देश और दुनिया के कई संग्रहालय गांधी और गांधी से संबंधित छाया-चित्रों, वीडियो, ऑडियो, मूर्तियों और गांधी की दिनचर्या से संबंधित वस्तुओं से भरे पड़े हैं। परंतु, शायद ही किसी संग्रहालय में गांधी से संबंधित कॉर्टूनों को संरक्षित किया गया है। गांधी के कॉर्टूनों की प्रदर्शनी भी आज तक मैंने कभी देखी नहीं है। हां, सुना जरूर है कि सन 1997-98 में राजघाट पर ‘पंच पत्रिका’ द्वारा पत्रिका में आज़ादी के दौरान गांधी से संबंधित छपे कार्टूनों की प्रदर्शनी लगाई गई थी। भूले-बिसरे कभी-कभी गांधी के किसी कार्टून पर कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो यकायक गांधी इतिहास को महत्वपूर्ण बना जाते हैं।
“गांधी=रावण”
ऐसा ही कुछ हुआ था, जब 1945 में नाथूराम गोडसे द्वारा सम्पादित मराठी पत्रिका ‘अग्रणी’ में गांधी जी का एक कार्टून विवादों में छा गया था। ‘अग्रणी’ पत्रिका में छपी इस कार्टून में गांधीजी को रावण के रूप में और श्यामा प्रसाद मुखर्जी व सावरकर को राम और लक्ष्मण के रूप में अखंड भारत नामक तीर से रावण रूपी गांधीजी का वध करते हुए दिखाया गया था। (कार्टून 1)

आज गांधी को महात्मा और रावण दोनो बनाने की प्रक्रिया एक साथ, एक ही विचारधारा में विस्वास रखने वाले लोगों के द्वारा और भी अधिक तीव्र गति से की जा रही है। गांधी को उनकी राजनीति और गांधी नामक विषय-वस्तु से निकालकर उन्हें आश्रम, झाड़ू, गोल चश्मे और उनकी फकीरी तक सीमित करने का अथक प्रयास जारी है।
“इतिहास लेखन और कार्टूनों का महत्व”
इतिहास ने गांधी के साथ जो इस कदर अन्याय किया है वो हमारे इतिहास की नहीं, बल्कि हमारे इतिहास लेखन की समस्या है। ज्यादातर इतिहास लेखन की प्रक्रिया इतिहास को व्यक्ति और व्यक्ति-विशेष द्वारा किए गए कार्यों तक सीमित करने का दावा करती है। फिर चाहे बुद्ध हों या मार्क्स या फिर गांधी ही क्यूं न हों। गांधी की विडम्बना तो इस कदर अपेक्षित है कि गांधी के विरोधी भी गांधी को महात्मा और उनके चश्मे को राष्ट्रीय सम्मान के साथ जोड़ चुके हैं। ऐसे समय में कार्टून एक वैकल्पिक इतिहास बन सकता है जो इतिहास में व्यक्ति को व्यक्ति विशेष के रूप में नहीं, बल्कि व्यक्ति को विचार और विषयवस्तु के रूप में सम्प्रेषित करने का प्रयास करता है।
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कार्टूनों की यही विशेषता हमें गांधी को फिर से एक विषय-वस्तु के रूप में पेश करने में मदद कर सकती है। गांधी के दौर के कार्टूनों ने न सिर्फ गांधी को सहलाने, बहलाने, फुसलाने, गुदगुदाने का प्रयास किया था; बल्कि इतिहास लेखन को उकसाने के लिए ढेर सारी सामग्री अपने पीछे छोड़ दी थी। परंतु, अफसोस है कि इतिहास ने इन कार्टूनों को न तो किताबों में उचित स्थान दिया, न संग्रहालयों या प्रदर्शनी-कक्षों में इन कॉर्टूनों को कोई कोना मिला। कुछ किताबों ने गांधी के कुछ कार्टूनों को ‘गांधी इन कार्टून’ आदि जैसे शीर्षकों से संकलित कर किसी कोने में डाल दिया है; ताकि इतिहास, इतिहास लेखन और गांधी में दिलचस्पी रखने वालों से सवाल न कर पाए।

“कार्टूनों में गांधी”
गांधी के समसामयिक कार्टूनों के दौर में कार्टूनिस्टों ने मोहनदास के साथ-साथ गांधी, गांधी जी, बापू और महात्मा पर भी अपना हाथ जमकर आजमाया। इन कार्टूनों को देश और दुनिया के प्रसिद्ध कई पत्र-पत्रिकाओं में छपे थे। गांधी को उनके दौर में प्रचलित जिन अलग-अलग सोचों और विचारधाराओं के आईनों ने अपने ऊपर उकेरा, उनमें गांधी को न सिर्फ ठग (कार्टून 2), बेवकूफ (कार्टून 9) और तानाशाह (कार्टून 5) के रूप में दिखाया गया, बल्कि रावण (कार्टून 1) भी कहा गया, जाति प्रथा का संरक्षक (कार्टून 3) और ईश्वर का अवतार (कार्टून 8) भी माना गया।

गांधी के इन कार्टूनों में से एक कार्टून में गांधी को 1930 के दौर का सर्वाधिक ताकतवर और प्रभावशाली व्यक्तित्व वाला दर्शाया गया (कार्टून 5), तो वहीं 1940 के दशक में गांधी को ज्यादातर कार्टूनों में शक्ति-विहीन, असहाय और लाचार दिखाया गया है (कार्टून 7)। इसी बीच गांधी के अहिंसात्मक आंदोलन की विधियों (भूख-हड़ताल) को गांधी के ही खिलाफ उपयोग करने वालों में अंग्रेज़ भी शामिल हो चुके थे (कार्टून 6)।

असहयोग आंदोलन के दौरान 1921 में ‘जन्मभूमि’ पत्रिका में ‘द एक्स्क्यूज़िंग रॉबर‘ नाम से छपे एक कार्टून में गांधी को औपनिवेशिक ताकतों द्वारा ठग कहकर संबोधित किया गया। (कार्टून 2) वहीं 1920 का दशक खत्म होते-होते गांधी से संबंधित कार्टूनों में औपनिवेशिक शासकों को गांधी के सामने लाचार प्रतीत होता दिखाया गया है (कार्टून)। 1930 के दशक में गांधी और गांधी के मूल्यों को युवा भारत से मिल रही ताकतवर चुनौती भी कई कार्टूनों में खुलकर उभरी थी।

जिस तरह से आज भी विभिन्न तबके के लोग अपनी-अपनी सहूलियत और जरूरत के अनुसार गांधी और गांधीवाद का विश्लेषण कर उसका उपयोग अपनी सोच और अपने कृत्यों को उचित सिद्ध करने के लिए करते हैं; ठीक उसी प्रकार गांधी के दौर में भी भिन्न-भिन्न विचार रखने वाले लोग गांधी का नाम लेकर गांधी के मूल्यों के ठीक विपरीत कार्य करते थे। इसी पक्ष को उजागर करता एक कार्टून ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान ‘द पायनियर’ अखबार में छपा, जिसमें गांधी और शांति का प्रतीक साथ लिए कुछ लोग अंग्रेजी शासन को धमकी भरे अंदाज में उनसे स्वराज की मांग कर रहे हैं और अंग्रेजों को चौरी-चौरा घटना को याद रखने की नसीहत दे रहे हैं। (कार्टून 4)


1930 के दसक का युवा हिंदुस्तान: “आपका ये कहना चाहते हैं कि आप एक ऐसी चुनावी प्रक्रिया में सुधार के लिए मरना चाहते हैं जो खुद विवादस्पद है? इससे बेहतर मुझे मेरे हाल पे छोड़ दीजिये.”
गांधी कोई हमसे परे नहीं थे। वे भी असहज महसूस करते थे, जब 1930 के दशक में भारतीय आंदोलन में अपनी पैठ बनाने वाले नेहरू, भगत सिंह, आंबेडकर और सुभाष जैसा युवा वर्ग गांधी से मतभेद को बखूबी खुलेआम रखता था। (कार्टून 7) हालांकि, यह वही 1930 का दशक है, जब गांधी अपने राजनीतिक जीवनकाल में सर्वाधिक ताकतवर नेता के रूप में कई कार्टूनों में उकेरे जाते हैं। ऐसा ही एक कार्टून है और एक रिपोर्ट है, जिसमें गांधी को तानाशाह के रूप दिखाया गया है।(कार्टून 5)

लेकिन गांधी हमेशा इतने प्रभावशाली नहीं रह पाते हैं। गांधी विभाजन के दौरान अपने आपको असहाय महसूस कर रहे थे, जिसे उस दौर के कार्टूनों ने बखूबी उकेरा है। (कार्टून) एक अमेरिकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट में 1947 में छपे एक कार्टून की मानें तो हिंदुस्तान में विभाजन के दौर में उत्पन्न अराजकता के लिए गांधी जिम्मेदार थे। 20 मई 1947 को ‘फ्री इंडिया’ नामक पत्रिका में गांधी को भारत के विभाजन के दौरान मूक-दर्शक के रूप में दिखाया है। (कार्टून) 1942 की अमेरिकी पत्रिका ‘द लाइफ’ के मुताबिक तो ज्यादातर अमेरिकी अखबार गांधी को या तो बेवकूफ समझते थे या नमक-हराम।(कार्टून)

बहरहाल, इतिहास लेखन महत्वपूर्ण इसलिए नहीं है कि यह ऐतिहासिक तथ्यों को सही और गलत निर्धारित करने का दावा करता है, बल्कि इतिहास वस्तुतः उक्त ऐतिहासिक दौर में किसी एक विषयवस्तु पर उस दौर में विद्यमान अलग-अलग विचारों को वर्णित करता है और इतिहास की जटिलताओं को उभारकर सामने लाता है। गांधी को वर्तमान न सही, पर कम-से-कम एक वैकल्पिक और जनवादी इतिहास तो नसीब हो; जिसे जानने और समझने के लिए अंग्रेजी, हिंदी या किसी प्रकार की कोई भाषा आवश्यक न हो; जिसे अनपढ़, मूक-बधिर सभी समान रूप से पढ़ने और समझने में सक्षम हों। और इसके लिए कार्टूनों से बेहतर कौन-सी भाषा हो सकती है?
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