फ़रवरी 2021 में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने पहाड़ की महिलाओं के लिए एक नयी योजना ‘घस्यारी कल्याण योजना’ प्रारम्भ किया जिसे अक्तूबर 2021 में गृहमंत्री अमित शाह ने आधिकारिक रूप से मंज़ूरी दे दी है। ‘घस्यारी कल्याण योजना’ की तरह पशुपालक परिवार को घास बाटने की योजना का इतिहास हिंदुस्तान में अच्छा ख़ासा पुराना है। आज भी आंध्र प्रदेश की सरकार पशुपालकों को सस्ते सब्सिडी वाले दाम पर चारा उपलब्ध करवा रही है (स्त्रोत लिंक) जबकि तमिलनाडु सरकार 2011 से ही मुफ़्त घास बाटने के बाद अब घास काटने की मशीन मुफ़्त में बाट रही है (स्त्रोत लिंक)। बिहार का प्रसिद्ध ‘चारा-घोटाला’ (लालू यादव) भी घास बाटने की योजना से ही सम्बंधित है।

चारा घोटाला:
बिहार में JP आंदोलन के दौर में पिछड़े वर्ग का राजनीतिक प्रादुर्भाव हो रहा था। लालू यादव, नीतीश कुमार, कपूरी ठाकुर आदि कई पिछड़े वर्ग से नेता राज्य की राजनीति में एक के बाद एक सत्ता के सर्वोच्च पद पर क़ाबिज़ हो रहे थे। इन पिछड़े वर्ग की जनता के पास ज़मीन के अभाव में सिर्फ़ जानवर थे। उन जानवरों के चारगाहों पर भी सामंतवादी उच्च जाति के लोगों का एकाधिकार था। चारगाहों के अभाव के दौर में जब राज्य की सत्ता चरवाहा समाज के नेताओं के हाथों में पहुँचा तो चरवाहा समाज के उन जानवरों के लिए चारे का इंतज़ाम करना भी नए सरकार बेहद ज़रूरी ज़िम्मेदारी बन गई।
इन चरवाहा योजनाओं में बिहार शुरू से ही अव्वल स्थान पर रहा। बिहार में तो चरवाहा विद्यालय भी खोले गए जिसकी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रिये स्तर पर सराहना की गई। पर दस वर्षों के अंदर चरवाहा विद्यालय बंद होने लगे और जानवरों को मुफ़्त चारा बाटने की योजना में बड़े घोटाले सामने आने लगे। हलंकि इस चारा-घोटाला की शुरुआत लालू यादव के मुख्यमंत्री बनने से पहले से ही हो गई थी और CAG को भी इसकी भनक लग चुकी थी, लेकिन सर्वाधिक बदनाम हुए लालू यादव क्यूँकि घोटाले की अधिकृत रेपोर्ट लालू यादव मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान तैयार हुई थी।
इस घोटाले में दरअसल होता ये था कि चारे की उपज से लेकर ख़रीद और बिक्री सभी काग़ज़ों में होती थी जबकि चरवाहों तक योजना की भनक तक नहीं लगती थी। 1980 या 1990 के दौर में न तो स्मार्ट फ़ोन थी, न इंटेरनेट, न WhatsApp/Facebook और उसके ऊपर से बिहार का चरवाहा समाज सर्वाधिक अशिक्षित था। आज स्मार्ट फ़ोन भी है, इंटेरनेट भी और WhatsApp/Facebook पर तो मानवजीवन स्थिर हो चुका है।
इसे भी पढ़ें: ‘घास-घसियारी’: पहाड़ी कहावतों के आइने से

पहाड़ और पशुपालन:
पहाड़ों में तो आज भी बिहार से बेहतर साक्षरता दर है और पहाड़ का हर व्यक्ति हमेशा से चरवाहा था। यहाँ चारागाह की ज़ामिनों पर भी कोई जातिगत क़ब्ज़ा नहीं है और पहाड़ की अर्थव्यवस्था हमेशा से खेतों पर कम और जानवरों पर अधिक निर्भर रही है। इतिहास में पहाड़ दुध-घी का निर्यातक था। पर आज दुध की थैलियाँ मैदान से पहाड़ तक पहुँच चुकी है, पलायन की मार सह रहे पहाड़ी खेत बंजर होते जा रहे हैं और वन-क़ानून में बदलाव ने जानवरों से उसका चारागाह बहुत पहले ही छिन चुकी।
ऐसी परिस्थिति में हालाँकि पहाड़ में चरवाहा समाज (जाति) की सरकार नहीं है पर उपरोक्त बदलती परिस्थित्यों में ऐसा प्रतीत होता है कि आज पहाड़ को बिहार से अधिक चारा-योजना (घस्यारी कल्याण योजना) की ज़रूरत है। एक आँकड़े के अनुसार उत्तराखंड में वर्ष 2002-03 के दौरान 16.29 लाख टन सुखा चारा (घास) की कमी थी (स्त्रोत लिंक) जो वर्ष 2012 में बढ़कर 47.74 और 2018-19 में बढ़कर 57.07 लाख टन हो गई (स्त्रोत लिंक)। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में सर्वाधिक हरे चारा की कमी झारखंड के बाद उत्तराखण्ड (55 प्रतिशत) में ही है। (स्त्रोत लिंक)
एक शोध के अनुसार उत्तराखण्ड में जितना चारा उप्लब्ध है उसका लगभग एक तिहाई संग्रहण का उचित प्रबंध नहीं होने के कारण बर्बाद हो जाता है। प्रदेश में चारे का ज़्यादातर संग्रहण महिलाएँ पेड़ों के ऊपर करती है जो बारिश और जंगली आग के हवाले हो जाती है। प्रदेश की 40 प्रतिशत से अधिक चारा जंगल से आते हैं जबकि सरकार आज भी जंगलों से चारा लाने के एवज़ में महिलाओं पर 30-100 रुपए तक वार्षिक जंगल प्रवेश कर लिया जाता है। (स्त्रोत लिंक)
घस्यारी कल्याण योजना:
‘घस्यारी कल्याण योजना’ के अनुसार सरकार पहाड़ में जानवर पालने वाले सभी परिवारों को सस्ते दर में घास/चारा वितरण करेगी। चारा के अलावा सरकार ने सभी महिलाओं को घस्यारी टूलकिट देने का वादा किया है जिसमें ज़मीन खोदने के लिए दो फावड़ा, घास काटने के लिए दो दराती, पानी की एक बोतल और खाना ले जाने के लिए एक टिफ़्फ़िन रहेगी।
सवाल ये उठता है कि अगर उत्तराखंड की महिलाओं को घास उनके घर पर सस्ते दाम में उप्लब्ध करवाने की योजना (घस्यारी कल्याण योजना) बना ही चुकी है तो फिर महिलाओं को घास काटने में सुविधा के लिए ये घस्यारी टूलकिट क्यूँ बाटा जा रहा है? सवाल यह भी उठता है कि घस्यारी कल्याण योजना के तहत सरकार उन गाँव में सरकार चारा कैसे पहुँचायेंगी जहाँ आज तक न सड़क पहुँची है और न ही यातायात के साधन। ऐसी गाँव की महिलाओं को घास देने के बजाय क्या सरकार पहाड़ के गाँव को चारगाहों व घास के बुग्यालों (मैदान) से सड़क के सहारे जोड़ नहीं सकती है ताकि उन्हें घास ढ़ोने में कोई दिक़्क़त न हो?
उत्तराखण्ड में समस्या घास की उपलब्धता की भी नहीं और न ही घास काटने की है बल्कि असल समस्या कटने के बाद घास की ढुलाई की है। आख़िर क्यूँ ऐसा होता है की उत्तराखंड की सरकार पहाड़ की असल समस्या को समझने में गलती करती है और उस ग़लत समझ के साथ पहाड़ के लिए योजनाएँ बना देती है? इस प्रश्न का जवाब पहाड़ के लोगों के पलायन से अधिक पहाड़ों की राजनीति के पलायन में छिपा हुआ है।

राजनीतिक पलायन:
उत्तराखंड से पलायन करने वालों में से यहाँ के नेता और अफ़सर सर्वाधिक आगे हैं और सम्भवतः यही कारण है कि अंग्रेजों के दौर से ही राजनीति और प्रशासन का केंद्र पौड़ी, अल्मोडा और टेहरी जिले में सर्वाधिक पलायन हुआ है। व्यक्ति के पलायन के साथ उस सोच का भी पलायन होता है जिस सोच को व्यक्ति अपने साथ लेकर पलायन करता है। पहाड़ के नेता, मंत्री और आला अधिकारी पहाड़ के नाम पर पहाड़ के ऊपर शासन करना चाहते हैं पर उनकी पहाड़ी सोच पलायन कर चुकी है जिसे मैदानी सोच विस्थापित कब का विस्थापित कर चुकी है।
पहाड़ी सोच के इस पलायन और विस्थापन का जीता जागता सबूत है पौड़ी स्थित देश के पहले और आख़री पलायन आयोग के मुख्य कार्यालय के गेट पर वर्षों से लटका ताला जिसका शरीर तो पौड़ी में है पर आत्मा देहरादून में बसती है। घस्यारी कल्याण योजना का भी वही हश्र होना है पलायन आयोग का या पहाड़ के विकास के लिए शुरू किया गया था। बिहार के चारा योजना बनाने वालों का तो कम से कम प्रदेश के चरवाहा समाज के साथ इतिहासिक, समाजिक और आत्मीय सम्बंध जुड़ा हुआ था पर उत्तराखंड के शासक प्रशासकों का तो घस्यारी कल्याण योजना के साथ शायद ही कोई आत्मीय सम्बंध हो।
Hunt The Haunted के WhatsApp Group से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें (लिंक)
Hunt The Haunted के Facebook पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें (लिंक
[…] इसे भी पढ़े: घस्यारी कल्याण योजना: पहाड़ में चारा-घ… […]