बचपन में एक कहानी सुना करते थे, अपने भी शायद सुना होगा। एक दिन मास्टरजी ने पूरे क्लास को गाय पर निबंध लिखने को बोला। एक बच्चे ने निबंध में सिर्फ़ इतना लिखा “गाय हमारी माता है, हमको कुछ नहीं आता है,
बदले में मास्टरजी ने भी उसके कॉपी पर सिर्फ़ इतना लिखा, “बैल तुम्हारा बाप है, नम्बर देना पाप है।” “गाय हमारी माता है, तो बाप कौन है” इस तरह के हंसने हसाने और कटाक्ष करने के लिए ऐसे कई मिम्स खूब प्रचलित हुए है, कम से कम पिछले कुछ दशक के दौरान तो ज़रूर। लेकिन अपने कभी ये सुना है? “देश धरम का नाता है, गाय हमारी माता है” अगर नहीं सुना है, तो आज हम आपको बताएँगे गाय से जुड़े ऐसे कई मुहावरों और मिम्स के बारे में जो अपने कभी नहीं सुना होगा।
क्या आपने कभी सोचा है कि ‘गाय हमारी माता है’ मुहावरे या पंक्ति का इस्तेमाल सबसे पहले कब हुआ होगा? कहाँ हुआ होगा? किस संदर्भ में किया गया होगा? और किस महानुभाव ने किया होगा? न्यूज़ हंटर्स पर आज के “हमारी बपौती” कार्यक्रम में हम ऐसे ही गाय से संबंधित मुहावरे, मिम्स और पंक्तियों पर चर्चा करेंगे। आपको ऐसे मुहावरों और मिम्स बनने के लगभग डेढ़ सौ सालों के इतिहास की यात्रा पर ले चलेंगे।
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‘गाय हमारी माता है’ इस पंक्ति का किसी भी रूप में इस्तेमाल होने का सबसे पहला उदाहरण 1960 के दशक में सपन स्टूडेओ के एक कैलेंडर में मिलता है। इस कैलेंडर में एक गाय है जिसके चार स्तनों से दूध निकल रहा है और वहीं बैठे चार लोग उसे पी रहें है। चित्र में इन चार लोगों को हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई धर्म के भेष-भूषा में चित्रित किया गया था।
हिंदुस्तान में अलग अलग धर्म के मानने वाले लोगों की पहचान उनके कपड़ों और भेष-भूषा के आधार पर करने का प्रचलन अभी तक नहीं शुरू हुआ था। अभी भी दूर दराज के गाँव और छोटे शहरों में लोगों के धर्म की पहचान उनकी साधना पद्धति और मंदिर-मस्जिद तक सीमित था। इसलिए यह निश्चित करने के लिए की इस चित्र को देखने वाला इन चार लोगों के अलग अलग धर्म की पहचान आसानी से कर सके उसके लिए चित्र के पीछे एक मंदिर, एक गुरुद्वारा, एक चर्च और एक मस्जिद भी चित्रित कर दिया था। इस चित्र के नीचे लिखा हुआ था, “देश धर्म का नाता है, गाय हमारी माता है।”
दर असल आज़ादी के बाद देश में राष्ट्रीय एकता का माहौल बनाने के लिए सरकार हर सम्भव प्रयास कर रही थी। धर्म के आधार पर देश के विभाजन के बाद सभी इसकी ज़रूरत भी महसूस कर रहे थे। इस चित्र और पंक्ति दोनो से इसी दिशा में प्रयास किया जा रहा था। लेकिन गाय का जिस तरह इस्तेमाल 1950 और 1960 के दशक के दौरान सभी धर्मों के बीच एकता के लिए किया गया वो न तो 1950 के दशक से पहले हुआ था और ना ही 1960 के दशक के बाद कभी हो पाएगा।
1960 के दशक के बाद तो ‘गाय हमारी माता है’ पंक्ति का इस्तेमाल मज़ाक़ और राजनीति में अधिक और गौ-रक्षा आंदोलन में कम हुआ था। ये वही 1960 के दशक के बाद वाला इंदिरा का हिंदुस्तान था जब अहिंसा वाले महात्मा गांधी मजबूरी वाले महात्मा गांधी हो जाते हैं और गाय हमारी माता है के साथ हमको कुछ नहीं आता है जैसे कई जुमले उसके पीछे लग जाते हैं।
गाय की दो पेंटिंग:
भारत में गाय को गौ-माता के रूप में चित्रित करने का सबसे पहला प्रयास 1880 के दशक में तब देखा गया जब बंगाल के एक चित्रकार पी सी बिस्वास ने गौ-माता का एक चित्र बनाया। इस चित्र में “गाय हमारी माता है” जैसा कोई भी पंक्ति का इस्तेमाल नहीं किया गया था। इस चित्र में सिर्फ़ एक महिला गौ-माता की पूजा कर रही है और दूसरी महिला उसका दूध निकाल रही है। वहीं चार लोग भी गिलास लेकर बैठे-या खड़े हैं, दूध के इंतज़ार में। इसमें एक हिंदू है, एक मुस्लिम, एक पारसी और एक यूरोपिये है।
इसी तरह का दो और चित्र राजा रवि वर्मा ने भी साल 1915 में बनाया था। इन दोनो चित्रों में गौ माता के दूध के इंतज़ार में वही चारों धर्मों के लोग बैठे हैं जो पी सी बिस्वास के चित्र में बैठे थे। यानी कि एक हिंदू, एक पारसी, एक ईसाई और एक मुस्लिम। हालाँकि राजा रवि वर्मा और पी सी विस्वस के चित्र में बहुत सारे अंतर हैं। उदाहरण के लिए
१) पी सी विस्वस के चित्र में गाय का पूजा करने वाला से लेकर दुहने और यहाँ तक कि दूध पिलाने वाला भी महिला ही थी जबकि राजा रवि वर्मा के चित्र में एक भी महिला नहीं है।
२) पी सी विस्वस के चित्र में गाय के शरीर में ज़्यादातर चित्र हिंदू देवियों का है जबकि राजा रवि वर्मा के चित्र में गाय के शरीर में ज़्यादातर चित्र हिंदू देवताओं की है, पुरुष देवताओं का।
३) इसी तरह पी सी बिस्वास के चित्र में कोई मंदिर नहीं था लेकिन राजा रवि वर्मा के दूसरे चित्र में गाय के पीछे एक मंदिर का चित्र भी बना हुआ है।
एक और अंतर यह था कि पी सी बिस्वास के चित्र में दूध पीने वाले चार लोगों की जगह राजा रवि वर्मा के चित्र में दूध पीने वाले छः लोग थे जिसमें तीन हिंदू था और बाक़ी तीन में से एक मुस्लिम, एक पारसी, और एक यूरोपिए था।
विस्वस के चित्र में कोई खड़े-खड़े दूध पी रहा था तो कोई बैठे हुए लेकिन रवि वर्मा के चित्र में सभी बैठ के दूध पी रहे थे। शायद दूध पीने के लिए सबके सामने शर्त रखी गई होगी की बैठ के ही पीना है।
४) दोनो चित्र के बीच चौथा अंतर यह था कि पी सी वर्मा के चित्र में गाय को “जगत माता गौ-लक्ष्मी” बोला गया है लेकिन गौ-रक्षा के लिए कोई अपील नहीं किया गया है। जबकि राजा रवि वर्मा के चित्र में “गौ-रक्षण करने का अपील किया गया है।
५) राजा रवि वर्मा के चित्र में हिंदू को निर्देशित करने के लिए तीन हिंदुओं को शामिल किया गया है जबकि बाक़ी धर्म के लोगों के लिए एक एक व्यक्ति को चित्र में शामिल किया गया है। मिला जुला के यह कहा जा सकता है कि राजा रवि वर्मा का चित्र न सिर्फ़ लोगों को गौ-रक्षा के लिए अपील कर रहा था बल्कि उन लोगों का भी आलोचना कर रहा था जो मांसाहारी है जबकि पी सी विस्वास का चित्र लोगों से किसी तरह का कोई अपील नहीं कर रहा था।
४) राजा रवि वर्मा के चित्र में एक राक्षस रूपी मनुष्य गाय को तलवार से काटने का प्रयास कर रहा है जबकि एक हिंदू उसे यह कहते हुए रोक रहा है कि ‘मत मारो, गाय सर्विका जीविनी है’। अर्थात् गाय सभी को जीवन देती है, सभी को दूध देती है। उस राक्षस के ऊपर सिर्फ़ इतना लिखा हुआ है “हे मनुष्य हो, कलयूगी मांसाहारी जीव को देखो’ और कहीं भी मुस्लिम का नाम नहीं लिया। यानी कि अभी तक गौ-मांस और अन्य जानवरों के मांस के बीच में अंतर नहीं किया गया था। यानी कि इस चित्र में सिर्फ़ गौ-मांस खाने वालों की आलोचना नहीं की गई थी बल्कि किसी भी तरह के मांस खाने वाले व्यक्ति की आलोचना किया गया था।
गाय और कैलेंडर:
इसके बाद इस तरह के चित्रों को कैलेंडर पर छपवाकर धड़ल्ले से बेचा भी गया और मुफ़्त में बाँटा भी गया, आज़ादी के पहले भी और आज़ादी के बाद भी। ऐसी देवी देवताओं के चित्र वाले कैलेंडर का इस्तेमाल कम से कम अगले एक सौ सालों तक खूब हुआ। किसी ने इन कैलेंडरों के सहारे स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों को प्रचारित किया, किसी ने गांधी, अहिंसा और सत्य को तो किसी ने राम-राज और हिंदुत्व का प्रचार किया, जिसमें गौ-रक्षक भी शामिल थे। लेकिन इस्तेमाल सबने किया। आज़ादी के बाद तो ऐसे देवी-देवताओं वाले कैलेंडरों के सहारे नेताओं ने खूब चुनाव लड़े और अपनी पार्टी का भी खूब प्रचार किया। लोग के लिए इन देवी देवताओं वाले कैलेंडर को सम्भालकर रखना मजबूरी थी। देवी-देवता के चित्र को न वो फाड़ सकते थे ना फेंक सकते थे। आम लोगों के इस धार्मिक मजबूरी का इस्तेमाल सबने खूब किया फिर चाहे वो व्यापारी हो, नेता हो या धर्माधिकारी हो।
1930 का दशक, जब हिंदुस्तान की राजनीति में वामपन्थ और समाजवाद हावी हो रहा था, किसान आंदोलन और छात्र आंदोलन सड़कों पर था, नेहरू से लेकर, भगत सिंह, सुभाष बोस, और स्वामी सहजनंद के नेतृत्व में समाजवादी विचार मज़बूत होते जा रहा थे तो उसी दौर में हिंदी पत्रिका ‘माधुरी’ के साल 1937 के अंक में गौ माता का एक चित्र प्रकाशित हुआ। शीर्षक था दोहन। इस चित्र में ब्रिटिश पूँजीपति भारत रूपी गौ-माता के दूध यानी संसाधनों का दोहन कर रहा था। यानी कि गौ माता समाजवादियों को मदद कर रही थी भारत की आम जनता को पूंजीवाद और उपनिवेशवद के बीच गठजोड़ को समझाने में।
इस तरह से गौ-माता के चित्र को अलग अलग ढंग से अलग अलग संदर्भ में खूब इस्तेमाल हो रहा था। लेकिन इस बीच यह बात ध्यान रखने का है कि ‘गाय हमारी माता है’ पंक्ति अभी तक किसी चित्र या पर्चे में इस्तेमाल नहीं हुआ था। 19वीं सदी के आख़री दशकों के दौरान ब्रिटिश सरकार ने हिंदुस्तान के अलग अलग क्षेत्रों में इस्तेमाल होने वाली मुहावरों का संग्रहण करवाया था। बिहार में भी ऐसा ही एक रिपोर्ट बना। बिहार समेत हिंदुस्तान के किसी भी क्षेत्र में गाय हमारी माता है जैसा कोई भी पंक्ति या मुहावरा इस्तेमाल नहीं किया गया था। इसके बाद आज़ाद हिंदुस्तान में 1960 (संग्रह 1960) में भी भारत सरकार ने भी ऐसा ही सात खंडो में मुहावरों का एक संग्रह तैयार करवाया लेकिन उसमें भी ‘गाय हमारी माता है’ जैसी किसी पंक्ति का इस्तेमाल कहीं नहीं हुआ था।
इससे पहले राजा रवि वर्मा और पी सी विस्वास के चित्रों (एक) के साथ खूब छेड़छाड़ किया गया और अगले पचास वर्षों के दौरान कई बदलाव किए गए। लोगों ने रवि वर्मा के हस्ताक्षर जैसा राम वर्मा, शशि वर्मा, चंद्रा वर्मा जैसे नाम से हस्ताक्षर करके अपनी अपनी पेंटिंग राजा रवि वर्मा की पेंटिंग बताकर बेच रहे थे। इसी तरह से सपन स्टूडीओ की जगह सपर स्टूडीओ भी पैदा गया इस डूप्लिकेट के बाज़ार में। (Kajri Jain)
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इसी डूप्लिकेट मार्केट में एक चार महिला वाला भी एक चित्र आ गया, मतलब चित्र वही था राजा रवि वर्मा वाला लेकिन इसमें चार अलग अलग धर्म के पुरुषों की जगह चार अलग अलग धर्म के महिलाओं का चित्र था। यानी की चित्रकार का मक़सद इन चित्रों को महिलाओं के बीच फैलाना था। अब हिंदुस्तान में महिलाओं को भी वोट देने पुरुष के बराबर अधिकार मिल चुका था। (The Sacred Icon in the Age of the Work of Art)।
एक और गौर करने वाली बात इस चित्र में ये था कि पहले के चित्र में हिंदू, मुस्लिम, पारसी और यूरोपीय हुआ करते थे लेकिन इस चित्र में पारसी ग़ायब हो जाते हैं और उसका स्थान सिख ले लेता है जबकि यूरोपिए को अब ईसाई बोला जा रहा था। ऐसा ही एक चित्र 1976 में छापा था जिसमें गाय को गाय माता के रूप में चित्रित कर उसके अंदर सिख गुरु को भी दिखाया गया।। इस चित्र में सिख के दस गुरु भी हैं और गाय के सिंग पर गुरुद्वारा का गुम्बद भी बना हुआ है। अब हिंदू धर्म हिंदुस्तान में जन्मे अन्य धर्मों को भी अपने में समाहित करने का प्रयास कर रहा था।
इसी दौरान देश में धर्म की राजनीति का नया दौर चला, शाह बानो केस हुआ, बाबरी मस्जिद टूटी, दंगे हुए और फिर दोनो तरफ़ से ‘गाय हमारी माता है’ का इस्तेमाल हुआ। एक ने गाय के गोबर से गौ-मूत्र तक को निचोड़ लिया और दूसरे ने स्कूल से लेकर संसद तक मनोरंजन का सफ़र तय कर लिया इस ‘गाय हमारी माता है’ जुमले के सहारे।

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