग की पोशाक पहने हुए इनके रहने के स्थान के आस-पास से गुजरते थे। जब भी कोई अविवाहित लड़की बीमार पड़ती थी तो पहला शक अचेरी भूतों पर ही जाता था क्यूँकि ऐसा माना जाता था कि अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए अचेरी भूत अपने जमात की संख्या बढ़ाने का हमेशा प्रयास करते रहते थे।

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पहाड़ों पर शाम के समय ढलते धूप की छाया में जब भी कोई विशेष आकृति, ख़ासकर हाथी, या घोड़े के आकर में बनती थी तो लोग उसे अचेरी भूत का ही प्रभाव समझते थे। ऐसा ही एक पहाड़ श्रीनगर शहर के पीछे था जहां अक्सर ऐसी आकृतियाँ बनती रहती थी। 

कुमाऊँ के उत्तरी क्षेत्र में रूनिया नामक प्रेतात्मा होता था जो अक्सर रात में पत्थर के सहारे गाँव का चक्कर लगाता था। ये दिखते नहीं थे लेकिन पत्थर के चलने की आवाज़ से इनके आने का अंदाज़ा लगता था। ये रूनिया प्रेतात्मा सिर्फ़ महिलाओं को ही पकड़ती थी। ये प्रेत महिलाओं को अपनी ओर अपनी सुंदरता और वैभवता की तरफ़ रिझाती थी और फिर रोज़ उसके सपने में आय करती थी।

मैदानों में नज़र सिर्फ़ लोगों को लगती थी लेकिन पहाड़ों में लोगों से अधिक घर की इमारतों को नज़र लगती थी जिसे बेदह (Bed,h) होना भी कहा जाता था। यह अक्सर उन घरों को होती थी जिसका निर्माण ऊँचे पहाड़ पर होता था या इमारत ऊँची होती थी। ऐसे घर को नज़र लगने से इन घरों में रहने वाले लोग बीमार पड़ जाते थे। इन घरों में रहने वाले लोगों को बचाने का एक ही उपाय था कि घर की ऊँचाई को कम किया जाय या घर ही छोड़ दिया जाय।

भूतों का इलाज:

इन भूतों व प्रेतात्माओं से निजात दिलाने वालों में भी विविधता होती थी। घाट उन भूत विशेषज्ञों को बोला जाता था जिन्हें जादू-टोना के निवारण में महारथ हशिल होता था जबकि बोगसा उन ओझा-जंत्री को बोला जाता था जो अर्ध-मानव व अर्ध-जानवर का रूप ले लेते थे। श्रीनगर शहर में रहने वाला एक बोगसा पूरे उत्तराखंड में प्रसिद्ध था जिनके बारे में चर्चा थी कि उनकी उम्र दो सौ वर्ष से अधिक हो चुकी थी। आज भी पहाड़ के लगभग सभी गाँव में जागर का आयोजन देवी देवताओं के साथ साथ मसान को दूर करने के लिए होता है।

अल्मोडा
चित्र: गढ़वाल के एक गाँव में जागर का आयोजन।

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Sweety Tindde
Sweety Tinddehttp://huntthehaunted.com
Sweety Tindde works with Azim Premji Foundation as a 'Resource Person' in Srinagar Garhwal.
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